Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीर सेवा मन्दिर
दिल्ली
क्रम सख्या
2४०. ५१ मुरल्या
[न्न
न
खण्ड
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
हेम्. 1
विवाह-क्षेत्र प्रकाश |
अर्थात:
'शिक्षाप्रद शास्त्रीय उदाहरण' की समालोचना के उत्तररूप में, अनेक प्राचीन रीतियों के प्रदर्शनपूर्वक, विवाह के वर्तमान क्षेत्र पर प्रकाश ।
लेखक
पंडित जुगलकिशोर मुख्तार,
सरसावा, जिला सहारनपुर ।
IE
प्रकाशक
ला० जौहरीमल जैन, सर्राफ,
दरीबा कलाँ, देहली ।
मुद्रक
गयादत्त प्रेस, बड़ा दरीबा, देहली ।
प्रथमावृत्ति (भाद्रपद, संवत् १६८२ विक्रम, इज़ार प्रति ।
अगस्त, १६२५
मूल्य
छह आने
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रकाशक के दो शब्द आज, अपनी पूर्वसूचना के अनुसार, उदाहरण' की समालोचना का विस्तृत उत्तर पाठकों के सामने उपस्थित हो रहा हूं, यह मेरे जगल ही आनन्द तथा हर्ष का विषय है । लेखक महोकिशोर जी ने इस उत्तर-लेखके लिखने में कितना पर्व श्रम किया है, कितना युक्ति-युक्त, प्रामाणिक तथा धिक उत्तर लिखाहै और इसके द्वारा विवाहक्षेत्र पर कितना प्रकाश डाला गया है, ये सब बाते प्रकृत पुस्तक को देखने ही सम्बन्ध रखती हैं । और इस लिये अपने पाठकों से मेरा यह सानुरोध निवेदन है कि वे इस पुस्तकको खूब गौर के साथ साधन्त पढ़नेकी ज़कर कृपा करें। इसके पढ़ने से उन्हें कितनी ही नई नई बात मालम पड़ेगी और वे विवाह की वर्तमान समस्याओं को हल करने में बहुत कुछ समर्थ हो सकेंगे। साथही उन्हें यहभी मालूम पड़ जायगा कि पं० मक्खनलालजी प्रचारक की लिखी हुई समालोचना कितनी अधिक निःसार. निर्मल, बेतुकी, बेढंगी, मिथ्या, तथा समालोचकके कर्तव्योसे गिरी हुई है और उसके द्वारा कितना अधिक भ्रम फैलाने तथा सत्य पर पर्दा डालने की जघन्य चेष्टा की गई है।
यहाँ पर में इतना और भी प्रकट करदेना उचित समझता हूं कि समालोचकजी ने समालोचना की 'भूमिका' में प्रकाशक के उद्देश्य तथा प्राशय ( मंशा) के विषय में जो कछ लिहै वह सब भी मिथ्या तथा उन्हों के द्वारा परिकल्पित है।
अन्तमें, लेखक महोदयका हृदय से आभार मानता हुआ, मैं उन सभी सज्जनों का सहर्ष धन्यवाद करता हूं जिन्होंने इस पुस्तक को प्रकाशित करने में सहायता प्रदान की है।
जौहरीमल जैन।
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
विवाह-क्षेत्र-प्रकाश।
अर्थात् ,
'शिक्षाप्रद शास्त्रीय उदाहरण' की समालोचना के उत्तररूपमें, अनेक प्राचीन रीतियों के प्रदर्शनपूर्वक,
विवाहके वर्तमान क्षेत्र पर प्रकाश ।
प्राथमिक निवेदन । सन् १९१८ में, 'शिक्षाप्रद शास्त्रीय उदाहरण' नामसे मैंने एक लेख माला प्रारंभ की थी और उस समय सबसे पहिले एक छोटासा लेख सेठचारुदत्त के उदाहरण को लेकर लिखा गया था, जो अक्तबर सन १९१८ के 'सत्योदय' में प्रकाशित हुश्रा और जिसमें जाति बिरादरी के लोगों को पतित भाइयों के प्रति अपने अपने व्यवहार तथा बर्ताव में कुछ शिक्षा ग्रहण करने की प्रेरणा की गई थी। उसके बाद, वसुदेवजी के उदाहरण को लेकर, दूसरा लेख लिखा गया और उसमें विवाहविषय पर कितना ही प्रकाश डाला गया। यह लेख सबसे पहले अप्रेल सन १६१६ के सत्योदय' में, और बादको सितम्बर सन् १९२० के 'जैन हितैषी' में भी प्रकाशित हुश्रा था। इन्हीं दोनो लेखों को श्रागे पीछे संग्रह करके, हालमें, लो. जौहरीमल जी जैन सर्राफ, दरीबा कला, देहली ने 'शिक्षाप्रद
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
बिवाह-क्षेत्र प्रकाश शास्त्रीय उदाहरण' नामसे एक पुस्तक प्रकाशित की और उसे विना * मल्य वितरण किया है। इस पुस्तक पर जैन अनाथाश्रम देहली के प्रचारक पं० मक्खनलाल जी ने एक समालोचना (!) लिखकर उसे पुस्तक की शकल में प्रकाशित कराया है, और वे उसका जोरों के साथ प्रचार कर रहे हैं। प्रचारक जी को वह समालोचना कितनी निःसार, निर्मल, निहें तुक, बेतुकी और समालोचक के कर्तव्यों से गिरी हुई है, और उसके द्वारा कितना अधिक भ्रम फैलाने तथा सत्य पर पर्दा डालने की जघन्य चेष्टा कीगई है, इन सब बातोंको अच्छी तरहसे बतलाने और मनता को मिथ्या तथा अविचारितरम्य समालोचना से उत्पन्न होने वाले भ्रमसे सरक्षित रखने के लिये ही यह उत्तरलेख लिखा जाता है । इससे विवाह-विषय पर और भी ज्यादा प्रकाश पड़ेगा-वह बहुत कुछ स्पष्ट हो जायगा-और उसे इस उत्तर का प्रानषंगिक फल समझना चाहिये। __ सबसे पहिले, मैं अपने पाठकों से यह निवेदन करदेना चाहताहूंकि जिस समय प्रचारफजीकी उक्तसमालोचना-पुस्तक मुझे पहले पहल देखने को मिली और उसमें समालोच्य पुस्तक की बाबत यह पढ़ा गया कि वह "अत्यन्त मिथ्या, शास्त्र विरुद्ध और महा पुरुषों को केवल झूठा कलंक लगाने वाली" तथा "अस्पृश्य" है और उसमें बिल्कुल झूठ,"मनगढंत," “सर्वथा
* यह पुस्तक अब भी विना मूल्य उक्त लाला जौहरीमल जी के पास से मिलती है। ___ + समालोचक जी खद पुस्तक को छूते हैं दूसरों को पढ़ने छुने के लिये देते है, कितनी ही बार श्रीमन्दिर जी में भी उसे ले गये परन्तु फिर भी अस्पृश्य बतलाते हैं ! किमाश्चर्यमतः परं !!
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
T
प्राथमिक निवेदन
मिथ्या और शास्त्र विरुद्ध " कथाएँ लिख कर श्रथवा " सफेद झूट" या "भारी झूट" बोल कर "धोखा " दिया गया है, तो मेरे आश्चर्य की सीमा नहीं रही। क्योंकि, मैं अब तक जो कुछ लिखता रहा हूं वह यथाशक्ति और यथासाधन बहुत कुछ जाँच पड़ताल के बाद लिखता रहा हूँ । यद्यपि मेरा यह दावा नहीं है कि मुझसे भूल नहीं हो सकती, भूल ज़रूर हो सकती है और मेरा काई विचार अथवा नतीजा भी ग़लत हो सकता है परन्तु यह मुझसे नहीं हो सकता कि मैं जानबूझकर कोई ग़लत उल्लेख करू अथवा किसी बात के असली रूपको छिपाकर उसे नकली या बनावटी शकल में पाठकों के सामने उपस्थित करूँ । अपने लेखों की ऐसी प्रकृति और परिणति का मुझे सदा ही गर्व रहता है। मैं सत्य बातको कभी छिपाना नहीं चाहता - - अवसर मिलने पर उसे बड़ी निर्भयता के साथ प्रगट कर देता हूं - और सत्य उल्लेखका सख्त विरोधी हूँ । ऐसी हालत में उक्त समालोचना को पढ़कर मेरा श्राश्चर्य चकित होना स्वाभाविक था । मुझे यह ख़याल पैदा हुआ कि कहीं अनजान में तेरे से कोई ग़लत उल्लेख तो नहीं होगया, यदि ऐसा हुआ हो तो फौरन अपनी भूलको स्वीकार करना चाहिये, और इस लिये मैंने बड़ी सावधानी से अपनी पुस्तक के साथ समालोचना की पुस्तक को खूबही गौर से पढ़ा और उल्लेखित ग्रंथों आदि पर से उसकी यथेष्ट जाँच पड़ताल भी की । श्रन्तको में इस नतीजे पर पहुंचा हूँ कि समालोच्य पुस्तक में एक भी ऐसी बात नहीं है जो खास तौर पर आपत्ति के योग्य हो । जिनसेनाचार्य कृत हरिवंशपुराण के अनुसार, 'देवकी' अवश्य ही वसुदेव की 'भतीजी' थी परन्तु उसे "सगी भतीजी " लिखना यह समालोचक जी की निजी कल्पना और उनकी अपनी कर्तृत है – लेखकसे उसका कोई सम्बन्ध नहीं है:
૫
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
विवाह-क्षेत्र-प्रकाश
। 'जरा जरूर म्लेच्छकन्या थी और म्लेच्छों का वही प्राचार है
ओ प्रादिपुराण में वर्णित हुआ है; 'प्रियंगुसुन्दरी' एक व्यभिचारजात की ही पुत्री थी, और रोहिणो के वरमाला डालने के वक्त तक वसुदेव के कुल और उनकी जातिका यहाँ (स्वयंघर में) किसी को कोई पता नहीं था। वे एक अपरिचित तथा बाजा बजाने वाले के रूप में ही उपस्थित थे । साथ ही, चारुदत्स सेठ का बसंतसेना वेश्या को अपनी स्त्री बना लेना भी सत्य है। और इन सब बातों को आगे चलकर खब स्पष्ट किया जायगा।
उद्देश्यका अपलाप, अन्यथाकथन और
समालोचकके कर्त्तव्यका खून । समालोचना में पुस्तक पर बड़ी बेरहमी के साथ कुन्दी छुरी ही नहीं चलाई गई, बल्कि सत्य का बुरी तरह से गला घोटा गया है, पुस्तक के उद्देश्य पर एक दम पानी फेर दिया है, उसे समालोचना में दिखलाया तक भी नहीं, उसका अपलाप करके अथवा उसको बदल कर अपने ही कल्पित रूपमें उसे पाठकों के सामने रखा गया है और इस तरह पर समालोचक के कर्तव्यों से गिरकर,बड़ी धष्टता के साथ समालोचनो का रंग जमाया गया है ! अथवा यों कहिये कि भाले भाइयों को फंसाने और उन्हें पथभ्रष्ट करने केलिये खासा जाल बिछाया गया है। यह सब देख कर, समालोचक जी की बुद्धि और परिणति पर बड़ी ही दया पाती है। मापने पम्तक लेखक के परिणामों का फोटू खोचने के लिये समालोचनाके पृष्ठ ३६, ४० पर, "जो रूढ़ियोंके इतने भक्त हैं"
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
उद्देश्य को अपलाप आदि
इत्यादि रूपसे कछ वाक्यों को भी उद्धत किया है परन्तु वे वाक्य आगे पीछे के सम्बन्ध को छोड़ कर ऐसे खण्ड रूपमें उदधत किये गये है जिनसे उनका असली मतलब प्रायः गुम हो जाता है और वे एक असम्बद्ध प्रलापला जान पड़ते हैं। यदि समालोचक जी ने प्रत्येक लेख के अन्त में दिये हुये उदाहरण के विवेचन अथवा उसके शिक्षा-भागको ज्यों का त्यो उधत किया होता तो वे अपने पाठको को पुस्तक के श्राशय तथा उद्देश्य का अच्छा ज्ञान कराते हुए, उन्हें लेखकक तज्जन्य विचारों का भी कितना ही परिचय करा सकते थे, परन्त जान पड़ता है उन्हें वैसा करना इष्ट नहीं था-वैसा करने पर समालोचना का सारा रंग ही फीका पड़ जाता अथवा उन अधिकांश कल्पित बातों की सारी कलई ही खुल जाती निन्हे प्रकृत पुस्तक के आधार पर लेखक के विचारों या उद्देश्यों के रूपमें नामांकित किया गया है । इसीसे उक्त विवेचन अथवा शिक्षा-भाग पर, जो आधी पुस्तक के बराबर होते हुए भी सारी पुस्तक की जान थी, कोई समालोचना नहीं की गई, सिर्फ उन असम्बद्ध खण्डवाक्यों को देकर इतना ही लिख दिया है कि
"बाब साहब के उपयुक्त वाक्यों से आप स्वयं विचार कर सकते हैं कि उनका दृदय कैसा है और वह समाज में कैसी प्रवत्ति चलाना ( गोत्र जाति पांति नीच ऊँच भंगी चमार चांडालादि भेद मेटकर हर एक के साथ विवाह की प्रवत्ति करना चाहते है" ।
इन पंक्तियों में समालोचक ने, बरैकट के भीतर, जिस प्रवृत्ति का उल्लेख किया है उसे ही लेखककी पुस्तक का ध्येय अथवा लद्देश्य प्रकट करते हुए वे आगे लिखते हैं :--
"उपर्युक्त प्रवृत्तिको चलाने के लिये ही बाबूसाहब ने घसदेवजी के विवाहकी चार घटनाओं का (जो कि
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
विवाह-क्षेत्र प्रकाश
बिलकु न झूठ है ) उल्लेख करके पुस्तक को समाप्त करदिया था लेकिन फिर बाबू साहबको खयाल आया कि भतोजोके साथभी शादी उचित बतादी तया नीच भील और व्यभिचारजात दस्सों के साथ भी जायज़ बतादी किन्तु वेश्या तो रह ही गई यह सोचकर आप ने फिर शिक्षाप्रद शास्त्रीय उदाहरणका दूसरा हिस्सा लिखा और खबही वेश्यागमनकी शिक्षा दी है"।
इसी तरहके और भी कितनेही वाक्य समालोचना-पुस्तक में जहाँ तहाँ पाये जाते हैं, जिनके कुछ नमने इस प्रकार हैं:(१) "लेकिन बाब जी को लोगों के लिये यह दिखलाना था
कि भतीजी के साथ विवाह करने में कोई हानि नहीं है"।
(पृ०४) (२) "उन्हें [षाबू साहव को] तो जिस तिस तरह अपना
मतलब बनाना है और कामवासना की हवस मिटाने के लिये यदि बाहरसे कोई कन्या न मिले तो अपनीही बहिन भतीजी आदि के साथ विवाह करलेने की आज्ञा दे देना
(३) देवकी की कथा से] " यह सिद्ध करना चाहा है कि
विवाह में जाति गोत्र का पचडा व्यर्थ है। यदि काम वासना की हवस पूरी करने के लिये अन्य गोत्रकी कन्या न मिले तो फिर अपनी ही बहिन भतीजी आदिसे विवाह
कर लेने में कोई हानि नहीं है ।" (प० ३७) (४) " जराकी कथासे श्राप सिद्ध करना चाहते हैं कि भंगी
चमार श्रादि नीच मनुष्य व शूद्रों के साथ ही विवाह कर
लेने में कोई हानि नहीं है ।" (पृ. ३८) (५) "बाबू साहब को तो लोगों को भ्रममें डालकर और
सबको वेश्यागमन का खुल्लम खुल्ला उपदेश देकर अपनी
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
उद्देश्य को अपलाप श्रादि । हवस पूरी करना है उन्हें इतनी लम्बी समझ से क्या
काम," (ए०४५-४६) (६) "बाबू साहब ने जो चारुदत्त की कथा से वेश्या तक को
घरमें डाल लेने की प्रवृत्ति चलाना चाहा है यह प्रवृत्ति सर्वथा धर्म और लोक विरुद्ध है । ऐसी प्रवृत्ति से पवित्र
जैन धर्म को कलङ्क लग जायगा " (पृ० ४६) (७) "लाला जौहरीमल जी जैन सर्राफ सरीखे कुछ मन चले
लोगोंने .. ... बाबू जगलकिशोर जी के लिख अनुसार "गहस्थ के लिये स्त्री की जरूरत होने के कारण चाहे जिसकी कन्या ले लेनी चाहिये" इसी उद्देश्य को उचित समझा" (भूमिका )
अब देखना चाहिये कि, इन सब वाक्योंके द्वारा पस्तक के प्रतिपाद्य विषय, आशय, उद्देश्य और लेखकके तज्जन्य विचारों आदि के सम्बन्ध में जो घोषणा की गई है वह कहाँ तक सत्य है-दोनों लेखों परसे उसकी कोई उपलब्धि होती है या कि नहीं-और यह तभी बन सकता है अथवा इस विषय का अच्छा अनभव पाठकों को तभी हो सकता है जबकि उनके सामने प्रत्येक लेखका वह अंश मौजद हो जिसमें उस लेखके उदाहरण का नतीजा निकाला गया या उससे निकलने वाली शिक्षा को प्रदर्शित किया गया है। अतः यहां पर उन दोनों अंशोका उ द्धन किया जाना बहुत ही जरूरी जान पड़ता है। __ पहले लेखमें, धसदेव जी के विवाहों की चार घटनाओं का--देवकी, जरा, प्रियंगसन्दरी और रोहिणी के साथ होने पाले विवाहों का उल्लेख करके और यह बतला कर कि ये चारों प्रकार के विवाह उस समय के अनुकूल होते हुए भी आज कल की हवाके प्रतिकूल हैं, जो नतीजा निकाला गया अथवा जिस शिक्षा का उल्लेख किया गया है वह निम्न प्रकार
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
विवाह-क्षेत्र प्रकाश 1 है, और लेख के इस अंशमें वे सब खंड वाक्य भी श्राजाते हैं जिन्हें समालोचकजी ने समालोचना के पुष्ट ३६-४० पर उधृत किया है :
"इन चारों घटनायों को लिये हुए वसुदेवजी के एक पुराने बहुमान्य शास्त्रीय उदाहरणसे, और साथही वसुदेवजी के उक्त वचनोको श्रादिपुराण के उपर्युलिखिल वाक्यों के साथ
यसुदेवजीके वे वचन जो पुस्तक के पृष्ठ = पर उद्धृत हैं और जिनमें स्वयंवर विवाह के नियमको सूचित किया गया है इस प्रकार हैं :
कन्या वणीते रुचिनं स्वयंवरगता वरं ।। कुलीनमकुलीनं वा क्रमो नास्ति स्वयंवरे ॥११-७१५
-जिनदासकृत हरिवंशपुगण । अर्थात्-स्वयंवरको प्राप्त हुई कन्या उस वरको वरण (स्वीकार) करती है जो उसे पसंद होता है, चाहे वह वर कुलीन हो या अकुलीन । क्योकि स्वयंवरमें इस प्रकारका-वरके कुलीन या अकुलीन होने का कोई नियम नहीं होता। श्रादिपुराणके वे पृष्ट । पर उद्धृत हुए वाक्य इस प्रकार है:
सनातनोऽस्ति मार्गोऽयं श्रुतिस्मृतिषु भाषितः । विवाहविधिभेदेषु वरिष्ठोहि स्वयंवरः॥४४-३२॥ तथा स्वयंवरस्यमे नाभवन् यद्यकम्पनाः । कःप्रवचयितान्योऽस्य मागस्यैप सनातनः।।४५-५४३ मार्गाश्चिरंतनान्येऽत्र भोगभूमितिरोहितान् ।
कुर्वन्ति नूतनान्सन्तः सद्भिःपूज्यास्त एव हि॥४५-५५ इनमेंसे पहले पद्यमें स्वयंवरविधिको सेनातन मार्य' लिखनेके
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
उद्देश्य का अपलोप श्रादि ।
मिलाकर पढ़नेसे विवाह विषय पर बहुत कुछ प्रकाश पड़ता है
और उसकी अनेक समस्याएँ खुदबखद (स्वयमेव) हल होजाती है। इस उदाहरणसे वे सब लोग बहुत कुछ शिक्षा ग्रहण कर सकते है जो प्रचलित रीति-रिवाजोंको ब्रह्म-वाक्य तथा प्राप्तवचन समझे हुए है, अथवा जो रूढ़ियों के इतने भक्त है कि उन्हें गणितशास्त्रके नियमों की तरह अटल सिद्धांत समभाते हैं और इसलिये उनमें ज़रा भी फेरफार करना जिन्हेंरुचिकर नहीं होता; जो ऐसा करनेको धर्म के विरुद्ध चलना और जिनेन्द्रभगवानकी आज्ञका उल्लङ्घन करना मान बैठे हैं, जिन्हें विवाहमें कुछ संख्या प्रमाण गांत्रोंके न बचाने तथा अपने वर्णसे भिन्न वर्ण के साथ शादीकरनेसे धर्म के डबजाने का भय लगाहुश्रा है:इससेभीअधिक जो एक ही धर्म और एक ही प्राचारके मानने तथा पालनेवाली अग्रवाल, खण्डेलवाल आदि समान जातियों में भी परस्पर रोटी बेटी व्यवहार एक करने को अनुचित समझते हैं-पतिक अथवा पतनकी शङ्कासे जिनका हृदय सन्तान है-और जो अपनी एक जातिमें भोपाठ आठ गोत्रों तकका टालनेके चकरमें पढ़े हुए है। ऐसे लोगों को वसदेवजीका उक्त उदाहरण और उसके साथ विवाहसम्बंधीवर्तमान रीति-रिवाजोंका मीलान बतलायगा कि
साथ साथ उसे सम्पूर्ण विवाह-विधानों में सबसे अधिक श्रेष्ठ (वरिष्ठ) विधान प्रकट किया है और पिछले दोनों पोंमें, जो भरत चक्रवर्ती की ओर से कहे गये पद्य हैं, यह सचित किया गया है कि युगकी श्रादिमें राजा अकम्पन-द्वारा इस विवाह विधि (स्वयंवर) का सबसे पहले अनुष्ठान होने पर भरत चक्रवर्ती ने उसका अभिनंदन किया था और उन लोगों को सत्पुरुषों द्वारा पूज्य ठहराया था जो ऐसे सनातन मार्गीका पुनरुद्धार करें।
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
विवाह-क्षेत्र प्रकाश।
