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क्षत्र-प्रकारा
देवयानीमुशनसः सुता भार्यामवाप सः ॥
-~-महाभा० हरि० प्र०३० वाँ।। इसी विवाहसे 'यदु पत्रका होना भी माना गया है, जिससे यदुवंश चला।
इन सब उल्लेखोंसे स्पष्ट है कि प्राचीन काल में अनुलोम अपसे ही नहीं किन्तु प्रतिलोम रूपमे भी असवर्ण विवाह होने थे। दाय भागके ग्रंथोसे भो श्रमरण विवाहकी रितिका बहुन कुछ पता चलता है उनमें ऐसे विवाहोंसे उत्पन्न होने वाली संतनिके लिये विगसतके नियम दिये हैं, जिनके उल्लेखौको भी यहाँ विस्तार भयसे छोड़ा जाता है। प्रस्तु; वर्णकी ‘जाति संज्ञा होने से प्रसवर्ण विवाहोको अन्तर्जातीय विवाह भी कहते हैं। जब भारत की इन चार प्रधान जातियों में अन्तर्जातीय विवाह भी होते थे तब इन जातियों से बनी हुई अप्रवाल, खंडेलवाल, पल्लीवाल, सवाल, और परवार प्रादि उपजा. तियों में, समान वर्ण तथा धर्मके होते हुए भी, परस्पर विवाह न होना क्या अर्थ रखता है और उसके होने में कौन सा सिद्धान्त बाधक है यह कुछ समझ नहीं पाता। जान पड़ता है यह सब प्रापसकी खींचातानी और परस्परके ईर्षा द्वषादि का ही परिणाम है-वास्तविक हानि-लाभ अथवा किसी धार्मिक सिद्धान्तसे इसका कोई सम्बन्ध नहीं है। वोकी हष्टि को छोड़कर यदि उपजातियोंकी दृष्टिको ही लिया जाय तो उससे भी यह नहीं कहा जा सकता कि पहले उपजातियों में त्रिवाह नहीं होता था। आर्य जाति की अपेक्षा ग्लेच्छ जाति भिन्न हैं और म्लेच्छों में भी भील, शक, यवन, शवरादिक कितनी ही जातियाँ है । जब श्रार्योका म्लेच्छों अथवा भीलादिकोसे विवाह होता था तो यह भी अन्तर्जातीय विवाह था और बहुत