रीति-रिवाज कभी एकहालत में नहीं रहा करते, वे सर्वज्ञ भगवान की आज्ञा और अटल सिद्धांत नहीं होते, उनमें समयानुसार बराबर फेरफार और परिवर्तन की जरूरत हुआ करती है। इसी जरूरतने वसुदेवजीके समय और वर्तमान समयमें जमीन आसमानका सा अन्तर डाल दिया है। यदि ऐसा न होता तो वसदेव जीके समयके विवाहसम्बंधी नियम-उपनियम इस समय भी स्थिर रहते और उसी उत्तम तथा पूज्य दृष्टिसे देखे जाते जैसे कि वे उससमय देखे जातेथे। परन्तु ऐसा नहीं है और इसलिये कहना होगा कि वे सर्वज्ञ भगवान् की प्राज्ञाएँ अथवा अटल सिद्धान्त नहीं थे और न हो सकते हैं। दूसरे शब्दों में यों कहना चाहिये कि यदि वर्तमान वैवाहिकरीतिरिवाजोंको सर्वज्ञ प्रणीतसार्वदेशिक और सार्वकालिक अटल सिद्धान्त--माना जाय तो यह कहना पड़गा किवसदेवजीने प्रतिकूल आचरणद्वारा बहुत स्पष्टरूपमे सर्वशकी आशाका उल्लङ्घन किया है । ऐसी हालत में प्राचार्यों द्वारा उनका यशोगान नहीं होना चाहिये था, वे पातको समझ जाकर कलङ्कित किये जाने के योग्य थे। परन्तु ऐसा नहीं हुआ और न होना चाहिये था, क्योंकि शास्त्रों द्वारा उस समयके मनज्यों को प्रायः ऐसी ही प्रवृत्ति पाई जाती है, जिससे वसुदेवजी पर कोई कलङ्क नहीं प्रासकता । तब क्या यह कहना होगा कि उस वक्तके वे रीति-रिवाज सर्वक्षप्रणीत थे
और आज कल के सर्वज्ञप्रणीत अथवा जिनभाषित नहीं है ? ऐसा कहने पर आज कल के रोति-रिवाजोंको एकदम उठाकर उनके स्थानमें वही वसुदेव जी के समय के रीति-रिवाज कायम कर देना ही समुचित न होगा बल्कि साथ ही अपने उन सभी पूर्वजोको कलङ्कित और दोपी भी ठहराना होगा जिनके कारण वे पुराने ( सर्वक्षभाषित ) रीति-रिवाज उठकर उनके स्थान में वर्तमान रीति-रिवाज कायम हुए और फिर हम तक पहुँचे। परन्तु ऐसा
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
उद्देश्य का अपलाप आदि ।
१३
I
"
कहना और ठहराना दुःसाहस मात्र होगा । वह कभी इष्ट नहीं होसकता और न युक्ति युक्त ही प्रतीत होता है । इस लिये यही कहना समुचित होगा कि उस वक्त के वे रीति रिवाज भी सर्वश भाषित नहीं थे । वास्तव में गृहस्थों का धर्म दो प्रकारका वर्णन किया गया है, एक लौकिक और दूसरा पारलौकिक । लौकिक धर्म लोकाश्रय और पारलौकिक श्रागमाश्रय होता है । विवाहकर्म गृहस्थोंके लिये एक लौकिक धर्म है और इसलिये वह लोकाश्रित है – लौकिक जनोकी देशकालानुसार जो प्रवृत्ति होतो है उसके अधीन है - लौकिक जनों की प्रवृत्ति हमेशा एक रूप में नहीं रहा करती । वह देशकाल की श्रावश्यकताओं के अनुसार, कभी पञ्चायतियोंके निर्णय द्वारा और कभी प्रगतिशीलव्यक्तिय के उदाहरणों को लेकर बराबर बदला करती है और इसलिये वह पूर्णरूपमें प्रायः कुछ समय के लिये ही स्थिर रहा करती है । यही वजह है कि भिन्न भिन्न देशों, समयों और जातियों के विवाहविधानों में बहुत बड़ा अन्तर पाया जाता है । एक समय था जब इसी भारतभूमि पर सगे भाई बहिन भी परस्पर स्त्री पुरुष होकर रहा करते थे और इतने पुण्याधिकारी समझे जाते थे कि मरने पर उनके लिये नियमसे देवगति का विधान किया गया है +1 फिर वह समय भी आया जब उक्त प्रवृत्तिका निषेध किया गया और उसे अनुचित ठहराया गया । परन्तु उस समय गोत्र तो गोत्र एक कुटुम्ब में विवाह होना, अपने से भिन्न वर्णके साथ शादीका किया जाना और शूद्र ही नहीं किन्तु म्लेच्छों तक की कन्याओं से विवाह करना भी अनुचित नहीं माना * हि धर्मो गृहस्थानां लौकिकः पारलौकिकः । लोकाश्रयो भवेदाद्यः परः स्यादागमाश्रयः ।। - सोमदेवः । + यह कथन उस समयका है जबकि यहाँ भोगभूमि प्रचलत थो
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
विवाह क्षेत्र-प्रकाश।
गया। साथ ही, मामा-फफोकी कन्याओं से विवाह करनेकातो श्राम दस्तूर रहा और वह एक प्रशस्त विधान समझा गया। इसके बाद समरके हेरफेरसे उक्त प्रवृत्तियों का भी निषेध प्रारम्भ हुआ, उनमें भी दोष निकलने लगे पापोंकी कल्पनायें होने लगी और वे सब बदलते बदलते वर्तमान के ढाँचे में ढल गई। इस अस में सैकड़ों नबीन जातियों, उपजातियों और गोत्रोंकी कल्पना होकर विवाहक्षेत्र इतना सङ्कीर्ण बन गया कि उसके कारण आजकल की जनता बहुत कुछ हानि तथा कष्ट उठा रही है और ततिका अनुभव कर रही है-उसे यह मालूम होने लगा है कि कैसी कैसी समद्धिशालिनी जातियाँ इन वर्तमान रीति-रिवाजोंके चङ्गल में फँसकर संसारसे अपना अस्तित्व उठा चुकी है और कितनो मृत्युशय्या पर पड़ी हुई हैं --- इससे अब वर्तमान रीतिरिवाजों के विरुद्ध भी अावाज उठनी शुरू हो गई है। समय उनका भो परिवर्तन चाहता है । संक्षेप में, यदि सम्पूर्ण जग के भिन्न भिन्न देशों, समयों और जातियों के कुछ थोड़े थोड़े से ही उदाहरण एकत्र किये जाय तो विवाहविधानों में हजारों प्रकार के भेद उपभेद और परिवर्तन दृष्टिगोचर होंगे, और इस लिये कहना होगा कि यह सब समय समयकी ज़रूरतो, देश देशकी श्रावश्यकताओं और जाति
आतिके पारस्परिक व्यवहारोका नतीजा है अथवा इसे कालचक्रका प्रभाव कहना चाहिए । जो लोग कालचक्र की गतिकी न समझ कर एक ही स्थान पर खड़े रहते हैं और अपनी पोजीशन (Position) को नहीं बदलते---स्थितिको नहीं सधारते-वे निःसन्देह कालचक्रके आघातसे पीड़ित होते
और कचले जाते हैं । अथवा संसारसे उनकी सत्ता उठ जाती है । इस सब कथनसे अथवा इतने ही संकेतसे लोकाश्रित (लौकिक ) धर्मों का बहुत कुछ रहस्य समझ में आसकता है।
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
उद्देश्य का अपलाप आदि ।
-
-
-
-
---
-
--
साथ ही, यह मालम हो जाता है कि वे कितने परिवतनशील हुश्रा करते है। ऐसी हालतमें विवाह जैसे लौकिक धर्मा और सांसारिक व्यवहारोक लिये किसी भागमका श्राश्रय लेना, अथात् यह दढ खोज लेगाना कि श्रागममे किस प्रकार विवाह करना लिखा हं बिलकुल व्यर्थ है । कहा भी है--
"संसारव्यवहारे तु स्वतःसिद्धे वृथागमः।" अर्थात् -संसार व्यवहारके स्वतः सिद्ध होनेसे उसके लिये आगम की जरूरत नहीं ।
वस्तुतः श्रागम ग्रन्या में इस प्रकारके लौकिक धर्मों और लोकाश्रित विधानोका कोई क्रम निद्धारित नहीं होता । वे सब लोकप्रवृत्ति पर अवलम्बित रहते है। हाँ, कछ त्रिवर्णाचारो जैसे अनार्ष ग्रन्थों में विवाह-विधानोंका वर्णन जरूर पाया जाता है। पर न्तु वे अागम ग्रन्थ नहीं है उन्हें श्रास भगवान्के वचन नहीं कह सकते और न वे श्राप्तवचनानुसार लिखेगय है-इतने पर भी कुछ ग्रन्थ तो उनमें से बिलकुल ही जाली और बनावटी है; जैसा कि "जिनसंनत्रिवर्णाचार' और 'भद्रबाहुसंहिताके' के परीक्षालेखों से प्रगट है - । वास्तव में ये सब प्रन्थ एक प्रकारके लौकिक ग्रन्थ हैं। इनमें प्रकृत विषयके वर्णनको तात्कालिक और तद्देशीय रीतिरिवाजोंका उल्लेख मात्र सामझना चाहिये, अथवा यो कहना चाहिये कि ग्रन्थकत्त.ओको उस प्रकारके रीतिरिवाजोंको प्रचलित करना इष्ट था । इससे अधिक उन्हें
यह श्रीसोमदेव श्राचार्य का वचन है।
४ ये सब लेख 'ग्रन्थपरीक्षा' नामसे पहिले जैनहितैषी पत्रमें प्रकाशित हुए थे और अब कुछ समयसे अलग पुस्तकाकार भी छप गये हैं। बम्बई और इटावा प्रादि स्थानोसे मिलते हैं।
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
विवाह-क्षेत्र प्रकाश ।
और कुछ भी महत्व नहीं दिया जासकता- वे आजकल प्रायः इतने ही काम के हैं-एकदेशीय, लौकिक और सामयिक ग्रन्थ होनेसे उनका शासन सार्वदेशिक और सार्वकालिक नहीं हो सकता । अर्यात, सर्व देशों और सर्व समयों के मनुष्योंके लिये वे समान रूपसे उपयोगी नहीं होसकते । और इसलिये केवल उनके आधार पर चलना कभी यक्तसंगत नहीं कहला सकता। विवाह-विषयमें श्रागमका मूल विधान सिर्फ इतना ही पाया जाता है कि वह गृहस्थाश्रम का घर्णन करते हुए गृहस्थ के लिये आम तौर पर गहिणीको अथात् एक स्त्रीकी जरूरत प्रकट करता है। वह स्त्री कैसी, किस वर्णकी, किस जातिकी, किन (कन सम्बन्धोंसे युक्त तथा रहित और किस गोत्रकी होनी चाहिये अथवा किस तरह पर और किस प्रकारके विधानों के साथ विवाह कर लानी चाहिये, इन सब बातोंमें पागम प्रायः कुछ भी हस्तक्षेप नहीं करता । ये सब विधान लोकाश्रित हैं, श्रागमसे इनका प्रायः कोई सम्बन्ध विशेष नहीं है । यह दूसरी बात है कि आगममे किसी घटना विशेषका उल्लेख करते हुए उनका उल्लेख पाजाय और तात्कालिकदृष्टिसे उन्हें अच्छा या बुरा भी बतला दिया जाय परन्तु इससे वे कोई सार्वदेशिक और सार्वकालिक अटल सिद्धान्त नहीं बन जाते- अथात्, एसे कोई नियम नहीं हो जाते कि जिनके अमार चलना सर्व देशों और सर्व समयों के मनुष्यों के लिए बराबर जरूरी और हितकारी हो। हाँ, इतना जरूर है कि श्रागमकी दृष्टि में सिर्फ वेही लौकिकविधियाँ अच्छी और प्रमाणिक समझी जा सकती हैं जो जैन सिद्धान्तोंके विरुद्ध न हो, अशवा जिनके कारण जैनियोंकी श्रद्धा (सम्यक्त्व) में बाधा न पड़ती हो और न उनके व्रतोंमे ही कोई दूषण लगता हो । इस दृष्टिको सुरक्षित रखते हुए, जैनी लोग प्रायः सभी लौकिक विधियोंको खुशीसे
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
उद्देश्य का अपलाप श्रादि । स्वीकार कर सकते हैं और अपने वर्तमान रीति-रिवाजो में देशकालानुसार, यथेष्ट परिवर्तन कर सकते हैं। उनके लिये इसमें कोई बाधक नहीं है । अस्तु: इस सम्पूर्ण विवेचनसे प्राचीन
और अर्वाचीनकाल के विवाह विधानों की विभिन्नता, उनका देश कालानुसार परिवर्तन और लौकिक धर्मों का रहस्य, इन सब बातोंका बहुत कछ अनुभव प्राप्त हो सकता है, और साथ ही यह भले प्रकार समझमें आ सकता है कि वर्तमाम रीति-रिवाज कोई सर्वज्ञभापित ऐसे अटल सिद्धान्त नहीं है कि जिनका परिवर्तन न हो सके अथवा जिनमें कछ फेरफार करनेसे धर्मके डूब जानेका कोई भय हो। हम, अपने सिद्धान्तोंका विरोध नकरते हुप, देश काल और जाति की आवश्यकताओं के अनुसार उन्हें हर वक्त बदल सकते है ये सब हमारे ही कायम किए हुए नियम है और इसलिए हमें उनके बदलने का स्वतः अधिकार प्राप्त है । इन्हीं सब बातोंको लेकर एक शास्त्रीय उदाहरणके रूपमें यह नोट (लेख)लिखा गया है। प्राशा है कि हमारे जैनीभाई इससे जरूर कुछ शिक्षा ग्रहण करेंगे और विवाहतत्वको समझ कर जिसके समझने के लिये 'विवाहका उद्देश्य' x नामक निबन्ध भी साथ में पढ़ना विशेष उपकारी होगा, अपने वर्तमान रीतिरिवाजों में यथाचित फेरफार करने के लिये समर्थ होग। और इम तरह पर कालचक्र के प्राघातसे बचकर अपनी सत्ताको चिरकाल तक यथेष्ट गतिसे बनाये रक्खेंगे।"
लेखके इस अंश अथवा शिक्षा भाग से स्पष्ट है कि लेखका
* सर्व एव हि जैनानां प्रमागं लौकिको विधिः । यत्र सम्यक्त्यहानिर्न यत्र न व्रतपणम् ॥-सोमदेवः ।
x यह पस्तक 'जैनग्रन्थरत्नाकर कार्यालय' बम्बई द्वारा प्रकाशित हुई है, और लेखकके पाससे बिना मूल्य भी मिलतीहै।
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८
विवाह क्षेत्र- प्रकाश ।
प्रतिपाद्य विषय, श्राशय और उद्देश्य वह नहीं हैं जो समालोचकजी ने प्रकट किया है - इसमें कहीं भी यह प्रतिपादन नहीं किया गया और न ऐसा कोई विधान किया गया है कि गोत्र, जाति पांति, नीच ऊँच, भंगी चमार चाण्डालादिके भेदोको उठा देना चाहिये, उन्हें मेटकर हरएक के साथ विवाह करलेना चाहिये, चाहे जिसकी कन्या ले लेनी चाहिये, अथवा भंगी चमार आदि नीच मनुष्यों के साथ विवाह करलेने में कोई हानि नहीं है; और न कहीं पर यह दिखलाया गया अथवा ऐसी कोई आशा दीगई है कि आजकल अपनी ही बहिन भतीनी के साथ विवाह कर लेने में कोई हानि नहीं है, अन्य गोत्रकी कन्या ब मिलने पर उसे करलेना चाहिये-बल्कि बहुत स्पष्ट शब्दों में वसुदेवजी के समय और इस समय के रीति रिवाजों-विवाह विधानों में "जमीन श्रस्मान का सा अन्तर" बतलाते हुए, उनपर एक खासा विवेचन उपस्थित किया गया है और उसमें रीति-रिवाजों की स्थिति, उनके देशकालानुसार परिवर्तन तथा लौकिक धर्मोके रहस्थको सूचित किया गया है । साथही, यह बतलाया गया है कि "वर्तमान रीति रिवाज कोई सर्वश भाषित ऐसे अटल सिद्धान्त नहीं हैं कि जिनका परिवर्तन न हो सके अथवा जिनमें कुछ फेरफार करने से धर्मके डूब जानेका कोई भय हो, हम अपने सिद्धान्तों का विरोध न करते हुए देशकाल और जातिकी श्रावश्यक्ताओं के अनुसार उन्हें हरवक्त बदल सकते हैं, वे सबहमारे ही कायम किये हुए नियम हैं और इसलिये हमें उनके बदलने का स्वतः अधिकार प्राप्त है । " परन्तु उनमें क्या कुछ परिवर्तन अथवा तबदीली होनी चाहिये, इसपर लेखक ने अपनी कोई राय नहीं दी। सिर्फ इतना ही सूचित किया है कि वह परिवर्तन ( फेरफार) "यथोचित" होना चाहिये, और 'यथोचित' की परिभाषा वही हो सकती है जिसे
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
उद्देश्य का अपलाप आदि ।
"
"श्रागमकी दृष्टि" बतलाया गया है और जिसे सुरक्षित रखतं हुए परिवर्तन करने की प्रेरणा की गई है। इसके सिवाय, वसुदेवजी के समय के विवाह विधानों को इस समयके लिये कहीं परभी कोई हिमायत नहीं की गई, बल्कि “ऐसा नहीं है" इत्यादि शब्दों के द्वारा उनके विषयमें यह स्पष्ट घोषित किया गया है कि वे आजकल स्थिर नही है और न उस उत्तम तथा पज्य दृष्टिसे देख जाते है जिससे कि वे उस समय देखे जात थे और इसलिये कहना होगा कि वे सर्वश भगवान का प्राज्ञाएँ अथवा श्रटल सिद्धान्त नहीं थे और न हो सकते हैं । जो लोग वसुदेवजी के समयक रोति-रिवाजोको सर्वज्ञप्रणीत और वर्तमान रीति-रिवाजों को असर्वज्ञभाषित कहतेहों और इस तरह पर अपने उन पूर्वजोको कलंकित तथा दोषी ठहराते हो जिनके कारण वसुदेवजीके समय के वे पुराने (सर्वज्ञभाषित) रिति-रिवाज उठकर उनके स्थानमें वर्तमान रीति-रिवाज कायम हुए उन्हें लक्ष्य करके साफ लिखा गया है कि उनका "ऐसा कहना और ठहराना दुःसाहस मात्र होगा, वह कभी इष्ट नहीं हो सकता और न युक्तियुक्तही प्रतीत होता है।" इससे लेख में वसदेवजी के समयके रीति रिवाजों की कोई खास हिमायत नहीं कीगई, यह और भी स्पष्ट होजाता है । कंवल प्राचीन
और अर्वाचीन रीति-रिवाजों में बहुत बड़े अन्तर को दिखलाने, उसे दिखलाकर, रीति-रिवाजोंकी असलियत, उनकी परिवर्तनशीलता और लौकिक धर्मों के रहस्य पर एक अच्छा विवेचन उपस्थित करने और उसके द्वारा वर्तमान रीति-रिवाजों में यथोचित परिवर्तनको समुचित ठहराने के लिये ही वसदेवजी के उदाहरण में उनके जीवनकी इन चार घटनाओं को चुना गया था। इससे अधिक लेखमें उनका और कल भी उपयोग नहीं था। और इसीसे लेखके अन्त में लिखा गया था कि
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०
विवाह क्षेत्र प्रकाश ।
"इन्हीं सब बातों को लेकर एक शास्त्रीय उदाहरण के रूपमें यह नोट लिखा गया है ।"
लेखकी ऐसी स्पष्ट हालत में पाठक स्वयं समझ सकते हैं कि समालोचक जी ने अपने उक्त वाक्यों और उन्हीं जैसे दूसरे वाक्यों द्वारा भी पुस्तक जिस आशय, उद्देश्य, अथवा प्रतिपाद्य विषयकी घोषणा की है वह पुस्तकसे बाहर की चीज़ है - प्रकृत लेखसे उसका कोई सम्बंध नहीं है-और इस लिये उसे समालोचक द्वारा परिकल्पित श्रथवा उन्हीं की मनःप्रसूत समझना चाहिये | जान पड़ता है वे अपनी नासमझी से अथवा किसी तीव्र कषायके वशवर्ती होकर ही ऐसा करने में प्रवृत्त हुए हैं । परन्तु किसी भी कारण से सही, इसमें संदेह नहीं कि उन्होंने ऐसा करके समालोचक के कर्तव्यका भारी खून किया है । समालोचक का यह धर्म नहीं है कि वह अपनी तरफसे कुछ बातें खड़ी करके उन्हें समालोच्य पुस्तककी बातें प्रकट करे, उनके आधार पर अपनी समालोचना का रंग जमाए और इस तरह पर पाठकों तथा सर्व साधारण को धोखे में डाले । यह तो महानीचातिनीच कर्म है । समालोचकका कर्तव्य है कि पुस्तक में जो बात जिसरूप से कही गई है उसे प्रायः उसी रूपमें पाठकों के सामने रक्खे और फिर उसके गुण-दोषों पर चाहे जितना विवेचन उपस्थित करें: उसे समालोच्य पुस्तक की सीमा के भीतर रहना चाहिये – उससे बाहर कदापि नहीं जाना चाहिये उसका यह अधिकार नहीं है कि जो बात पुस्तक विधिया निषेध रूप से कहीं भी नहीं कही गई उसकी भी समालोचना करे अथवा पुस्तकसे घृणा उत्पन्न कराने के लिये पुस्तकके नाम पर उसका स्वयं प्रयोग करें - उसे एक हथियार बनाए । भंगी, चनार और चांडालका नाम तकभी पुस्तक में कहीं नहीं है, फिरभी पुस्तक के नाम पर उनके विवाह
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
उद्देश्य का अपलाप आदि ।
की जो बात कही गई है वह ऐसीही घृणोत्पादक दृष्टि अथवा अनधिकार चेष्टा का फल है । भूमिका में एक वाक्य " बाबू जुगलकिशोरजी के लिखे अनुसार " इन शब्दों के अनन्तर निम्नं प्रकार से डबल कामाज के भीतर दिया है और इस तरह पर उसे लेखकका वाक्य प्रकट किया है-
"गृहस्थ के लिये स्त्री की जरूरत होनेके कारण चाहे जिसकी कन्या ले लेनी चाहिये”
२१
परन्तु समालोच्य पुस्तक में यह वाक्य कहीं पर भी नहीं है, और न लेखककी किसी दूसरी पुस्तक अथवा लेखमें ही पाया जाता है; और इसलिये इसे समालोचकजीकी सत्यवादिता और कूटलेखकता को एक दूसरा नमूना समझना चाहिये ! जान पड़ता है आप ऐसे ही सत्यके अनुयायी अथवा भक्त हैं ! और इसीलिये दूसरों का नग्न सत्य भी आपको सर्वथा मिथ्या और सफेद झूठ नज़र आता है !!
यह तो हुई पहले लखके शिक्षांश की बात, अब दूसरे लेखके शिक्षांको लीजिये ।
द्वितीय लेखका उद्देश्य और उसका स्पष्टीकरण |
समालोचकजी ने पहले लेख के उदाहरणांशों को जिस प्रकार अपनी समालोचनामें उद्धृत किया है उस प्रकारसे दूसरे लेख के उदाहरणांशको उद्धृत नहीं किया और इसलिये यहाँ पर इस दूसरे छोटेसे लेखको पूरा उद्धृत कर देना ही ज्यादा उचित मालूम होता है, और वह इस प्रकार है :
:
"हरिवंशपुराणादि जैनकथाग्रंथों में चारुदत्त सेठकी एक
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२
विषाह-क्षेत्र प्रकाश । प्रसिद्ध कथा है। यह सेठ जिस वेश्या पर प्रासक्त होकर वर्षोंतक उसके घरपर, बिना किसी भोजन पानादि सम्बन्धी भेदके, एकत्र रहा था और जिसके कारण वह एक बार अपनी संपूर्ण धनसंपत्तिको भी गँवा बैठा था उसकानाम 'वसंतसेना' था। इस वेश्याकी माताने, जिस समय धमाभाव के कारण चारुदत्त सेठको अपने घरसे निकाल दिया और वह धनोपार्जन के लिये विदेश चला गया उस समय वसंतसेनाने, अपनी माताके बहुत कुछ कहने पर भी, दूसरे किसी धनिक पुरुषसे अपना संबंध जोडना उचित नहीं समझा और तब वह अपनी माताके घरका ही परित्याग कर चारुदत्तके पीछे उसके घरपर चली गई। चारुदत्तके कुटुम्बियोंने भी वसंतसेनाको श्राश्रय देनेमें कोई आनाकानी नहीं की । वसन्तसेनाने उनके समुदार श्राश्रयमें रहकर एक आर्यिका के पाससे श्रावकके १२ व्रत ग्रहण किये, जिससे उसको नीचपरिणति पलटकर उच्च तथा धार्मिक बन गई और वह चारुदत्तको माता तथा स्त्रीकी सेवा करती हुई निःसंकोच भाव से उनके घरपर रहने लगी। जब चारुदत्त विपुल धन सम्पसिका स्वामी बनकर विदेश से अपने घरपर वापिस आया और उसे वसंतसेनाके स्वगृह पर रहने आदि का हाल मालूम हुआ तब उसने बड़े हर्षके साथ वसंतसेना को अपनाया अर्थात, उसे अपनी स्त्री रूपसे स्वीकृत किया। चारुदत्तके इस कृत्य पर-अर्थात. एक वेश्या जैसी नीच स्त्री को खुल्लमखुल्ला घरमे डाल लेनेके अपराध पर—उस समयको जाति-बिरादरीने चारुदत्तको जातिसे व्यत अथवा बिरादरी से खारिज नहीं किया और न दूसरा ही उसके साथ कोई घणा का व्यवहार किया गया। वह श्रीनेमिनाथ भगवान के चचा वसुदेवजी जैसे प्रतिष्ठित पुरुषोंसे भी प्रशंसित और सम्मानित रहा। और उसकी शुद्धता यहाँ तक बनी रही कि वह
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वि० लेखका उद्देश्य और उसका स्पष्टीकरण | २३
अन्तको उसके दिगम्बर मुनि तक होने में भी कुछ बाधक न हो सकी। इस तरह पर एक कुटुम्ब तथा जाति-बिरादरी के सद्व्यहार के कारण दो व्यसनासक्त व्यक्तियों को अपने उद्धार का अवसर मिला ।
इस पुराने शास्त्रीय उदाहरण से वे लोग कुछ शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं जो अपने अनुदार विचारों के कारण जरा जरा सी बात पर अपने जाति भाइयोंको जातिसे च्युत करके उनके धार्मिक अधिकारों में भी हस्तक्षेप करके उन्हें सन्मार्गसे पीछे हटा रहे हैं और इस तरह पर अपनी जातीय तथा संघशक्तिकां निर्बल और निःसत्व बनाकर अपने ऊपर अनेक प्रकार की विप तियों को बुलाने के लिये कमर कसे हुए हैं। ऐसे लोगों को संघशक्ति का रहस्य जानना चाहिये और यह मालूम करना चाहिये कि धार्मिक और लौकिक प्रगति किस प्रकार से होसकती हूँ । यदि उस समयको जाति-बिरादरी उक्त दोनों व्यसनासक्त व्यक्तियोंको अपने में श्राश्रय न देकर उन्हें अपने से पृथक कर देती, घृणा की दृष्टि से देखनी और इस प्रकार उन्हें सुधरने का कोई अवसर न देती तो अन्त में उक्त दोनों व्यक्तियों का जो धार्मिक जीवन बना है वह कभी न बन सकता । अतः ऐसे अवसरों पर जाति बिरादरी के लोगों को सोच समझकर, बड़ी दूरदृष्टि के साथ काम करना चाहिये । यदि वे पतितों का स्वयं उद्धार नहीं कर सकते तो उन्हें कमसे कम पतितों के उद्धार में बाधक न बनना चाहिये और न ऐसा अवसर ही देना चाहिये जिससे पतितजन और भी अधिकता के साथ पतित होजायँ ।” पाठकजन देखें और खूब ग़ौर से देखें, यही वह लेख है जिसकी बाबत समालोचकजी ने प्रकट किया है कि उसमें खूब ही वेश्यागमनकी शिक्षा कीगई और सबको उसका खुल्लम खुल्ला उपदेश दिया गया है, अथवा उसके द्वारा वेश्या तकको
9
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४
विवाह-क्षेत्र प्रकाश ।
घरमें डालने की प्रवृत्ति चलाना चाहा गया है। वेश्यागमनकी खूब ही शिक्षा और उपदेश देना तो दूर रहा,लेखमें एकभी शब्द एसा नहीं है जिसके द्वारा वेश्यागमनका अनुमोदन या अभिनंदन किया गया हो अथवा उसे शुभकर्म बतलाया हो । प्रत्युत इसके, चारुदत्त और उस वेश्याका “दोव्यसनासक्त व्यक्ति" तथा "पतित जन" सूचित किया है, वेश्याको 'नीच स्त्री" और उसकी पूर्व परिणति का (१२ नतोके ग्रहणसे पहले वेश्या जीवनको अवस्थाका ) "नीच परिणति" बतलाया है और एक वेश्या जैसी नीच स्त्रीको खल्लम खलजा घरमें डाल लेनेके कर्म का "अपराध" शब्दसे अभिहित किया है । साथही, उदाहरणांश और शिक्षांश में दिये हुए दो वाक्यों द्वारा यह स्पष्ट घोषित किया गया है कि उक्त दाना व्यसनासक्त व्यक्ति अपने उद्धार से पहले पतित दशामें थे, बिगड़े हुए थे और उनका जीवन अधार्मिक था; एक कुटुम्ब तथा जाति बिरादरीके सद्व्यवहार के कारण उन्हें अपने उद्धार' तथा 'सुधार' का अवसर मिला और उनका जीवन अन्तको धार्मिक' बन गया। ___ इतन परभी समालोचकजी उक्त लेखम वेश्यागमनके महापदेशका स्वप्न देख रहे हे ओर एक ऐसे व्यक्ति पर वश्यागमन का उपदेश देकर अपना हवस पूरी करने का मिथ्या आरोप (इलजाम लगा रहे हैं जो २५ बर्ष से भी पहले से वश्याओंक नृत्य देखने तकका त्यागी है-उसके लिये प्रतिक्षा बद्ध है-और एसे विवाहों में शामिल नहीं हाता जिनमें वेश्याएं नचाई जाती हो। समलोचकजीकी इस बुद्धि, परिणति, सत्यवादिता और समालोचकीय कर्तव्य पालनकी निःसन्देह बलिहारी है !! जान पड़ता है श्राप एकदम ही ग्रहपीडित अथवा उन्मत्त हो उठे है और धापने अकाण्ड ताण्डव श्रारम्भ कर दिया है। रही वेश्याको घरमें डालने की प्रवृत्ति चलाने की बात,
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वि० लेखका उद्देश्य और उसका स्पष्टीकरण । २५
यद्यपि किसी घटना का केवल उल्लेख करने से ही यह लाजिमी नहीं श्राता कि उसका लेखक वैसी प्रवृत्ति चलाना चाहता है फिरभी उस उल्लेख मात्र से ही यदि वैसा प्रवृत्ति की इच्छाका होना लाज़िमी मान लिया जाय तो समालोचकजी को कहना होगा कि श्री जिनसेनाचार्यने एक मनुष्य के जीतेजी उसकी स्त्रीको घरमें डाल लेने की, दूसरेकी कन्याको हरलाने की और वेश्या से विवाह कर लेने की भी प्रवृत्तिको चलाना चाहा है, क्योंकि उन्होंने अपने हरिवंशपुराण में ऐसा उल्लेख किया है कि राजा सुमुखने वीरक सेठके जीतेजी उसकी स्त्री 'वनमाला' को अपने घर में डाल लिया था, कृष्णजी रुक्मिणीको हर कर लाये थे, और अमोघदर्शन राजाके पुत्र चारुचंद्र ने 'काम पताका' नामकी वेश्या के साथ अपना विवाह किया था । यदि सचमुच ही इन घटनाओं के उल्लेख मात्र से श्रीजिनसेनाचार्य, समालोचकजीकी समझ के अनुसार, वैसी इच्छा के अपराधी ठहरते हैं. तो लेखक भी ज़रूर अपराधी है और उसे अपने उस अपके लिये ज़राभी चिन्ता तथा पश्चात्ताप करने की ज़रूरत नहीं है । और यदि समालोचकजी जिनसेनाचार्य पर अथवा उन्हीं जैसे उल्लेख करने वाले और भी कितनेही श्राचार्यों तथा विद्वानोंपर वैसी प्रवृत्ति चलाने का आरोप लगानेके लिये तरयार नहीं हैं - उसे अनुचित समझते हैं - तो लेखक पर उनका वैसा आरोप लगाना किसी तरहभी न्याय संगत नहीं होलकता । वास्तव में यह लेख नतो कैसे किस प्राशय या उद्देश्य से लिखा गया और न उसके किसी शब्द ही वैसा आशय या उद्देश्य व्यक्त होता है जेलाकि समालोचकजी ने प्रकट किया | लेखका स्पष्ट उद्देश्य उसके शिक्षण से बहुत थोड़ेसे ऊँचे तुले शब्दोद्वारा सूचित किया गया है, और उन परले हर एक विचारशील यह नतीज कता है कि वह जाति-विरा
म
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
विवाह-क्षेत्र-प्रकाश।
दरीके आधुनिक दण्डविधानोको लक्ष्य करके लिखा गया है।
जाति-पंचायतों का दएड-विधान । आजकल, हमारे बहुधा जैनी भाई अपने अनदार विचारों के कारण जरा जरा सी बात पर अपने जाति भाइयोको जातिसे च्युत अथवा बिरादरीसे खारिज करके-उनके धार्मिक अधिकारों में भी हस्तक्षेप करके उन्हें सन्मार्गसे पीछे हटा रहे हैं और इस तरह पर अपनी जातीय तथा संघशक्तिको निर्बल और निःसत्व बनाकर अपने ऊपर अनेक प्रकारकी विपत्तियों को बलाने के लिये कमर कसे हुए हैं। ऐसे लोगोंको चारुदत्त के इस उदाहरण-द्वारा यह चेतावनो की गई है कि वे दण्डविधानके ऐसे अवसरों पर बहुतही सोच-समझ और गहरे विचार तथा दूरदृष्टिसे काम लिया करें। यदि वे पतितोंका स्वयं उद्धार नहीं कर सकते तो उन्हें कमसे कम पतितोके उद्धारमें बाधक न बनना चाहिये और न ऐसा अवसर ही देना चाहिये जिससे पतितजन और भी अधिकताके साथ पतित होजायें। किसी पतित भाई के उद्धारकी चिन्ता न करके उसे जातिसे खारिज कर देना और उसके धार्मिक अधिकारीको भी छीन लेना ऐसा ही कर्म है जिससे वह पतित भाई, अपने सुधार का अवसर न पाकर, और भी ज्यादा पतित होजाय, अथवा यो कहिये कि वह डूबते को ठोकर मारकर शीघ्र डबा देने के समान है। तिरस्कार से प्रायः कभी किसी का सुधार नहीं होता, उससे तिरस्कृत व्यक्ति अपने पापकार्यमें और भी दृढ़ हो जाता है और तिरस्कारी के प्रति उसकी ऐसी शता बढ़जाती है जो जन्म जन्मान्तरोंमें अनेक दुःखो तथा कष्टोका कारण होती हुई दोनोंके उन्नति पथमें बाधा उपस्थित करदेती है। हाँ, सुधार होता है प्रेम, उपकार और सद्व्यवहार से।
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वि० लेखका उद्देश्य और उसका स्पष्टीकरण ।
२७
यदि चारुदत्त के कुटुम्बीजन, अपने इन गुणों और उदार परिगति के कारण, वसंतसेनाको चारुदत्त के पीछे अपने यहाँ आश्रय न देते बल्कि यह कहकर दुरकार देते कि 'इस पापिनी ने हमारे चारुदका सर्वनाश किया है, इसकी सूरत भी नहीं देखनी चाहिये और न इसे अपने द्वारपर खड़ेही होने देना चाहिये', तो बहुत संभव है कि वह निराश्रित दशामें अपनी माता के ही पास जाती और वेश्यावृत्ति के लिये मजबूर होती और तब उसका वह सुन्दर श्राविका का जीवन न बन पाता जो उन लोगों के प्रेमपूर्वक श्राश्रय देने और सद्व्यवहारसे बन सका है। इसलिये सुधार के अर्थ प्रेम, उपकार और सद्व्यव हार को अपनाना चाहिये, उसकी नितान्त श्रावश्यक्ता है । पापीसे पापीका भी सुधार हो सकता है परन्तु सुधारक होना चाहिये। ऐसा कोई भी पुरुष नहीं है जो स्वभाव से ही 'अयोग्य' हो परन्तु उसे योग्यताकी ओर लगाने वाला अथवा उसकी योग्यता से काम लेने वाला 'योजक' होना चाहिये - उसीका मिलना कठिन है । इसीसे नीतिकारोंने कहा है
46
" अयोग्य: पुरुषोनास्ति योजकस्तत्र दुर्लभः ।"
जो जाति अपने किसी अपराधी व्यक्तिको जातिसे खारिज करती है और इस तरह पर उसके व्यक्तित्व के प्रति भारी घृणा और तिरस्कार के भावको प्रदर्शित करती है, समझना चाहिये, वह स्वयं उसका सुधार करने के लिये असमर्थ है, अयोग्य है, और उसमें योजक- शक्ति नहीं है। साथ ही, इस कृतिके द्वारा वह सर्वसाधारण में अपनी उस अयोग्यता और अशक्तिकी घोषणा कर रही है, इतना ही नहीं बल्कि अपनी स्वार्थसाधुता को भी प्रकट कर अयोग्य और असमर्थ जातिका, जो अपनेको थाम भी नहीं
रही है । ऐसी
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
विवाह-क्षेत्र प्रकाश। सकती, क्रमशः पतन होना कुछभी अस्वाभिषक नहीं है। पापी । का सुधार वही कर सकता है जो पापीके व्यक्तित्व से घृणा नहीं करता बल्कि पापसे घणा करता है। पापीसे घृणा करने वाला पापीके पास नहीं फटकता, वह सदैव उससे दूर रहता है और उन दोनों के बीच में मीलोकी गहरी खाई पड़ जाती है; इससे वह पापीका कभी कुछ सधार या उपकार नहीं कर सकता । प्रत्युत इसके, जो पापसे घृणा करता है वह सद्य की तरह हमेशा पापी (रोगी) के निकट होता है, और बराबर उसके पापरोगको दूर करने का यत्न करता रहता है । यही दोनो में भारी अन्तर है। आजकल अधिकांश जन पापसे तो घृणा नहीं करते परन्तु पापीसे घृणा का भाव जरूर दिखलाते हैं अथवा घृणा करते हैं । इसीसे संसारमें पापको उत्तरोत्तर वृद्धि होरही है और उसकी शांति होने में नहीं पाती । बहुधा जाति बिरादरियों अथवा पंचायतों की प्रायः ऐसी नीति पाई जाती है कि वे अपने जाति भाइयों को पापकर्मसे तो नहीं रोकती और न उनके मार्गमे कोई अर्गला ही उपस्थित करती हैं बल्कि यह कहती कि 'तुम सिंगिल (पकहरा) पाप मत करो बल्कि डबल (दोहरा) पाप करो-डयल पाप करनेसे तुम्हें कोई दण्ड नहीं मिलेगा परन्तु सिंगिल पाप करने पर तुम जातिसे खारिज कर दिये जानोगे । अर्थात्, वे अपने व्यवहारसे उन्हें यह शिक्षा देरही हैं कि 'तुम चाहे जितना बड़ा पाप करो, हम तुम्हे पाप करने से नहीं रोकती परन्तु पाप करके यह कहो कि हमने नहीं किया- पापको छिपकर करो और उसे छिपाने के लिये जितना भी मायाचार तथा असत्य भाषणादि दूसरा पाप करना पड़े उसकी तुम्हें छुट्टी है--तुम खुशीसे व्यभिचार कर सकते हो परन्तु वह स्थल रूपमें किसी पर जाहिर न हो, भलेही इस कामके लिये रोटी बनानेवालीके रूपमें किसी स्त्रीको
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वि० लेखका उद्देश्य और उसका स्पष्टीकरण । २६ रखलो परन्तु उसके साथ विवाह मत करा; और यदि तुम्हारे फेल (कर्म) से किसी विधवाको गर्भ रहजाय तो खुशीसे उसकी भ्रूणहत्या कर डालो अथवा बालकको प्रसव कराकर उसे कहीं जंगल आदिमें डाल श्राओ या मारडाला परन्तु खले रूपमे जातिबिरादरीके सामने यह बात न आने दो कि तुमने उस विधवा के साथ सम्बंध किया है, इसी में तुम्हारी खैर है-मुक्ति है
और नहीं तो जातिसे खारिज कर दिये जानोगे। जाति-विरा. दरियो अथवा पंचायतों की ऐसी नीति और व्यवहारके कारण ही आजकलमारत वर्षका और उसमें भी उच्च कहलाने वाली जातियोंका बहुतही .ज्यादा नैतिक पतन होरहा है । ऐसी हालत में पापियोंका सुधार और पतितोका उद्धार कौन करे, यह एक बड़ी ही कठिन समस्या उपस्थित है!! __ एक बात और भी नोट किये जाने के योग्य है और वह यह कि यदि कोई मनुष्य पाप कर्म करके पतित होता है तो उसके लिये इस बातकी खास जरूरत रहती है कि वह अपने पापका प्रायश्चित करने के लिये अधिक धर्म करे, उसे ज्यादा धर्मकी ओर लगाया जाय और अधिक धर्म करने का मौका दिया जाब परन्तु श्राजकल कुछ जैन जातियों और जैन पंचायतोंकी ऐसी उलटी रीति पाई जाती है कि वे ऐसे लोगोंको धर्म करने से रोकती हैं-उन्हें जिनमंदिरों में जाने नहीं देती अथवा वीतराग भगवानकी पूजा प्रक्षाल नहीं करने देती और और भी कितनी ही आपत्तियाँ उनके धार्मिक अधिकारों पर खड़ी करदेती हैं। समझमें नहीं पाता यह कैसी पापोंसे घणा और धर्मले प्रीति अथवा पतितोके उद्धारकी इच्छा है !! और किसी बिरादरी या पंचायतको किसीके धार्मिक अधिकारोंमें हस्तक्षेप करने का क्या अधिकार है !!
जैनियों में 'अविरत सम्यग्दृष्टि' का भी एक दर्जा (चतुर्थ
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
विवाह-क्षेत्र प्रकाश । गुण स्थान) है, और अविरतसम्यग्दृष्टि उसे कहते हैं जो इंद्रियों के विषयों तथा प्रसस्थावर जीवों की हिंसासे विरक्त नहीं होता--अथवा यो कहिये कि इन्द्रियसंयम और प्राणसंयम नामक दोनों संयमों में से किसी भी संयमका धारक नहीं होता- परन्तु जिनेद्र भगवानके वचनों में श्रद्धा जरूर रखता है* । ऐसे लोग भी जब जैन होते हैं और सिद्धान्ततः जैन मंदिरों में जाने तथा जिनपूजनादि करने के अधिकारी हैं + तब एक श्रावकसे, जो जैनधर्मका श्रद्धानी है, चारित्र मोहिनी कर्मके तीघ्र उदयवश यदि कोई अपराध बन जाता है तो उसकी हालत अविरत सम्यग्दृष्टि से और ज्यादा क्या खराब होजाती है, जिसके कारण उसे मंदिरमें जाने प्रादिसे रोका जाता है । जान पड़ता है इस प्रकारके दंडविधान केवल नासमझी और पारस्परिक कषाय भावों से सम्बंध रखते हैं । अन्यथा, जैनधर्म में तो:सम्यग्दर्शनसे यक्त (सम्यग्दृष्टि)चांडालपुत्रको भी 'देव' कहा है-आराध्य बतलाया है और उसकी दशा उस अंगारके सघश प्रतिपादन की है जो बाह्य में भस्मसे पाच्छादित होनेपर भी अन्तरंगमे तेज तथा प्रकाश को लिये हुए है और इसलिये कदापि उपक्षणीय नहीं होता। इसीसे *यथा जो इंदये सुविरदो णो जीवे थावरे तसे वापि। जो सहहदि जिणुत्तं सम्माइट्ठी अविरदोसो ॥२६
.गोम्मटसार। + जिन पूजाके कौन कौन अधिकारी हैं, इसका विस्तृत और प्रामाणिक कथन लेखककी लिखी हुई 'जिनपूजाधिकार मीमांसा' से जानना चाहिये। यथा-सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातंगदेहम् । देवा देवं विदुर्भस्म गढ़ागारात्मरौजसम् ॥
.-इति रत्नकरण्डके स्वामिसमंतभद्रः ।
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वि० लेखका उद्देश्य और उसका स्पष्टीकरण | ३१
बहुत प्राचीन समय में, जबकि जैनियों का हृदय सच्ची धर्मभावनासे प्रेरित होकर उदार था और जैनधर्मकी उदार (अनेकान्तात्मक) छत्रछाया के नीचे सभी लोग एकत्र होते थे, मातंग ( चाण्डाल) भी जैनमंदिरोंमें जाया करते थे और भगवान का दर्शन-पूजन करके अपना जन्म सफल किया करते थे । इस विषय का एक अच्छा उल्लेख श्रीजिनसेनाचार्य के हरिवंशपुराण में पाया जाता है और वह इस प्रकार है:सस्त्रोकाः खेचरा याताः सिद्धकूटजिनालयम् । एकदा वंदितुं सोपि शौरिर्मदन वेगया || २ || कृत्वा जिनमहं खेटाः प्रवन्ध प्रतिमागृहम् ! तस्थुः स्तंभानुप्राश्रित्य बहुवेषा यथायथम् || ३ || विद्युद्वेगोपि गौरीणां विद्यानां स्तंभमाश्रितः । कृतपूजास्थितः श्रीमान्स्वनिकायपरिष्कृतः ॥ ४ ॥ पृष्टया वसुदेवेन ततो मदनवेगया । विद्याधरनिकायास्ते यथास्वमिति कीर्तिताः ॥ ५ ॥
*
*
श्रम विद्याधराद्यार्याः समासेन समीरिताः । मातंगानामपि स्वामिन्निकायान् श्रृणु वच्मि ते ॥ १४ ॥ नीलांबुदचमश्यामा नीलांबरवरस्रजः । - श्रमी मातंगनामानो मातंगस्तंभ संगताः ।। १५ ।। श्मशानास्थिकृतोत्तंसा भस्मरेणुविधूसराः । श्मशाननिलयास्त्वेते श्मशानस्तंभमाश्रिताः ॥ १६ ॥ नीलवैडूर्यवर्णानि धारयंत्यंवराणि ये ।
*
*
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
विवाह क्षेत्र प्रकाश
पाण्डुरस्तंभ त्यामी स्थिताः पाण्डुकखेचराः ॥ १७ ॥ कृष्णाजिनधरास्त्वेते कृष्णचर्माम्वरस्रजः ।
कानीलस्तंभमध्येत्य स्थिताः कालश्वपाकिनः ॥ १८ ॥ पिंगलैर्मध्वं जैर्युक्तास्तप्तकांचनभूषणाः ।
tauratai च विद्यानां श्रितास्तंभं श्वपाकिनः ॥ १६ ॥ पत्रपर्णाशुकच्छन्न-विचित्रमुकुटखजः ।
पार्वतेया इति ख्याता पार्वतस्तंभमाश्रिताः ॥ २० ॥ वंशीपत्रकृतोत्तंसाः सर्वर्तुकुसुमस्रजः । वंशस्तंभाश्रिताश्चैते खेटा वंशालया मताः ॥ २१ ॥ महाभुजगशोभांकसं दृष्टवर भूषणाः ।
वृक्षमूल महास्तंभमाश्रिता वार्त्तमूलकाः ।। २२ ।। स्ववेषकृत संचाराः स्वचिह्नकृतभूषणाः ।
समासेन समाख्याता निकायाः खचरोद्गताः ॥ २३ ॥ इति भार्योपदेशेन ज्ञातविद्याधरान्तरः । शौरिर्यातो निजं स्थानं खेचराश्च यथायथम् " ॥ २४ ॥ - २६ वाँ सर्ग ।
३२
•
इन पद्यका अनुवाद पं० गजाधरलालजी ने, अपने भाषा *हरिवंश पुराणमें, मिम्न प्रकार दिया है :
"एकदिन समस्त विद्याधर अपनी अपनी स्त्रियोंके साथ सिद्धकूट चैत्यालयकी वंदनार्थ गये कुमारा ( वसुदेव ) भी
* देखो इस हरिवंशपुराण का सन् १६१६ का छुपा हुआ संस्करण, पृष्ठ २८४, २८५ ।
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वि० लेखका उद्देश्य और उसका स्पष्टीकरण । ३३ प्रियतमा मदनवेगाके साथ चलदिये ॥२॥ सिद्ध कूटपर जाकर चित्र विचित्र वेषोंके धारण करने वाले विद्याभरीने सानंद भगवानकी पूजा की चैत्यालय को नमस्कार किया एवं अपने अपने स्तंभोंका सहारा ले जुदे २ स्थानों पर बैठ गये ॥ ३ ॥ कुमार के श्वसुर विद्युद्वगने भी अपनी जातिके गौरिक निकाय के विद्याधरोंके साथभले प्रकार भगवागको पूजाकी और अपनी गौरी-विद्याभों के स्तंभका सहारा ले बैठगये ॥४॥ कुमारको विद्याधरोकी जातिके जानने की उत्कंठा हुई इसलिये उन्होने उनके विषयमें प्रियतमा मदनवेगासे पछा और मदनवगा यथायोग्य विद्याधरोकी जातियोंका इसप्रकार वर्णन करने लगी."
"प्रभो ! ये जितने विद्याधर है वे सब आर्य जातिके विद्याधर है अब मैं मातंग [अनार्य ] जातिके विद्याधरोंको बतलाती हूँ आप ध्यान पूर्वक सुने-" ___ "नील मेघके समान श्याम नीली माला धारण कियेमातंग स्तंभके सहारे बैठे हुये ये मातंग जातिके विद्याधर है ॥१४-१५॥ मुर्दोको हड्डियों के भषणोंसे भुषित भस्म (राख) की रणुप्रोसे भद मैले और श्मशान [ स्तंभ ] के सहारे बैठे हुये ये श्मशान नतिके विद्याधर है ॥ १६ ॥ येडूर्यमणि के समान नीले नीले पत्रों को धारण किये पांडुर स्तंभक सहारे बैठे हुये ये पांडक जातिके विद्याधर है ॥ १७ ॥ काले काले भृगचर्मों को आढे काले चमड़े के वस्त्र और मालाओं को धारे कालस्तंभका श्राश्रय ले बैठे हुये ये कालश्वपाकी जातिके विद्याधर हैं ॥१८॥ पीले वर्णके केशोसे भूषित, तप्त सुवर्ण के भूषणोंक धारक श्वपाक विद्याओं के स्तंभके सहारे बैठने वाले वेश्वपाक जातिके विद्याधर है ॥ १६॥ वृक्षोंके पत्तोंके समान हरे वस्त्रोंके धारण करनेवाले, भाँति भाँतिके मुकुट और मालाओंके धारक, पर्वत
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
विवाह-क्षेत्र प्रकाश। स्तंभका सहारा लेकर बैठे हुये ये पार्वतेय जातिके विद्याधर हैं ॥ २० ॥ जिनके भूषण बाँसके पत्तोंके बने हुये हैं जो सब ऋतुओके फूलों की माला पहिने हुये हैं और वंशस्तंभके सहारे बैठे हुये हैं वे वंशालय जातिके विद्याधर हैं ॥ २१ ॥ महासर्पके चिह्नोसे युक्त उत्तमोत्तम भूषणों को धारण करने वाले वृक्षमूल नामक विशाल स्तंभके सहारे बैठे हुये ये वाक्षमूलक जातिके विद्याधर हैं ॥ २२ ॥ इस प्रकार रमणो मदनवेगा द्वारा अपने अपने वेष और चिह्न युक्त भूषणोंसे विद्याधरोका भेद जान कुमार अति प्रसन्न हुये और उसके साथ अपने स्थान वापिस चले पाये एवं अन्य विद्याधर भी अपने अपने स्थान चले गये ॥ २३-२४ ॥"
इस उल्लेख परसे इतनाही स्पष्ट मालम नहीं होता कि मातंग जातियोंके चाण्डाल लोग भी जैनमंदिरमें जाते और पूजन करते थे बल्कि यहभी मालूम होता है कि * स्मशानभूमि की हड्डियोंके आभूषण पहिने हुए, वहाँ की राख बदनसे मले हुए, तथा मृगछाला ओढे, चमड़ेके वस्त्र पहिने और चमड़ेकी मालाएं हायमें लिये हुए भी जैनमंदिर में जासकते थे. और न केवल जाहीसकते थे बल्कि अपनी शक्ति और भक्तिके अनुसार पूजा करने के बाद उनके वहाँ बैठने के लिए स्थान भी नियत था, जिससे उनका जैन मंदिरमें जानेका और भी ज्यादा नियत अधिकार पाया जाता है। । जान पड़ता है उस समय 'सिद्ध.
यहाँ इस उल्लेख परसे किसीको यह समझने की भूल न करनी चाहिये कि लेखक श्राजकल ऐसे अपवित्र वेषमें जैम मंदिरों में जाने की प्रवति चलाना चाहता है।
+ थी जिनसेनाचार्य ने, ६ वी शताब्दी के पातावरणके अनुसार भी, ऐसे लोगों का जैनमंदिर में जाना मादि मापत्तिके
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वि० लेखका उद्देश्य और उसका स्पष्टीकरण। ३५ कूट जिनालय में, प्रतिमागृहके सामने एक बहुत बड़ा विशाल मंडप होगा और उसमें स्तंभोंके बिभागसे सभी प्रार्य अनार्य जातियोंके लोगों के बैठने के लिये जुदाजदा स्थान नियतकर रक्खे होंगे। प्राजकल जैनियों में उक्त सिद्धकूट जिनालय के ढंगकोउसकी नीतिका अनुसरण करनेछाला-एकभी जैनमंदिर नहीं है । लोगों ने बहुधा जैन मंदिरोको देवसम्पत्ति न समझकर अपनी घरू सम्पत्ति समझ रक्खा है, उन्हें अपनी हीचहलपहल तथा श्रामोद-प्रमोदादिके एक प्रकारके साधन बना रक्खा है, के प्राय: उन महौदार्य सम्पन्न लोकपिता वीतराग भगवानके मंदिर नहीं जान पड़ते जिनके समवसरसमें पश्तक भी जाकर बैठतेथे, और न वहाँ, मूर्तिको छोड़कर, उन पूज्य पिताके वैराग्य, औदार्य तथा साम्यभावादि गुणों का कहीं कोई आदर्श ही नज़र पाता है। इसीसे वे लोग उनमें चाहे जिस जैनीको श्राने देते है और चाहे जिसको नहीं। कई ऐसे जैनमंदिर भी देखने में
आए हैं जिनमें ऊनी वस्त्र पहिने हुए जैनियोको भी घुसने नहीं दिया जाता । इस अनदारता और कृत्रिम धर्मभावनाका भी कहीं कुछ ठिकाना है ! ऐसे सब लोगोंको खूब याद रखना योग्य नहीं ठहराया और न उससे मंदिरके अपवित्र होजानेको ही सूचितकिया। इससे क्या यह नसमझ लिया जाय कि उन्होंने ऐसी प्रवत्तिका अभिनंदन किया है अथवा उसे बरानहीं समझा?
x चाँदनपुर महावीरजीके मंदिरमें तो वर्ष भरमें दो एक दिनके लिये यह हवा आ जाती है कि सभी ऊँच नीच जातियों के लोग बिना किसी रुकावटके अपने प्राकृत वेष-जते पहने और चमड़े के डोल श्रादि चोजे लिये दुए वहाँ चले जाते हैं। और अपनी भक्तिक अनुसार दर्शन पूजन तथा परिक्रमण करके वापिस पाते हैं।
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६
विवाह क्षेत्र प्रकाश ।
चाहिये कि दूसरोंके धर्म-साधन में विन करना - बाधक होना, उनका मंदिर जाना बंद करके उन्हें देवदर्शन दिखे विमुख रखना, और इस तरह पर उनको आत्मोन्नति के कार्य में रुकाघट डालना बहुत बड़ा भारी पाप है। अंजना सुंदरीने अपने पूर्व जन्म में थोड़े हो कालके लिये, जिनप्रतिमाको छिपाकर, अपनी सौतन के दर्शनपूजनमें अन्तराय डाला था। जिसका परिणाम यहाँ तक कटुक हुआ कि उसको अपने इस जन्म में २२ वर्ष तक पतिका दुःसह वियोग सहना पड़ा और अनेक संकट तथा आपदाओं का सामना करना पड़ा, जिनका पूर्ण विवरण श्रीरविषेशाचार्यकृत 'पद्मपुराण' के देखने से मालूम हो सकता है। श्रोकुन्दकुन्दाचार्यने, अपने 'रयणसार ' ग्रन्थ में यह स्पष्ट बतलाया है कि- 'दूसरोंके पूजन और दानकार्य में अन्तराय (विघ्न) करने से जन्मजन्मान्तर में क्षय कुष्ठ, शूल, रक्तविकार, भगंदर, जलोदर, नेत्रपीड़ा, शिरोवेदना श्रादिक रोग तथा शीत उष्ण (सरदी गरमी ) के श्राताप और ( कुयोनियों में ) परिभ्रमण आदि अनेक दुःखोंकी प्राप्ति होती है। 'यथाखकुट्टसूलमूलो लोग भगंदरजलोदर क्खि सिरोसीदुहराई पूजादातरायकम्पफलं ॥ ३३ ॥
•
इस लिये जो कोई जाति-बिरादरी अथवा पंचायत किसी जैनीका जैनमंदिरमें न जाने अथवा जिनपूजादि धर्मकार्योंसे वंचित रखने का दण्ड देती है वह अपने अधिकार का श्रतिक्रमण और उल्लंघन ही नहीं करती बल्कि घोर पापका अनुष्ठान करके स्वयं अपराधिनी बनती है । ऐसी जाति-बिरादरियों के पंचकी निरंकुशता के विरुद्ध श्राघाज उठने की ज़रूरत है और उसका वातावरण ऐसेही लेखोंके द्वारा पैदा किया जा सकता है | आजकल जैन पंचायतोंने 'जाति बहिष्कार' नामके तीक्ष्ण
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वि० लेखका उद्देश्य और उसका स्पष्टीकरख। ३७ हथियार को जो एक खिलौने की तरह अपने हाथमे ले रक्खा है और, विना उसका प्रयोग जाने तथा अपने बलादिक और देशकालकी स्थिति को समझे, जहाँ तहाँयद्वातद्वारूपमें उसका व्यवहार किया जाता है वह धर्म और समाजके लिये बड़ा ही भयकर तथा हानिकारक है। इस विषयमें श्रीसोमदेवसरि अपने * 'यशस्तिलक' ग्रन्थ में लिखते हैं :
नवैः संदिग्धनिा है विंध्यागणवर्धनम् । एकदोपकते त्याज्यः प्राप्ततत्वः कथं नरः ॥ यतः समयकार्यार्थो नानापंचजनाश्रयः । अतः संबोध्य यो यत्र योग्यस्तं तत्र योजयेत् ॥ उपेक्षायां तु जायेत तत्वाद्दूरतरो नरः ।
ततस्तस्य भवो दीर्घः समयोऽपि च हीयते ॥ इन पद्यों का प्राशय इस प्रकार है:__ 'ऐसे ऐसे नवीन मनुष्यों से अपनी जाति की समह-वद्धि करनी चाहिये जो संदिग्धनिर्वाह हैं-अर्थात् , जिनके विषय में यह संदेह है कि वे जाति के प्राचार विचार का यथेष्ट पालन कर सकेंगे। (और जब यह बात है तय ) किसी एक दोष के कारण कोई विद्वान् जाति से बहिष्कार के योग्य कैसे हो सकता है ? चंकि सिद्धान्ताचार-विषयक धर्म कार्यों का प्रयोजन नाना पंचजनों के प्राश्रित है-उन के सहयोग से सिद्ध होता है-अतः समझाकर जो जिस कामके योग्य हो उसको उसमें लगाना चाहिये-जातिसे प्रथक न करना चाहिये। यदि किसी दोषके कारण एक व्यक्तिक-शासकर विद्वानी___* यह ग्रंथ शक सं० ८८१ ( वि० सं० १०१६ ) में बनकर समाप्त हुआ।
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
३८
विवाह-क्षेत्र प्रकाश |
उपेक्षा की जाती है-उसे जाति में रखने की पर्वाह न करके जाति से प्रथक् किया जाता है - तो उस उपेक्षा से वह मनुष्य तत्व से बहुत दूर जा पड़ता है । तत्व से दूर जा पड़नेके कारण उसका संसार बढ़ जाता है और धर्म की भी क्षति होती है - अर्थात्, समाजके साथ साथ धर्म को भी भारी हानि उठानी पड़ती है, उस का यथेष्ट प्रचार और पालन नहीं हो पाता ।'
श्राचार्य महोदय ने अपने वाक्यों द्वारा जैन जातियों और पंचायतों को ओ गहरा परामर्श दिया है और जो दूर की बात सुभाई है वह सभी के ध्यान देने और मनन करनेके योग्य है । जब जब इस प्रकार के सदुपदेशों और सत्परामर्शो पर ध्यान दिया गया है तब तब जैन समाजका उत्थान होकर उसकी हालत कुछ से कुछ होती रही है-इसमें अच्छे अच्छे राजा भी हुए, मुनि भी हुए और जैनियों ने अपनी लौकिक तथा पारलौकिक उन्नति में यथेष्ट प्रगति की, परन्तु जब से उन उपदेशों तथा परामर्शो की उपेक्षा की गई तभी से जैन समाज का पतन हो रहा है और आज उसकी इतनी पतितावस्था हो गई है कि उसके अभ्युदय और समृद्धि की प्रायः सभी बातें स्वप्न जैसी मालूम होती हैं, और यदि कुछ पुरातत्वों अथवा ऐतिहासिक विद्वानों द्वारा थोडासा प्रकाश न डाला जाता तो उन पर एकाएक विश्वास भी होना कठिन था। ऐसी हालत में, अब जरूरत है कि जैनियों की प्रत्येक जाति में ऐसे वीर पुरुष पैदा हो अथवा खड़े हो जो बड़े ही प्रेम के साथ युक्तिपूर्वक जातिके पंचों तथा मुखियाओं को उनके कर्तव्य का ज्ञान कराएँ और उनकी समाज-हित-विरोधनी निरंकुश प्रवृत्ति को नियंत्रित करने के लिये जी जान से प्रयत्न करें। ऐसा होने पर ही समाज का पतन रुक सकेगा और उस
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वि० लेखका उद्देश्य और उसका स्पष्टीकरण।
३६
में फिर से वही स्वास्थ्यप्रद जीवनदाता और समद्धिकारक पवन बह सकेगा जिसका बहना अब बंद हो रहा है और उस के कारण समाज का सांस घट रहा है।
समाज के दंड विधान और उसके परिणाम-विषयक इन्हीं सब बोतोको भाड़े से स्त्र वाक्यों द्वारा सझाने अथवा उनका संकेतमात्र करने के उद्देश्य से ही यह चारुदत्त वाला लेख लिखा गया था।
समालोचकजोको यदि इन सब बातोका कुछ भी ध्यान होता तो वे ऐसे सदुद्देश्य से लिखे हुए इस लेखके विरोध ज़राभी लेखनी न उठाते। आशा है लेखोद्देश्य के इस स्पष्टीकरणसे उनका बहुत कुछ समाधान होजायगा और उनके द्वारा सर्वसाधारणमें जो भ्रम फैलाया गया है वह दूर हो सकेगा।
वेश्याओं से विवाह । पुस्तक के प्राशय-उद्देश्यका विवेचन और स्पष्टीकरण करने आदि के बाद अब मैं उदाहरणोंकी उन बातों पर विचार करता हूँ जिन पर समालोचना में आक्षेप किया गया है. और सबसे पहले इस चारुदत वाले उदाहरणको ही लेता हूँ । यही पहले लिखा भी गया था, जैसा कि शुरू में ज़ाहिर किया जा चुका है। समालोचकजी ने जो इसे वसदेव जी वाले उदाहरण के बाद लिखा बतलाया है वह उनकी भूल है।
इस उदाहरण में सिर्फ दो बातों पर आपत्ति की गई है एकतो वसंतसेना धेश्याको अपनी स्त्री रूप से स्वीकृत करने अथवा खल्लमखल्ला घर में डाल लेने पर, और दूसरी इस बात पर कि चारुदत्त के साथ कोई घणा का व्यवहार नहीं किया गया। इनमें से दूसरी बात पर जो आपत्ति की
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
विवाह क्षेत्र प्रकाश ।
गई है वह तो कोई ख़ास महत्व नहीं रखती । उसका तात्पर्य सिर्फ इतना हो है कि ' सप्ततनों में वेश्या सेवन भी एक व्यसन है, इस व्यसनको सेवन करने वाले बहुत से मनुष्य होगये हैं परंतु उनमें चारुदत्त का नाम ही जो ख़ास तौर से प्रसिद्ध चला जाता है वह इस बात को सूचित करता है कि इस व्यसन के सेवन में चारुदत्त का नाम जैसा बदनाम हुआ है वैसा दूसरे का नहीं । नाम की यह बदनामी ही चारुदत्त के प्रति घृणा और तिरस्कार है, इस लिये उस समयके लोग भी ज़रूर उसके प्रति घृणा और तिरस्कार किये बिना न रहे होंगे।' इस प्रकार के अनुमान को प्रस्तुत करने के सिवाय, समालोचक जी ने दूसरा कोई भी प्रमाण किसी ग्रन्थ से ऐसा पेश नहीं किया जिससे यह मालूम होता कि उस वक्त की जाति-बिरादरी श्रथवा जनताने चारुदत्तके व्यक्तित्व के प्रति घृणा और तिरस्कार का अमुक व्यवहार किया है । और अनुमान जो आपने बाँधा है वह समुचित नहीं है। क्योंकि एक वेश्याव्यसनी के रूपमें चारुदत्त का जो कथानक प्रसिद्ध है वह, एक रोगीमें व्यक्त होनेवाले रोगके परिणामोंको प्रदर्शित करने की तरह, चारुदत्तके उस दोषका फल प्रदर्शन अथवा उससे होनेवाली मुसीबतोंका उल्लेख मात्र है और उसे ज्यादा से ज्यादा उसके उस दोषकी निन्दा कह सकते हैं। परन्तु उससे चारुदत्त के व्यक्तित्व ( शखसियत Personality) के प्रति घृणा या तिरस्कारका कोई भाव नहीं पाया जाता जिसका निषेध करना उदाहरणमें अभीष्ट था और न किसीके एक दोषको निन्दास उसके व्यक्तित्व के प्रति घृणा या तिरस्कार का होना लाज़िमी आता है। दोष की निंदा और बात है और व्यक्तित्व के प्रति घृणा या तिरस्कार का होना दूसरी बात । श्रीजिनसेनाचार्य विरचित हरिवंशपुराणादि किसी भी प्राचीन ग्रन्थमें ऐसा कोई उल्लेख नहीं मिलता जिससे
४०
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्याओसे विवाह
I
४१
यह पाया जाता हो कि चारूदत्तके व्यक्तित्व के साथ उस बक्त जनताका व्यवहार तिरस्कारमय था । प्रत्युत इसके, यह मालूम होता है कि चारुदत्त का काका स्वयं घेश्याव्यसनी था, वारुदत्त की माता सुभद्राने, चारुदन्तको स्त्री - संभोग से विरक्त देखकर, इसी काकाके द्वारा वेश्याव्यसनमें लगायाथा* ; वेश्या के घर से निकाले जाने पर जब चारुदत्त अपने घर श्राया तो उसकी स्त्री ने व्यापार के लिये उसे अपने गहने दिये और बह मामा के साथ विदेश गया : विदेशों में चारुदत्त अनेक देवों तथा विद्याधरों से पूजित, प्रशंसित और सम्मानित हुआ; उसे प्रामाणिक और धार्मिक पुरुष समझ कर 'गंधर्वसेना' नामकी विद्याधर-कन्या उसके समर्थ भाइयों द्वारा विवाह करदेनेके लिये सौंपी गई और जिसे चारूदत्तने पुत्री की तरह रक्खा ; चारुदत्त के पीछे वसन्तसेना वेश्या उसकी माताके पास श्री रही और माता की सेवा सुश्रूषा करते हुए निःसंकोच भावले उसके वहां रहने पर कहीं से भी कोई आपत्ति नहीं की गई; areers विदेश से वापिस आने पर मातादिक कुटुम्बीअन और चम्पापुरी नगरीके सभी लोग प्रसन्न हुए और उन्होंने चारुदरा के साथ महती तथा अद्भुत प्रीति को धारण किया x ; चारूदत्तने उस वसंतसेना वंश्याको अंगीकार किया
:
* ब्रह्मनेमिदत्त ने भी आराधनाकथाकोश में लिखा है तदा स्वपुत्रस्य मोहेन संगति गणिकादिभिः । सुभद्रा कारयामास तख्योश्चैर्लम्पटैर्जनैः ॥
x ब्रह्मनेभिदत्तके कथाकाशमें चम्पापुरीके लोगों आदि की इस प्रीतिका उल्लेख निम्न प्रकार से पाया जाता है। :― भानुः श्रेष्ठी सुभद्रा सा चारुदत्तागमं तदा । अन्ये चम्पापुरीलोकाः प्रीति प्राप्ता महाद्भुताम् ॥
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२
विवाह क्षेत्र प्रकाश |
जो उसी को एक पति मान कर उसके घर पर रहने लगी थी, 'किमिच्छुक' दान देकर दोनों और अनाथ आदिको संतुष्ट किया, गंधर्वसेना की प्रतिज्ञानुसार उसका पति निश्चित करनेके लिये अनेक बार गंधर्वविद्याके जानकार बिद्वानों की सभाएँ जुटाई, प्रतिज्ञा पूरी होने पर वसुदेवके साथ उसका विवाह किया, और बराबर जैनधर्मका पालन करते हुए अन्त को जैन मुनि दीक्षा धारण की । इसके सिवाय, वसुदेवजीने चारुtant deosसनादि सहित सारा पूर्व वृत्तांत सुनकर और उससे सन्तुष्ट होकर चारुदत्तकी प्रशंसा में निम्न वाक्य कहेचारुदत्तस्य चोत्साहं तुष्टस्तुष्टाव यादवः ॥ १८१ अहोचेष्टितमार्यस्य महौदार्यसमन्वितम् ।
www
हो पुण्यवलं गण्यमनन्यपुरुषोचितम् ॥ १८२ न हि पौरुषमीक्षं विना दैवबलं तथा । ईदृक्षान् विभवान् शक्याः प्राप्तुं ससुरखेचराः ॥ १८-३ ॥
- हरिवंशपुराण | भाषा में पं० गजाधरलाल जी ने इन्हीं प्रशंसावाक्यों को निम्न प्रकार से अनुवादित किया है
-:
“कुमार वसुदेवको परम श्रानंद हुआ उन्होंने चारुदतकी इस प्रकार प्रशंसा कर [को] कि आप उत्तम पुरुष हैं, आपकी चेष्टा धन्य है उदारता भी लोकोत्तर है अन्य पुरुषों के लिये
* यथाः - चारुदत्तः सुधोश्वापि भुक्त्वा भोगान्स्वपुण्यतः । समाराध्यजिनेंद्रोक्तं धर्मं शर्माकर चिरं ॥ ६२॥
ततो वैराग्यमासाद्य सुन्दर राख्यसुताय च ।
दत्वा श्रेष्ठपदं पूतं दीक्षां जैनेश्वरीं श्रितः ॥ ६३ ॥
- नेमिदत कथाकोश ।
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
वेश्याओं से विवाह । सर्वथा दुर्लभ यह प्रापका पुण्यबल भी अचिन्त्य है ॥११-१२॥ विना भाग्य के ऐसा पौरुष होना अति कठिन है ऐसे उत्तमोत्तम भोगों को मनुष्यों की तो क्या बात सामान्य देव विद्याधर भी प्राप्त नहीं कर सकते"। ___ और हरिवंशपुगण के २१वें सर्ग के अन्त में श्रीजिनसेना चार्य ने चारुदतजीको भी वसुदेवकी तरह रूप और विज्ञान के सागर तथा धर्म अर्थ कामरूपी त्रिवर्ग के अनुभवी अथवा उसके अनभवसे संतुष्टचित्त प्रकट कियाहै, और इस तरह पर दोनों को एक ही विशेषणों द्वारा उल्लेखित कियाहै यथाः
इत्यन्योन्यस्वरूपज्ञा रूपविज्ञानसागराः । त्रिवगानुभवप्रीताश्चारुदत्तादयः स्थिताः ॥१८॥ इन सब बातो से यह स्पष्ट जाना जाता है कि चारुदत्त अपने कुटुम्बीजनों, पुरजनों और इतरजनों में से किसी के भी द्वारा उस वक्त तिरस्कृत नहीं थे और न कोई उनके व्यक्तित्व को घणाकी दृष्टिसे देखता था। इसी से लेखक ने लिखा था कि "उस समय की जाति-बिरादरी ने चारुदत्त को जाति से च्यत अथवा बिरादरी से खारिज नहीं किया और न दुसराही उसके साथ कोई घृणाका व्यवहार किया गया।" परन्तु समा. लोचक जी अपने उक्त दूषित अनुमानके भरोसे पर इसे सफेद झूठ बतलाते है और इसलिये पाठक उक्त संपूर्ण कथन पर से उनके इस सफेद सत्य का स्वयं अनुमान कर सकते हैं और उसका मूल्य जाँच सकते हैं।
अब पहिली बात पर कीगई आपत्तिको लीजिये । समालोचक जी की यह अापत्ति बड़ी ही विचित्र मालूम होती है! श्राप यहाँ तक तो मानते हैं कि चारुदत्त का बसंतसेना वेश्या के साथ एक व्यसनी जैसा सम्बन्ध था, बसन्तसेना भी
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
विवाह- क्षेत्र प्रकाश ।
बारुदस पर शासक थी और उसके प्रथम दर्शन दिवस से ही यह प्रतिज्ञा किए हुए थी कि इस जन्म में मैं दूसरे पुरुष से संभोग नहीं करूंगी, चारुदत्त उससे लड़भिड़ कर या नाराज़ होकर विदेश नहीं गया बल्कि वेश्या की माता ने धन के न रहने पर जब उसे अपने घर से निकाल दिया तो वह धन कमाने के लिये ही विदेश गया था; उसके विदेश जाने पर वसन्तसेना ने अपनी माता के बहुत कुछ कहने सुनने पर भी, किसी दूसरे धनिक पुरुष से अपना सम्बन्ध जोड़ना उचित नहीं समझा और अपनी माता को यही उत्तर दिया कि चारुदत्त मेरा कुमार कालका पति है मैं उसे नहीं छोड़ सकती, उसे छोड़ कर दूसरे कुबेर के समान धनवान पुरुष से भी मेरा कोई मतलब नहीं है, और फिर अपनी माता के घर का ही परित्याग कर वह चारुदत्त के घर पर जा रही और उस की मातादिक की सेवा करती हुई चारुदत्त के आगमन की प्रतीक्षा करने लगी; साथ ही, उसने एक श्रार्थिका से श्रावक के व्रत लेकर इस बात की और भी रजिरी कर दी कि वह एक पतिव्रता है और भविष्य में वेश्यावृत्ति करना नहीं चाहती। इसके बाद चारुद जी विदेश से विपुलधन-सम्पत्ति के साथ घापिस आए और वसन्तसेना के अपने घर पर रहने आदिका सब हाल मालूम करके उससे मिले और उन्होंने उसे बड़ी खुशी के साथ अपनाया - स्वीकार किया । परन्तु यह सब कुछ मानते हुए भी, आपका कहना है कि इस अपनाने या स्वीकार करनेका यह अर्थ नहीं है कि चारुदत्त ने वसन्तसेनाको स्त्री रूपसे स्वीकृत किया था या घर में डाल लियाया बल्कि कुछ दूसरा ही अर्थ हैं, और उसे अपने निम्न दो वाक्यों द्वारा सूचित किया हैं(१) 'वारूदत्तने उपकारी और व्रतधारण करनेवाली समझ कर ही वसन्तसेना को अपनाया था
-
73
४४
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
वेश्याओं से विवाह ।
४५
(२) "असल बात यह है कि वसन्तसेना सेवा सुश्रूषा करने के लिये आई थी, और चारुदत्त ने उसे इसी रूप में अपना लिया था ।"
इन में पहले वाक्य से तो अपनाने का कोई विसरश अर्थ स्पष्ट नहीं होता है। हाँ, दूसरे वाश्यसे इतना जरूर मालम होता है कि आपने वसन्तसेना का स्त्रीसे भिन्नसेवा सुश्रषा करन घाली के रूपमें अपनाने का विधान किया है अथवा यह प्रतिपादन किया है कि चारुदत्त ने उसे एक खिदमतगारनी या नौकरनी के तौर पर अपने यहां रक्खा था। परन्तु रोटी बनाने, पानी भरने, बर्तन मांजने, बुहारी देने, तैलादि मर्दन करने, नहलाने, बच्चों का खिलान या पंखा झालन श्रादि किस सेवा सुश्रूषा के काम पर वह वेश्यापुत्री रक्खी गई थी, इस का श्रापन कहीं पर भी कोई उल्लेख नहीं किया और न कहीं पर यही प्रकट किया कि चारुदत्त, अमुक अवसर पर, अपनी उस चिरसंगिनी और चिरभुक्ता वेश्या से पुन: संभोगन करने या उससे काम सेवा न लेने के लिये प्रतिज्ञावद्ध होचुकेथे अथवा उन्होंने अपनी एक स्त्रीका ही व्रत ले लिया था। यही आपकी इस आपत्तिका सारा रहस्य है, और इसके समर्थनमें आपने जिनसेनाचार्य के हरिवंशपुगणसे सिर्फ एक श्लोक उद्धृत किया है, जो आपके हो अर्थ के साथ इस प्रकार है:तांसु[ शुश्रूषाकरी[ ] स्वसूःश्वश्रवाः] आयांतेव्रत संगता। श्रुत्वा वसंतसनां च प्रतिः [पीतः ] स्वीकृतवानहम् ।।"
"ब्रैकट में जो रूप दिये है वे समालोचक जी के दिये हुए उन अक्षरों के शुद्ध पाठ हे जो उन से पहले पाये जाते हैं। +इस का जगह “ सदणव्रत संगताम्" ऐसा पाठ देहली के नये मंदिर की प्रति में पाया जाता है।
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषाह-क्षेत्र-प्रकाश। ___ "अर्थ-वेश्या वसन्तसैना अपनी मांका घर परित्यागकर मेरे घर प्रोगई थी। और उसने अर्जिकाके पास जा श्रावकके वन धारण कर मेरी माँ और स्त्रीको पूर्ण सेवाकी थी इसलिये मैं उससे भी मिला उसे सहर्ष अपनाया।"
पं० दौलतरामजी ने अपने हरिवंशपुराणमें, इस श्लोककी भाषा टीका इस प्रकार दी है :
"और वह कलिंगसेना धेश्याकी पुत्री वसंतसेना पतिव्रता मेरे विदेश गए पीछे अपनी माताका घर छोडि पार्यानिके निकट श्रावकवत अंगीकार करि मेरो मातानिके निकट प्राय रही। मेरी माताकी पर स्त्रीकी वान अति सेवा करी । सो दोऊहीं बाते प्रतिप्रसन्न भई । अर जगतिमें बहुन पाका जस भयो सो मैं अति प्रसन्न होय वाहि अंगीकार करता भया।" ।
यह श्लोक चारुदत्तजोने. वसदेवजीको अपना पूर्व परिचय देते हुए, उस समय कहा है जबकि गंधर्वसेनाका विवाह हो चुका था और चारुदत्तको विदेशमे चम्पापरी वापिस पाए बहुतसे दिन बीत चुके थे-गंधर्व विद्याके जानकर विद्वानोंकी महीने दर महीने की कई सभाएं भी हो चुकी थी।
इस संपूर्ण वस्तुस्थिति, कथनसम्बन्ध और प्रकरण परसे, यद्यपि, यही ध्वनि निकलती है और यही पाया जाता है कि चारुदत्तने वसन्तसेनाको अपनी स्त्री बना लिया था, और कोई
मल श्लोकके शब्दों परसे उसका स्पष्ट और संगत अर्थ सिर्फ इतना ही होता है :'और वसंतसेनाके विषयमें सासको (मेरी माताकी) सेवा
करने तथा प्रायिकाके पाससे व्रत ग्रहण करने का हाल सुनकर मैंने प्रसन्नतापूर्वक उसे स्वीकार कियाअंगीकार किया।
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
वेश्यांत्रों से विवाह
भी सहदय विचारशील इस बातकी कल्पना नहीं कर सकता कि चारुदसने घसंतसेनाको, उससे काम सेवाका कोई काम न देते हुए, केवल एक खिदमतगारिनी या नौकरनीके तौर पर अपने पास रक्खा होगा -ऐसी कल्पना करना उस सद्विचारसम्पन्नाके साथ न्याय न करके उसका अपमान करना है। फिर भी समालोचकजीकी ऐसीही विलक्षण कल्पना जान पड़ती है। इसीसे आप अपनीही बात पर जोर देते हैं और उसका प्राधार उक्त श्लोक को बतलाते हैं। परन्तु समझ नहीं आता उक्त श्लोकमे ऐसी कौनसी बात है जिसका आप श्राधार लेते हो अथवा जिससे आपके अर्थका समर्थन हो सकता हो। किसी भी विरुद्ध कथनके साथ न होते हुए, एक स्त्रीको अंगीकार करने का अर्थ उसे स्त्री बनाने के सिवाय और क्याहो सकता है? क्या 'स्वीकृतवान्' पदसे पहले 'स्त्रीपेण' ऐसा कोई पद न होनेसे ही भाप यह समझ बैठे हैं कि वसंतसेना की स्त्रीरूपसे स्वीकृति नहीं हुई थी या उसे स्त्रीरूपसे अंगीकार नहीं किया गया था ? यदि ऐसा है तो इस समझपर सहस्र धन्यवाद हैं? जान पड़ता है अपनी इस समझके भरोसे परही आपने श्लोकमें पड़े हुए 'श्वश्रवाः' पदका कोई खयाल नहीं किया और न 'स्वीकृति' या 'स्वीकार' शब्दके प्रकरणसंगत अर्थ पर ही ध्यान देनेका कुछ कष्ट उठाया !! श्लोक 'श्वश्रवाः' पद इस बातको स्पष्ट बतला रहा है कि चारुदत्त ने वसुदेवसे बातें करते समय अपनी माताको वसन्तसेनाकी 'सास' रूपसे उल्लेखित किया था और इसले यह साफ जाहिर है कि वसुदेव के साथ वार्तालाप करने से पहले चारुदत्तका वसंतसेनाके साथ विवाहको चका था। स्वीकरण, स्वीकृति, और स्वीकार शब्दो का अर्थ भी विवाह होता है इसीसे वामन शिवराम ऐप्टेने अपने कोश में इन शब्दोंका अर्थ Espousul, wedding तथा marriage
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
-----
-
--
--
-
विवाह-क्षेत्र प्रकाश। भी दिया है और इसी लिये उक्त श्लोकमे ' स्वीकृतवाम' से पहले 'स्त्रीरूपेण' पदकी या इसी प्राशय को लिये हुए किसी दूसरे पदके देनेको काई जरूरत नहीं थी-उसका देना व्यर्थ होता। स्वयं श्रीजिनसेनाचार्यने अन्यत्र भी, अपने हरिवंशपुराण में, 'स्वीकृत' को विवाहित (ऊढ )' अर्थ में प्रयुक्त किया है, जिसका एक स्पष्ट उदाहरण इस प्रकार है :
* यागकर्मणि निवृत्ते सा कन्या राजसनुना । स्वीकृता तापसा भपं भक्तं कन्याथेमागताः॥३०॥ कौशिकायात्र तैस्तस्यां याचितायां नपोऽवदत् । कन्या सोढा कुमारेण यानेत्युक्तास्तुतं ययुः।।३१।।
-२६ वाँ सर्ग। ये दोनों पद्य उस यज्ञप्रकरण के हैं जिसमें राजा अमोघदर्शन ने रंगसेना वेश्याकी पत्री 'कामपताका' वेश्या का नत्यकरोया था और जिसे देखकर कौशिक ऋषि भी क्षभित ही गये थे। इन पद्यों में बतलाया है कि 'यज्ञकर्म के समाप्त होने पर उस (कामपताका ) कन्या को राजपुत्र ( चारुचंद्र ) ने स्वीकार कर लिया । ( इसके बाद ) कुछ तापस लोग कन्या के लिये भक्त राजा के पास आए और उन्होंने 'कौशिक' के
*जिनदास ब्रह्मवारीके हरिवंशपुराण में भी 'स्वीकृत' को 'ऊ' ( विवाहित ) अर्थ में प्रयुक्त किया है। यथा :
ततः कदाचित्सा कन्या स्वीकृता राजलनना । तापसास्तेपिकन्यार्थ नपपावं समागताः॥३०॥ प्रार्थितायां नृपोवादीत्तस्यां सोढा विधानतः। कुमारेण ततो यूयं यात स्वस्थानमुत्सकाः॥३१॥
'-१०वां सर्ग।
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
वेश्याओंसे विवाह । लिये उसकी याचना की। इस पर राजाके इस उतरको पाकर कि 'वह कन्या तो राजपत्रने विवाह ली है' वे लोग चलेगये।
इस उल्लेख परसे स्पष्ट है कि श्रीजिनसेनाचार्य ने पहले पद्यमें जिस बातके लिये 'स्वीकृता' पदका प्रयोग किया था उसो बातको अगले पद्य ने 'ऊहा' पदसे ज़ाहिर किया है, जिससे 'स्वीकृता' (स्वीकार कर ली) और 'ऊढा' (विवाह ली) दोनों पद एक ही अर्थक वाचक सिद्ध होते हैं । पं० दौलतगमजी ने 'स्वीकृता' का अर्थ 'अङ्गीकार करी' और 'ऊढा' का अर्थ 'परी' दिया है । और समालोचकजीके श्रद्धास्पद पं० गजाधरलालजी ने, उक्तपद्योंका अर्थ देतेहुए,'म्बीकृता'को तरह 'ऊढा'का अर्थ भी 'स्वीकार करली' किया है और इस तरह पर यह घोषित कियाहै कि ऊढा (विवाहिता और 'स्वीकृता दोनो एकार्थवाचक पद हैं।
ऐसी हालतमें यह बात बिलकुल निर्विवाद और निःसन्देह जान पड़ती है कि चारुदत्तने वसन्तसेना वेश्याके साथ विवाह किया था--उसे अपनी स्त्री बनाया था और उसी बातका उल्लेख उनकी तरफसे उक्त लोकमें किया गया है। और इस लिये उक्त श्लोकमें प्रयुक्त हुए "स्वीकृतवान्" पदका स्पष्ट अर्थ "विवाहितवान्" समझना चाहिये।
खेद है कि,इतना स्पष्ट मामला होतेहुए भी, समालोचकजी, लेखकके व्यक्तित्वपर श्राक्षेप करते हुए, लिखतहे-- "चारुदत्तने वसन्तसैनाको घरम नहीं डाल लिया था और न उसे स्त्री रूपसे स्वीकृत किया था, जैसाकि बाबू साहबने लिखा है । यह दाना बाते शास्त्रों में नहीं हैं न जाने बाबू साहबने कहाँसे लिखदी है बाबू साहबकी यह पुरानी आदत है कि जिस बातसे अपना मतलब निकलता देखते हैं उसी बातको अपनी ओरसे मिलाकर झट लोगोको धोखमें डाल देते हैं।"
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
विवाह-क्षेत्र प्रकाश। ~~~~~~~~~~~
समालोचकजीके इस लिखनेका क्यामूल्य है,और इसके द्वारा लेखकपर उन्होंने कितना झूठा तथा नीच आक्षेप किया है, इसे पाठक अब स्वयं समझ सकते हैं। समझमें नहीं प्राता कि एक वेश्यासे विवाह करने या उसे स्त्री बना लेनेकी पुरानी बातको मान लेने में उन्ह क्यों संकोच हश्रा और उसपर क्यों इतना पाखंड रचा गया?वेश्याप्रोसे विवाह करलेनेकेतो और भी कितने ही उदाहरण जैनशास्त्रों में पाये जाते हैं, जिनमेंसे 'कामपताका' वेश्या का उदाहरण ऊपर दिया ही जा चुका है।
और *पण्यानव' कथाकोशमें लिखा है कि 'पंचसगंधिनी' वेश्याकी किन्नरी' और 'मनोहरी' नामकी दो पुत्रियाँ थी, जिनके साथ अयंधरके पुत्र प्रतापंधर अपरनाम 'नागकुमार' ने, पिताकी श्राक्षासे, विवाह किया था+ ये नागकुमार जिनपूजन किया करतेथे, उन्होंने अन्तको जिनदीक्षा ली और ये केवलज्ञानी होकर मोक्ष पधारे। उनकी इस कृतिसे-अर्थात, साक्षात
*यह पुण्यास्रव कथाकोश केशवनन्दि मुनिके शिष्य रामचन्द्र मुमुलका बनाया हुश्रा है। इसका भाषानुवाद पं० नाथूरामजी प्रेमाने किया है और वह सन१६०७ में प्रकाशितभी होचुका है।
+ यथा-"एकदा राजास्थानं पंचसगंधिनीनामवेश्या समागत्य भूपं विज्ञापयतिस्म देव ! मे सुते द्वे किन्नरी ममोहरी च वीणावाधमदगर्विते नागकुमारस्यादेशं देहि तयोवाच परीक्षितुं .......तेचात्यासक्ते पितृवचनेन परिणीतवान प्रतापंधरः सुखमास ।"-इति पुण्यात्रवः ।
x"...प्रतापंधरोमुनिश्चतुःषष्ठिवर्षाणि तपश्चकार कैलासे केवली जझे।"-इति पुण्यात्रवः ।
अर्थात-प्रतापंधर (नागकुमार ) ने मुनि होकर ६४ वर्ष तप किया और फिर कैलासपर्वत पर केवल ज्ञानको प्राप्त किया।
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
वेश्याप्रोसे विवाह
व्यभिचारजात वेश्या-पुत्रियों को अपनी स्त्री बना लेनेसे-जैनधर्मको कोई कलंकानहीं लगा,जिसके लगजानेकी समालोचक जीने समालोचमाके अन्तमें आशंका की है, वे बराबर जिनपूजा करते रहे और उससे उनकी जिनदीक्षा तथा आत्मोन्नतिको चरमसीमा तक पहुंचाने के कार्य में भी कोई बाधा नहीं प्रासकी। इसलिये एक वेश्याको स्त्री बनालेना आजकल की दृष्टिसे भलेही लोक-विरुद्धहो परन्तु वह जैनधर्मके सर्वश विरुद्ध नहीं कहला सकता और न पहले ज़माने में सर्वथा लोकविरुद्ध ही समझा जाना था। आजकल भी बहुधा देशहितैषियोंकी यह धारणा पाई जाती है कि भारतकी सभी वेश्याएँ, घश्यावसिको छोड कर, यदि अपने अपने प्रधान प्रेमीकं घर बैठजायें-गहस्थधर्म में दीक्षित होकर गृहस्थन बन जायँ अथवा ऐसा बननेकेलिये उन्हें मजबूर किया जासके-और इसतरह भारतसे घेश्यावृत्ति उठजाय तो इससे भारतका नैतिकपतन रुककर उसका बहुत कुछ कल्याण हो सकता है । वे वेश्यागमन या व्यसनकी अपेक्षा एक वेश्यासे, वेश्यावृत्ति छुड़ाकर, शादी करलेने में कम पाप समझते है । और, कामपिशाचके वशवी होकर, वेश्याके द्वारपर पड़े रहने, ठोकरें खाने, अपमानित तथा पददलित होने और अनेक प्रकारकी शारीरिक तथा मानसिक यंत्रणाएँ सहते हुए अन्तको पतितावस्थामें ही मर जानेको छोरपाप तथा अधर्म मानते हैं । अस्तु ।
40Ger
कुटुम्ब में विवाह । चारुदत्तके उदाहरणको सभी प्रापत्तियोका निरसन कर अष मैं दूसरे-वसुदेवजी वाले-उदाहरण की आपत्तियों को लेता।
इस उदाहरण में सबसे बड़ी मापत्ति 'देवकीके' विवाह
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
विवाह क्षेत्र प्रकाश ।
पर की गई है। देवकी का वसुदेव के साथ विवाह हुआ, इस बात पर, यद्यपि, कोई आपत्ति नहीं है परन्तु 'देवकी रिश्ते में वसुदेव की भतीजी थी' यह कथन ही आपत्ति का खास विषय बनाया गया है और इसे लेकर खूब ही कोलाहल मचाया गया तथा ज़मीन आस्मान एक किया गया है । इस आपत्तिपर विचार करने से पहले, यहां प्रकृत आपत्ति विषयक कथनका कुछ थोड़ा सा पूर्व इतिहास दे देना उचित मालूम होता है और वह इस प्रकार
५२
:
( १ ) सन् १६.० में, लाहौर से पं० दौलतराम जी कृत भाषा हरिवंशपुराण प्रकाशित हुआ और उसकी विषय-सूची में देवकी और वसुदेव के पूर्वोत्तर सम्बन्धको निम्न प्रकार घोषित किया गया :
"वसदेवका अपने बाबाके भाई राजा सुधीरकी (पड़) पोती कंसकी बहन देवकीसं विवाह हुआ ।”
इस घोषणा के किसी भी श्रश पर उस समय आपत्ति की कहीं से भी कोई आवाज़ नहीं सुन पड़ी ।
( २ ) १७ फरवरी सन् १६१३ के जैन गजट में सरनऊ निवासी पं० रघुनाथदासजी ने, "शास्त्रानुकूल प्रवर्तना चाहिये” इस शीर्षक का एक लेख लिखा था और उस में कुछ रूढियों पर अपने विचार भी प्रगट किये थे । इस पर लेखककी ओर से " शुभ चिह्न " नाम का एक लेख लिखा गया और वह २४ मार्च सन् १९१३ के 'जैनमित्र' में प्रकाशित हुआ, इस लेख में पंडित जी के उक्त ' शास्त्रानुकूल प्रवर्तना चाहिये' वाक्य का अभिनंदन करते हुए और समाज में रूढियों तथा रस्म रिषाओं का विवेचन प्रारम्भ होने की आवश्यकता जतलाते हुए, कुछ शास्त्रीय प्रमाण पंडित जी की भेट किये गये थे और उन पर निष्पक्षभाव से विचारने को प्रेरणा भी की गई थी । उन
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुटुम्बमें विवाह । प्रमाणों में चौथे नम्बर का प्रमाण इस प्रकार थाः__“उक्त (जिनसेनाचार्यकृत ) हरिवंशपुगण में यह भी लिखा है कि घसुदेव जी का विवाह देवकी से हुश्रा । देवकी गजा उग्रसेन की लड़की और महाराज सुधीर को पड़पोती (प्रपौत्री) थी और वसुदेव जी महाराजा सर के पोते थे। सर और सुवीर दानों सगे भाई थे-अर्थात् श्रीनेमिनाथ के चचा वसुदेव जी ने अपने चचाज़ाद भाई की लड़की से विवाह किया। इससे प्रकट है कि उस समय विवाह में गोत्र का विचार वा बचाव नहीं किया जाता था। नहीं मालम परवारों में आजकल पाठ पाठ वा चोर चार साके (शाखाएँ) किस प्राधार पर मिलाई जाती है।"
इस लेख के उत्तरमें पंडितजीने दूसरालेख, वही 'शुभचिन्ह' शीर्षक डालकर, १६ जन सन १६१३ के जैनगजट में प्रकाशित कराया, उसमें इस प्रमाण के किसीभी अंशपरकोई आपत्तिनहीं कीगई और न दो श्लोकोंके अर्थपर *श्रापत्तिकरने के सिवाय, दूसरेही किसी प्रमाणको प्रमाण ठहराया गया। जैनमित्रके सम्पादक ब्रशीतलप्रसाद जीनेभी उक्त प्रमाण पर कोई आपत्ति महीकी, हालाँकि उन्होंने लेखपर दो सं० नोट भी लगाये थे।
(३) इसके छह वर्षबाद, शिक्षाप्रदशास्त्रीय उदाहरण' नं०२ के नामसे वसुदेवजीके उदाहरणका यह प्रकृत लेख लिखा गया
और अप्रेल सन १६१६ के 'सत्योदय' में प्रकाशित हुआ । उस वक्त इस लेखपर 'पद्मावतोपरवाल' के सम्पादक पं० गजाधर. लालजी न्यायतीर्थ ने अपना विस्तृत विचार प्रकट किया था और उसमें इस बातको स्वीकार कियाथा कि देषकी उग्रसेनकी
*अर्था-विषयक इस आपत्तिका उत्तर 'अर्थ-सर्थन' नामक लेखद्वारा दिया गया जो १७ सितम्बर सन १६३ के जैनमित्र में प्रकाशित भा था।
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
પછ
विवाह-क्षेत्र प्रकाश |
पुत्री और वसुदेवकी भतीजी थी। उनका वह विचार लेख श्रावण मासके 'पद्मावतीपुरवाल' अंक नं० ५ में प्रकाशित हुआ था। इसके बाद सितम्बर सन १६२० के 'जैनहितैषी' में यही लेख प्रकाशित हुआ और वहाँ से चार वर्षके बाद अब इस पुस्तकमै उद्धृत किया गया है।
26
इस तरह पर देवकी और वसुदेवके सम्बंध का यह विषय इस पुस्तक मे कोई नया नहीं है बल्कि वह समाज के चार प्रसिद्ध पत्रों और एक ग्रन्थ में चर्चा जाकर बहुत पहलेसे समाजके विद्वानोंके सामने रक्खा जा चुका है और उसकी सत्यता पर इससे पहले कोई आपत्ति नहीं कीगई श्रथवा यो कहिये कि समाज के विद्वानोंने उसे आपत्ति के योग्य नहीं समझा। ऐसी हालत में समालोचकजीका इस विषयको लेकर व्यर्थका कोलाहल मचाना और लेखकके व्यक्तित्व पर भी आक्रमण करना उनके प्रकाण्डताण्डव तथा अविचार को सूचित करता है । लेखकने देवकी के विवाह की घटनाका उल्लेख करते हुए लिखा था देवकी राजा उग्रसेनकी पुत्री, नृपभांजक वृष्टिकी पौत्री और महाराज सुवीरकी प्रपौत्री थी । वसुदेव राजा अन्धकवृष्टिके पुत्र और नूप शूरके पौत्र थे । ये नृप 'शर' और देवकीके प्रपितामह 'सुवीर' दोनों सगे भाई थे। दोनोंके पिताका नाम ' नरपति' और पितामह ( बाबा ) का नाम 'यदु' था । ऐसा श्रीजिनसेनाचार्यने अपने हरिवंशपुराण में सूचित किया है और इससे यह प्रकट है कि राजा उग्रसेन और वसुदेवजी दोनों आपस में चचाताऊज़ाद भाई लगते थे और इसलिये उग्रसेनकी लड़की 'देवको' रिशते में वसुदेवकी भतीजी (भ्रातृजा) हुई। इस देवकीसे वसुदेवका विवाह हुआ, जिससे स्पष्ट है कि इस विवाह में
I
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुटुम्बमें विवाह |
गोत्र तथा गोत्रकी शाखाओंका टालना तो दूर रहा एक वंश और एक कुटुम्बका भी कुछ खयाल नहीं रक्खा गया ।"
५५
इस कथन से स्पष्ट है कि इसमें देवकी और वसुदेवकी रिश्तेदारी का -- उनके पूर्व सम्बंध का जो कुछ उल्लेख किया गया है यह सब श्रीजिनसेनाचार्यके हरिवंशपुराण के आधार पर कियागया है। और इसलिये एक समालोचककी हैसियत से समालोचकजीको इसपर यदि कोई आपत्ति करनी थी तो वह यातो जिनसेनाचार्यको लक्ष्य करके करनी चाहिये थी--उनके कथनको मिथ्या ठहराना अथवा यह बतलाना चाहिये था कि वह श्रमुक अमुक जैनाचार्यों तथा विद्वानोंके कथनों के विरुद्ध
- और या वह इस रूपमें ही होनी चाहिये थी कि लेखकका उक्त कथन जिनसेनाचार्य के हरिवंशपुराणके विरुद्ध है, और ऐसी हालत में जिनसेनाचार्य के उनविरोधीवाक्यों को दिखलाना चाहिये था । परन्तु समालोचकजीने यह सब कुछ भी न करके उक्त कथनको "सफेद झूठ" लिखा है और उसे वैसा सिद्ध करने के लिये जिनसेनाचार्य का एक भी वाक्य उनके हरिवंशपुराण से उद्धृत नहीं किया यह बड़ी ही विचित्र बात है ! हाँ, अन्य विद्वानोंके बनाये हुए पाँडवपुराण, नेमिपुराण, हरिवंशपुराण, उत्तरपुराण, और श्राराधनाकथाकोश नामक कुछ दूसरे ग्रन्थों के वाक्य ज़रूर उद्धृत किये हैं और उन्हीं के आधार पर लेखक के कथनको मिथ्या सिद्ध करना चाहा है, यह समालोचनाकी दूसरी विचित्रता है ! और इन दोनों विचित्रताओं में समालोचकजी की इस श्रापतिका सारा रहस्य श्राजाता है । सहृदय पाठक इसपर से सहज हीमें इस बातका अनुभव कर सकते हैं कि समालोचकजी, इस आपत्तिको करते हुए, समालोचकके दायरे से कितने बाहर निकल गये और उसके कर्तव्य से कितने
-
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
५६
विवाह क्षेत्र-प्रकाश।
नीचे गिर गये है। उन्हें इतनी भी समझ नहीं पड़ी कि लेखक अपने कथनको जिनसेनाचार्यके हरिवंशपुराणके आधार पर स्थितकर रहा है और इसलिये उसके विपक्ष में दूसरे ग्रन्थों के वाक्योंको उद्धृत करना व्यर्थ होगा, उनसे वह कथन मिथ्या नहीं ठहराया जा सकता, उसे मिथ्या ठहराने के लिये जिनसेना चायके वाक्य ही पर्याप्त होसकते हैं और यदि वैसे कोई विरोधी पाक्य उपलब्ध नहीं हैं तो या तो हमें कोई आपत्तिही न करनी चाहिये और या जिनसेनाचार्यको ही अपनी भापत्तिका विषय बनाना चाहिये।
जैन कथा ग्रंथों में सैंकड़ो बातें एक दूसरे के विरुद्ध पाई जाती है, और वह प्राचार्यों प्राचार्यों का परस्पर मतभेद है। पंडित टोडरमलजी भादि के सिवाय, पं० भागचन्दजी ने भी इस भेद भाव को लक्षित किया है और नेमिपुराण की अपनी भाषाटीका के अन्त में उसका कुछ उल्लेख भी किया है *। परन्तु यहां पर हम एक बहुत प्रसिद्ध घटना को लेते हैं, और पह यह है कि सीता को उत्तरपुराण में रावण की पुत्री और पद्मपुराणादिक में राजा जनक की पुत्री बतलाया है। अब यदि कोई पुस्तक लेखक अपनी पुस्तकमे इस बात का उल्लेख
* यथाः—" यहां इतना और जानना इस पुराण की कथा [और] हरिवंशपुराणकी कथा कोई कोई मिले नाहीं जैसे हरिवंशपुराण विषैतो भगवानकाजन्म सौरीपुर कह्या और इहां द्वारिका का जन्म कहा बहुरि हरिवंश में कृष्ण तीसरे नरक गया कह्या इहां प्रथन नरक गया कह्या और भी नाम ग्रामादिक मे फेर है सो इहां भ्रम नाहीं करना । यह छमस्थ भाचार्यन के शान में फेर पर्या है। "-नेमिपुराण भाषा नानौताके एक मंदिर की प्रति ।
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुटुम्बमें वियाह । करे कि 'श्रीगुणभद्राचार्य प्रणीत उत्तरपुराण के अनुसार सीता रावण की बेटी थी' तो क्या उस पुस्तक की समालोचना करते हुए किसी भी समालोचक को ऐसा कहने अथवा इस प्रकार की आपत्ति करने का कोई अधिकार है कि पुस्तककार का वह लिखना झूठ है, क्योंकि पद्मपुराणादिर्क दूसरे कितने ही प्रन्थों में सीता का राजा जनक की पुत्री लिखा है? कदापि नहीं। उसे उक्त कथन को झूठा बतलाने से पहले यह सिद्ध करना चाहिये कि वह उस उत्तरपाण में नहीं है जिस का पुस्तक में हवाला दिया गया है, अथवा पस्तककार पर झूठ को प्रारोप न करके, उस विषय में, सीधा उत्तरपुराणके रचयिता पर ही आक्रमण करना चाहिये। यदि वह ऐसा कुछ भी नहीं करता बल्कि उस पुस्तककार के उक्त कथनको मिथ्या सिद्ध करने के लिये पद्मपुराणादि दूसरे प्रन्यों के अवतरणों को ही उधत करता है तो विद्वानो की दृष्टि में उस की वह कृति (समालोचना ) निरी अनधिकार चर्चा के सिवाय और कुछ भी महत्व नहीं रख सकती और न उसके उन अवतरण का ही कोई मूल्य हो सकता है। ठीक यही हालत हमारे समालोचकजी और उनके उक्त अवतरणों ( उद्धृत वाक्यो) को समझनी चाहिये। उन्हें या तो लेखक के कथन के विरुद्ध जिनसेनाचार्य के हरिवंशपराण से कोई वाक्य उधत करके बतलाना चाहिये था और या वैसे (चचा भतीजा जैसे) सम्बन्ध-विधान के लिये जिनसेनाचार्य पर ही कोई प्राक्षेप करना चाहिये था ; यह दोनों बाते न करके जो आपने, लेखक के कथनको असत्य ठहराने के लिये, पाण्डवपुराणादि दूसरे ग्रन्थों के वाक्य उधत किये हे वे सब असंगत, गैरमुताल्लिक
और पाप की अनधिकार चर्चा का ही परिणाम जान पड़ते हैं, सद्विचार-सम्पन्न विद्वानों की दृष्टि में उन का कुछ भी
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
·
પદ
विवाह- क्षेत्र प्रकाश ।
मूल्य नहीं है, वे समझ सकते हैं कि ऐसे अप्रस्तुत गैरमुताल्लिक ( irrelevant ) हज़ार प्रमाणों से भी लेखकका वह उल्लेख असत्य नहीं ठहराया जासकता । और न ये दूसरे ग्रन्थोंके प्रमाण, जिनके लिये समालोचना के ७ पेज रोके गये हैं कथंचित् मतभेद अथवा विशेष कथन को प्रदर्शित करने के सिवाय, जिनसेनाचार्य के वचनों पर हो कोई आपत्ति करने के लिये समर्थ हो सकते हैं; क्योंकि ये सब ग्रन्थ जिनसेनाचार्य-प्रणीत हरिवंशपुराण से बाद के बने हुए हैं - जिनसेन का हरिवंशपुराण शक सं० ७०५ में, उत्तरपुराण शक सं० ८२० में, काष्ठासंत्री भट्टारक यशः कीर्तिका प्राकृत हरिवंशपुराण वि० सं० १५०० में और शुभचन्द्र भट्टारकका पाण्डवपुराण वि०सं०१६०८ में बनकर समाप्त हुआ: बाकी ब्रह्मनेभिदस्तके नेमिपुराण और श्राराधनाकथाकोश तथा जिनदास ब्रह्मचारीका हरिवंशपुराण ये सब ग्रन्थ विक्रम की प्रायः १६वीं शताब्दी के बने हुए हैंऐसी हालत में, इन ग्रन्थों का जिनसेनके स्पष्ट कथन पर कोई असर नहीं पड़ सकता और न, प्राचीनताको दृष्टि से, इन्हें जिनसेन के हरिवंशपुराण से अधिक प्रामाणिक ही माना जा सकता है। इन में उत्तरपुराण को छोड़कर शेष ग्रन्थ तो बहुत कुछ आधुनिक हैं, भट्टारको तथा * भट्टारक शिष्यों के रचे हुए हैं और उन्हें जिनसेन के हरिवंशपुराण के मुकाबले में काई महत्व नहीं दिया जा सकता। रहा उत्तरपुराण, उसके कथन से यह मालूम नहीं होता कि देवकी और वसुदेव में चचा भतीजी का सम्बन्ध नहीं था, बल्कि उस सम्बन्ध का होना ही अधिकतर पाया जाता है, और इस बात को श्रागे
.
* ब्रह्मनेभिदत्त भट्टारक मल्लिभपण के और जिनदास ब्रह्मचारा भट्टारक सकलकीर्त्ति के शिष्य थे ।
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुटम्बमें विवाह।
પક
चलकर स्पष्ट किया जायगा । साथ ही, उत्तरपुराण और जिन. सेन के हरिवंशपुराण की सम्मिलित रोशनी से दूसरे प्रमाणों पर भी यथेष्ट प्रकाश डाला जायगा। यहांफर, इसवक्त मैं यह बतला देना चाहता हूँ कि समालोचकजीने लेखकको सम्बोधन करके उसपर यह कटाक्ष किया है कि वह पं० गजाधरलालजी के भाषा किये हुए हरिवंशपुराण के कछ अगले प्रष्टोको यदि पलटकर देखता तो उसे पता लगजाता कि उसके ३३६ वे पृष्ठकी २४ वीं लाइनमें स्पष्ट लिखा है कि"रानी नन्दयशा इस दशाण नगरमें देवसेनकी धन्या
नामक स्त्रीसे यह देवकी उत्पन्न हुई है।" घेशक, समालोचकजी! लेखकको इस भाषा हरिवंशपुराण के पृष्टीको पलटकर प्रकृत पृष्ठको देखनेका कोई अवसर नहीं मिला । परन्तु अब आपकी सचनाको पाकर जो उसे देखा गया तो उसमें बड़ीही विचित्रताका दर्शन हुआ है। वहाँ पं० गजाधरलालजी ने उक्त वाक्यको लिये हुए, एक श्लोकका जो अनुयाद दिया है वह इस प्रकार है :
"और गनी नंदयशाने उन्हीं पुत्रों की माता होने का तथा रेवती धायने उनकी धाय होने का निदान बाँधा। सो ठोकही है ---पुत्रों का स्नेह छोड़ना बड़ा ही कठिन है। इसके बाद वे सब लोग समीचीन तपके प्रभावसे महाशक स्वर्गमे सोलहासागर श्रायुके भाक्ता देव हुये। वहाँसे श्रायके अन्त में चयकर शंख का जीव गहिणीसे उत्पन्न बलभद्र हुआ है। रानी नंदयशा श्रेष्ठ इस दशाण नगरमें देवसंनकी धन्या नामक स्त्रीसे यह देवको उत्पन्न हुई है और धाय भद्रिलसा नगरमें सुदृष्टी नामक सेठकी अलका नामकी स्त्री हुई है।१६७॥"
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
विवाह क्षत्र- प्रकाश ।
यह जिनसेनके 'जिस मूल श्लोक नं० १६७ का अनुवाद किया गया है वह हरिवंशपुराणके ३३वें सर्गमें निम्नप्रकार से पाया जाता है ::―
६०
" धात्री मानुष्यकं प्राप्ता पुरे भविलसाहये । सुदृष्टिश्रेष्टो भार्या वर्तते ह्यलकाभिधा || "
कोई भी संस्कृतका विद्वान इस लोकका वह अनुवाद नहीं कर सकता जोकि पं० गजाघरलालजी ने किया है और न इसका वह कोई भावार्थ ही होसकता है। इस श्लोक का सीधा सादा आशय सिर्फ इतनाही होता है कि 'वह धाय ( रेवती ) मनुष्य जन्मको प्राप्त हुई इस समय भद्विलसा नामक नगर में सेठ सुद्दष्टिकी अलका नामकी स्त्री है।' और यह आशय उक्त अनुवादके अन्तिम वाक्य में श्राजाता है, इसलिये अनुवादका शेषांश, जिसमें समालोचकजीका बड़े दर्पके साथ प्रदर्शित किया हुआ वह वाक्यभी शामिल है, मूल ग्रन्थ से बाहर की चीज जान पड़ता है । मूलग्रन्यमें, इस श्लोक से पहले या पीछे, दूसरा कोई भी श्लांक ऐसा नहीं पाया जाता जिसका श्राशय 'रानी नंदयशा' से प्रारंभ होनेवाला उक्तवाक्य होसके * | इस श्लोक से पहले "कुर्वन्निर्नामिकस्तीव" नामका पद्य और बादको गंगाद्या देवकी गर्भे' नामका पद्य पाया जाता है, जिन दोनोंका अनुवाद, इसी क्रमसे -- उक्त अनुवादसे पहले पीछे- - प्रायः ठीक किया गया है। परंतु उक्त पद्य अनुवाद में बहुतसी बातें ऊपर से मिलाई गई हैं, यह स्पष्ट हैं; और इस प्रकारकी मिलावट औरभी सैंकड़ों पद्यां के अनुवाद में पाई जाती है। जो न्यायतीर्थ गजाधरलालजी
* देखो देहलीके नये मंदिर और पंचायती मंदिरके हरिवंशपुराणकी दोनों प्रतियोंके क्रमशः पत्र नं० २०७ और १५१ ।
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुटुम्बमें विवाह । पं० दौलतरामजीकी भाषाटीका पर आक्षेप करते हैं वे स्वयंभी ऐसा गलत अथवा मिलावटको लिये हुए अनुवाद प्रस्तुत कर सकते हैं यह बड़े ही खेदका विषय है ! पं० दौलतरामजीने तो अपनी भाषा वचनिकामें इतनाही लिखा है कि "राणी नंदिय. साका जीव यह देवकी भई" और वह भी उक्त पद्यकी टोकामें नहीं बल्कि अगले पच की टीकाम वहाँ उल्लेखित 'देवकी' का पूर्वसम्बंध व्यक्त करने के लिये लिखा है x परन्तु गजाधरलालजी ने इसपर अपनी ओरसे देवकीके माता पिता और उत्पत्ति स्थानके न.मोकी मगजी भी चढादी है, और उसमें दशार्ण नगरसे पहले उनका 'इस' शब्द का प्रयोग और भी ज्यादा खटकना है; क्योंकि देवकी और वसुदेवजीसे यह सब कथा कहते हुर अतिम कक मुनि उस समय दशाण गरमें उपस्थित नहीं थे बल्कि मथगके पासके सहकार वनमें उपस्थित थे इसलिये उनकी पोरसे 'इस' श्राशय के शब्द का प्रयोग नहीं बन सकता। परन्तु यहाँपर अनुवाद की भले प्रकट करना कोई इष्ट नहीं है: मैं इस कथन परसे सिर्फ इतनाही यतलाना चाहता हूं कि जिस घातको समालोच जाने बड़े दर्पके साथ लेखकको दिखलाना चाहा था उसमें कुलभो सार नहीं है । वह जिनसेनाचार्य के हरिवंशपुराणसे बाहर की चीज है और इसलिय उसके आधार पर कोई आपत्ति नहीं की जासकती। समालोचकजीके सामने
+देखा गजाधरलाल जीके भाषा हरिवंशपुराणकी प्रस्तावना का पृष्ठ नं० २।
___x यथाः-तहाँ ते चयकरि रेवती धायका जीव भहलपर विषै सुहाटे नामा सेठकै अल्का नामा स्त्री है ॥ ६७ ॥ अर राणी नंदियसाका जीव यह देवकी भई ताकै वे गंगदेव आदि पूर्वले पुत्र स्वगत चयकरि याजन्मविषै भी पुत्र होइंगे॥" १६ ॥
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
विवाह क्षेत्र प्रकाश ।
जिनसेनका हरिवंशपुराण मौजूद था - उन्होंने उसके कितने ही वाक्य समालोचनामें दूसरे श्रवसरोंपर उद्धृत किये हैं-बे स्वयं इस बातको जानते थे कि पं० गजाघरलालजीने जो बात अनुवाद में कही है वह मूलमें नहीं है – यदि मूल में होती तो वे सबसे पहले कूदकर उस मूलको उद्धृत करते और तब कहीं पीछे से अनुवाद का नाम लेते - फिरभी उन्होंने गजाधरलालजी के मिथ्या अनुवादको प्रमाण में पेश किया. यह बड़ेही दुःसाइसकी बात है । उन्हें इस बातका जराभी खयाल नहीं हुआ कि जिस धोखादेहीका में दूसरों पर झूठा इलजाम लगा रहा हूँ उसका अपनी इस कृतिसं स्वयंही सचमुत्र अपराधी बना जारहा हूं और इसलिये मुझे अपने पाठकों के सामने 'उसी * हरिवंशपुराण' या '+ जिनसेन' के नामपर ऐसी मिथ्या बासको रखते हुए शर्म श्रानी चाहिये । परन्तु जान पड़ता है समालोचकजी सत्य अथवा असलियत पर पर्दा डालने की धुन में इतने मस्त थे कि उन्होंने शर्म और सद्विचारको उठाकर एकदम बोलाए ताक रख दिया था, और इसीसे वे ऐसा दुःसाहस कर सके हैं।
हम समालोचकजीसे पूछते हैं कि आपने तो पं० गजाधरलालजी भाषा किये हुये हरिवंशपुराणके सभी पत्रों को खूब उलट पलट कर देखा है तब आपको उसके ३६५६ पृष्ठ पर ये पंक्तियाँ भी जरूर देखनेको मिली होगी जिनमें नवजान बालक कृष्ण को मथुरासे बाहर लेजाते समय वसुदेवजी और कंसके बंदी पिता राजा उग्रसेन में हुई वार्तालापका उल्लेख है:
६२
" पूज्य ! इस रहस्यका किसीको भी पता न लगे इस देवकी के पुत्र से नियमसे श्राप बंधन से मुक्त होंगे उत्तर में उग्रसेनने कहा - अहा! यह मेरे भाई देवसेनकी पुत्री
* + देखो समालोचनाका पृष्ट ३ रा और ६ठा ।
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुटुम्बमें विवाह। देवकीका पुत्र है मैं इसकी बात किसीको नहि कह सकता मेरी अंतरंग कामना है कि यह दिनोंदिन बढ़े और वैरीको इसका पता तक भी न लगे।"
इस उल्लेखद्वारा यह स्पष्ट घोषणा कीगई है कि 'देवकी' उन देवसेनकी पत्री थी जो कंपके पिता उग्रसेनके भाई थे और इसलिये उग्रसेनकी पत्री होनेसे देवकी और घसदेवमें जो चचा भतीजीका सम्बंध घटित होता है वही देवसेनकी पुत्रो होनेसे भी घटित होता है-उसमें रंचमात्रभी अन्तर नहीं पड़ता क्योंकि उग्रसेन और देवसेन दोनों सगे भाई थे। फिर देवकीके भतीजी' होनेसे क्यों इनकार किया गया ? और क्यों इस उल्लेखको छिपाया गया ? क्या इसीलिये कि इससे हमारे सारं विरोध पर पानी फिर जायगा ? क्या यह स्पष्टरूपसे मायाचारी, चालाकी और अपने पाठकों को धोका देना नहीं है ? और क्या अपनी ऐसी ही सत्कृतियों (!) के भरोसे श्राप दूसरों पर मायाचारी, चालाकी तथा धोकादेही का इलजाम लगाने के लिये मुंह ऊंचा किये हुए हैं ? आपको ऐसी नीचकृतियों के लिये घार लजा तथा शर्म होनी चाहियेथी !!
देवसेन राजा उग्रसेनके सगेभाई और वसुदेवके चचाजाद भाई थे, यह बात श्रीजिनसेनाचार्यके निम्न वाक्योंसे.प्रकटहै:--
उदियाय यदुस्तत्र हरिवंशोदयाचले । यादवप्रभवो व्यापी भूमौ भूपतिभास्करः ॥ ६॥ सुतो नरपतिः तस्मादुद्भद्भवपतिः ।। यदुस्तस्मिन्भुवं न्यस्य तपसा त्रिदिवं गतः ॥ ७ ॥ सुरश्चापि सुवीरश्च शरौ वीरौ नरेश्वरी। स तो नरपतिः राज्ये स्थापयित्वा तपोभजत् ॥ ८ ॥
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
६४
विधाह-क्षेत्र:प्रकाश।
सूरः सुवीरमास्थाप्य मथुरायाँ स्वयं कृती । स चकार कुशद्यषु पुरं सौम्यपुरं परम् ॥ ६॥ शूराश्चान्धकवृष्टयाद्याः सूरादुद्भवन्सुताः । वीरो भोजकवठ्याद्याः सुवीरान्मथुरेश्वरात् ॥ १० ॥ ज्येष्टपुत्रे विनिक्षिप्ततिनिभारो यथायथम् । सिद्धी सूरसुवीरौ तौ सुप्रतिष्ठेन दीक्षितौ ॥ ११ ॥
आसीदन्धकष्टेश्च सुभद्रा वनिनोत्तमा । पुत्रास्तस्या दशोत्पन्ना स्त्रिदशाभा दिवश्च्युताः।।१२।। समुद्रविजयोऽक्षोभ्यस्तथा स्तिमितसागरः । हिमवान्विजयश्चान्योऽचलो धारणपरणौ ॥ १३ ॥ अभिचंद्र इहाख्यातो वसुदेवश्च ते दश । दशार्हाः सुमहाभागाः सर्वेष्यन्वर्थनामकाः ॥१४॥ कुन्तीमद्री च कन्ये द्वे माये स्त्रीगुणभूषणे । लक्ष्मीसरस्वतीतुल्ये भगिन्यो वृष्टि नन्मिनाम् ॥ १५ ॥ राज्ञो भोजकवृष्टा पत्नी पद्मावती सुतान् । उग्रसेन-महासेन-देवसेनानसत सा ॥१६॥
-हरिवंशपुराण, १८वां सर्ग* | इन वाक्यों द्वारा यह सूचित किया गया है कि 'हरिवंशमें राजा 'यदु' का उदय हुआ, उसीसे यादववंशकी उत्पत्ति हुई और वह अपने पत्र 'नरपति' को पथ्यो का भार सौंप कर, तपश्चर्ण करता हुआ, स्वर्ग लोक को प्राप्त हुआ ; नरपतिके
*देखो नया मंदिर' देहली की प्रति ।
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुटुम्बमें विवाह |
६५.
'सूर' और 'सुवीर' नामके दो पुत्र हुए, जिन्हें राज्य पर स्थापित करके उसने तप लेलिया ; इसके बाद सूरने अपने भाई सुधीर को मथुरा में स्थापित करके स्वयं सौर्यपुर नगर बसाया ; सूर से 'अन्धकवृष्टि' आदि शूर पुत्र उत्पन्न हुए और मथुरा स्वामी सुवीर से 'भोजऋघृष्टि आदि वीर पुत्रों की उत्पत्ति हुई; सूर और सुबीर दोनों ने अपने अपने ज्येष्ठ पुत्र (यंत्रकवृष्टि, भोजकवृष्ठि ) को राज्य देकर सुप्रतिष्ठ मुनि दीक्षा ली श्रार सिद्धपदको प्राप्त किया: अन्धकवृष्टिकी सुभद्रा स्त्री से समुद्र विजय, अक्षोभ्य, स्तिमितसागर, हिमवान, विजय, अचल, धारण, पुरण, अभिचन्द्र, और वसुदेव नामके दस महाभाग्यशाली पुत्र उत्पन्न हुए, साथही कुन्ती और मट्टी नामकी दो कन्याएँ भी हुई और राजा भोजक वृष्टिकी पद्मावती स्त्री से उग्रसेन, महासेन और देवसेन नामके तीन पुत्र x उत्पन्न हुए । ' यही वह सब वंशावली है जिसका सार लेखकने वसुदेवजी
x समालोचकजीने, तीन पुत्रों के अतिरिक्त एक पुत्रीके भी नामोल्लेख का पृष्ट ३ पर उल्लेख किया है । परन्तु देहलीके नये मंदिरकी प्रतिमें, यहाँपर, पुत्री का कोई उल्लेख नही पाया जाता । हाँ, उत्तरपुराण में 'गांधारी' नामकी पुत्रीका उल्लेख जरूर मिलता है । परन्तु वहाँ वसुदेवके पिता और उग्रसेनके पिता दोनों को सगे भाई बतलाया है । और दोनोंके पिताका नाम शूरवीर तथा पितामहका सूरसेन दिया है । यथा :श्रवार्य निजशौर्येण निर्जिताशेषविद्विषः । ख्यातशौर्यपुराधीशसृग्मेनमहीपतेः ॥ ६३ ॥ सुतस्य शूरवीरस्य धरिण्याश्च तद्भवौ । विख्याताऽन्धकवृष्टिश्च पतिवृष्टिनरादिवाक ॥६४॥
-- ७०वाँ पर्व |
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
६६
विवाह- क्षेत्र प्रकाश 1
के उदाहरणको प्रारंभ करते हुए दिया था । उसमें 'उग्रसेन' की जगह 'देवसेन' बना देने से वह उक्त उल्लेख पर भी ज्योकी त्यों घटित हो सकती है । इस वंशावली में श्रागे समुद्र विजयादि तथा उग्रसेनादिकी संततिका कोई उल्लेख नहीं है । उसका उल्लेख ग्रन्थ में खंडरूप से पाया जाता है और उन खंड कथनों परसे ही देवकी नृप भाजकवृष्टिकी पौत्री तथा राजा मुत्री की प्रपौत्री और इसलिये वसुदेवको 'भतीजी' निश्चित होती है ।
यहाँ, उन खण्डकथनों का उल्लेख करनेसे पहले, मैं अपने पाठकों को इतना और बतला देना चाहता हूं कि, यद्यपि, भाषा हरिवंशपुराण के पृष्ट ३३६ और ३६५ वाले उक्त दोनों उल्लेखों परसे यह पाया जाता है कि पं० गजाधरलालजीने देवकीको राजा उग्रसेनके भाई देवसेन (राजा) की पुत्री बतलाया है और देवसेनकी स्त्रीका नाम 'धन्या' ( धनदेवी ) तथा उनके बासस्थानका नाम 'दशार्णपुर प्रकट किया है परन्तु उनका यह कथन सन १६१६ का है, जिस सालमें कि उनका भाषा हरिवंशपुराण प्रकाशित हुआ था। इससे करीब तीन वर्ष बाद सन १६१६ में 'पद्मावती पुरवाल के द्वितीय वर्ष के पूर्व श्रंक में 'शिक्षाप्रद शास्त्रीय उदाहरण' नांमके प्रकृत लेखपर अपना विचार प्रकट करते हुए, उन्होंने स्वयं देवकीको राजा उग्रसेन की पुत्री और वसुदेवकी भतीजी स्वीकार किया है । आपके उस विचार लेखका एक अंश इस प्रकार है
"जिस समय राजा वसुदेव यादि सरीखे व्यक्तियों का अस्तित्व पृथ्वीपर था, उस समय अयोग्य व्यभिचार नहीं था जिस स्त्रीको ये लोग स्वीकार करलेते थे उसके सिवाय अन्य स्त्रोको मा बहिन पुत्री के समान मानते थे इसलिये उस समय में देवकी और वसुदेव सरीखे विवाह भी स्वीकार कर लिये जाते थे । अर्थात्
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
कटुम्बमें विवाह ।
यद्यपि कुटुम्ब नाते राजा उग्रसेन वसुदेवके भाई लगते थे परन्तु किसी अन्य कुटुम्बसे आई हुई स्त्रोसे उत्पन्न उग्रसेनकी पत्रीका भी वसुदेवने पाणिग्रहण कर लिया था । लेकिन उसके बाद फिर ऐसा जमाना श्राता गया कि लोगों के हदयोंसे धार्मिकवासना विदा ही हो गई, लोग खास पत्री और बहिन श्रादिको भी स्त्री बनाने में संकोच न करने लगे तो गोत्र श्रादि नियमों की श्रावश्यक्ता समझी गई लोगोंने अपने में गोत्रादिकी स्थापना कर चचा ताऊजान बहिन भाईके शादीसम्बन्धको बंद किया। वही प्रथा आजतक बराबर जारी है।"
इस अवतरण से इतनाही मालम नहीं होता कि पण्डित गजाधरलालजीने देवकी को राजा उग्रसेनकी पुत्री तथा वसु. देवको उग्रसेनका कुटम्बनाते भाई स्वीकार किया है और दोनों के विवाहको उस समयको दृष्टि से उचित प्रतिपादन किया है .बल्कि यह भी स्पष्ट जान पड़ता है कि उन्होंने उस समय चचा ताऊजात बहिन भाईके शादी सम्बंधका रिवाज माना है और यह स्वीकार किया है कि उससमय विवाहमें गोत्रादिके नियमों की कोई कल्पना नहीं थी, जरूरत पड़ने पर बादको उनकी सटि कोगई और तभीसे उस प्रकार के कुटुम्ब होनेवाले-शादी सम्बंध बंद किये गये।
इस अवतरण के बाद पंडितजीने, अाजकल बैंसे विवाहोंकी योग्यता का निषेध करने हुए, यह विधान किया है कि यदि धर्मके वास्तविक स्वरूपको समझकर लोगो में धर्म की स्वाभाविक-( पहले जैसी ) प्रवत्ति हाजाय तो आजकल भी पैसे विवाहोसे हमारी कोई हानि नहीं हो सकती। यथा.---
__ "इसलिये यह बात सिद्ध है वनदेव और देवकी कैसे विवाहोंकी इस समय योग्यता नहीं । ... लेकिन हाँ यदि हम
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
विवाह क्षेत्र-प्रकाश।
इस बातकी और लीन होजाय कि जो कुछ हमारा हितकारी है वह धर्म है। हम वास्तविक धर्म का स्वरूप समझ निकले हिताहितका विवेक होजाय हमारे धार्मिक कार्य किसी प्रेरणासे न हाकर स्वभावतः हा निकले विषयलालसाको हम अपने सखका केन्द्र न समझे उस समय देवकी और वसदेव कैसे विवाहोंसे हमारी कोई हानि नहीं हो सकती।"
इस सब कथन पर से कोई भी पाठक क्या यह नतीजा निकाल सकता है कि पं० गजाधरलाल जी ने देवकी और वसुदेव के पर्व सम्बन्धक विषयमें लेखकसे कोई भिन्न बात कही है अथवा कुटुम्ब के नाते देवकी को वसुदेव की भतीजी माननेस इन्कार किया है ? कभी नहीं, बल्कि उन्होंने तो अपने लेखके अन्त में इनके विवाह को बाबत लिखा है कि वह "अयुक्त न था उस समय यह रोति रिवाज जारी थी।"
और उस की पुष्टि में अग्रवालोका दृष्टांत दिया है । फिर नहीं मालम समालोचकजी ने किस बिरत पर उनका वह 'रानी.. मन्दयशा याला वाक्य बड़े दर्प के साथ प्रमाण में प शकिया था? क्या एक वाक्यक छलस ही आप अपने पाठको को ठगना चाहत थे? भाले भाई भले ही आप के इस जाल में फंस जॉय परन्तु विशषज्ञों के सामने प्रापका ऐसा काई जाल नहीं चल सकता। समझदागे ने जिस समय यह देखा था कि अापने और जगह तो जिनसेनाचार्यकृत हरिवंशपुराण के वाक्याको उद्धृत किया है परन्तु इस मौके पर, जहाँ जिनसेन के वाक्य को उद्धत करनेको खास जरूरत थी, वैसा न करके अनघाद के एक वाक्य से काम लिया है, वे उसी वक्त ताड़ गये थे कि जरूर इसमें काई चाल है- अवश्य यहां दाल में कुछ काला है और वस्तुस्थिति ऐसी नहीं जान पड़ती। खंद है कि जो समालोचकजी, अपनी समालोचना में, पण्डित
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुटुम्बमें विवाह।
गजाधरलालजी के वाक्यों को बड़ी श्रद्धाइटिसे पेश करते हुए नजर शाते हैं उन्होंने उक्त पगिडत जी की एक भी बात मानकर नदी--न तो देवकी को राजा उग्रसेनकी लड़की माना और न उग्रसेन के भाई देवसेन की पुत्री ही स्वीकार किया ! प्रन्युत इस के, जिनसेनाचार्य के कथन को छिपाने और उस पर पर्दा डालने का भरसक यत्न किया है ! इस हठ धर्मी और बेहयाईका भी क्या कहीं कुछ ठिकाना है? जान पड़ताहै विधर्मी जनोंको कुछ कहासुनीके खयालने समालोचकजीको बुरी तरह से तंग किया है और इसी से समालोचनाके पष्ट ४ पर वे लेखक पर यह प्राक्षेप करते है कि उसने--" यह नहीं विचार किया कि इस असत्य लेखके लिखने से विधर्मीजन पवित्र जैनधर्मको कितने घणा पण दृष्टि से अवलोकन करेंगे।" ।
महाशयजी! श्राप अत्तैनी की अपने विधर्मी जनों कीचिन्ता नकीजिये, वे सब श्राप जैसे नासमझ नहीं है जो किसी रीति-रिवाज अथवा घटना-विशेष को लेकर पवित्र धर्स से भी घणा कर बैठे, उनमें बड़े बड़े समझदार तथा न्याय-निपुण लोग मौजूद है और प्राचीन इतिहास की खोज का प्रायः सारा काम उन्हीं के द्वारा हो रहा है। उन में भी यह सब हवा निकली हुई है और वे खूब समझते हैं कि पहले जमाने में विवाहविषयक क्या कुछ नियम उपनियम थे और उनकी शकल बदल कर अब क्यासे क्या होगई है। और यदि यह मान लिया जाय कि उन में भी आप जैसी समझके कुछ लोग मौजद है तो क्या उनके लिये उनकी निःसार कहा सुनी के भय से-सत्यको छोड़ दिया जाय ? सत्य पर पर्दा डाल दिया जाय ? अथवा उसे असत्य कह डालने की धष्टता की जाय ? यह कहाँका न्याय है ? क्या यही अापका धर्म है ? ऐसी ही सत्यवादिताके आप प्रेमी है ! और उसीका आपने अपनी
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
विवाह क्षेत्र प्रकाश।
समालोचनामें ढोल पीटा है ? महाराज! सत्य इस प्रकार छिपाये से नहीं छिप सकता, उस पर पर्दा डालना व्यर्थ है, श्राप जैन धर्म की चिन्ता छोड़िये और अपने दृश्य का सुधार कीजिये। जैन धर्म किमी राति-रिवाज के प्राधित नहीं हैवह अपने अटलसिद्धान्तों और अनेकान्तात्मक स्वरूपको लिये हुए वस्तुतत्व पर स्थित है-उसे कृपया अपने रीति-रिवाजोंकी दलदलमें मत घसीटिये, उसपर से अपनी कत्सित प्रवत्तियों और संकीर्ण विचारोंका आवरण हटाकर लोगों को उसके नग्मस्वरूपका दर्शन होने दीजिये, फिर किसीकी ताब नहीं कि कोई उसे घृणाकी दृष्टि से अवलोकन कर सके।
और इस देवकी-वसुदेवके सम्बंध पन ही आप इतने क्यों उद्विग्न होते है? यह चचा भतीजीका सम्बंध तो कई पीढ़ियोको लिये हुए है-देवकी वसुदेवकी सगी भतीजो नहीं थी, सगी भतीजी तब होती जब समुद्र विजयादि घसदेघ के सगे भाइयों में से वह किसीकी लड़को होती-परन्तु आप इससे भी करीबी सम्बन्धको लीजिये, और यह राजा अग्रसेनके पोते पोतियों का सम्बंध है। कहा जाता है कि अग्रवाल वंशकी, जिन राजा अग्रसेनसे उत्पत्ति हुई है उनके १८ पत्रथे । इन पत्रों का विवाह नो राजा अग्रसेन ने दूसरे राजाओकी राजकन्याओं से कर दिया था परन्तु राजा अगमनकी युद्ध में मत्य होने के साथ उनका राज्य नष्ट होजाने के कारगा जब इन गज्यभ्रष्ट १८ भाइयों को अपनी अपनी संततिके लिये योग्र विवाहसंबंध का संकट उपस्थित हुवा नो इन्होंने अपने पिता पूज्य गुरू पतंजलि और मंत्रीपुर्नाके परामर्शसे अपने में १८ (एक प्रकारसे १७॥) गोत्रोंकी कल्पना करके आपसमें विवाहसंबध करना स्थिर किया--अर्थात्, यह ठहराव किया कि अपना गोत्र बचा कर दूसरे भाई की संततिसे विवाह करलिया आय.-औरतदन
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुटुम्बमें विधाह। सार एक भाई के पुत्र-पुत्रियोंका दूसरेभाई के पुत्रपुत्रियों के साथ विवाह होगया अथवा यो कहिये कि सगे चचा-ताऊजाद भाई बहनों का श्रापसमें विवाह होगया। इसके बाद भी कुटम्ब तथा वंशमें विवाह का सिलसिला जारी रहा-कितने ही भाई-पहनी तथा चच्चा-भताजियोंका श्रोपसमें धियाह हुमा-और उन्हीं विवाहोंका परिणाम यह अाजकलका विशाल अग्रवाल वंश है, जिसमें जैन और लाजैन दोनों प्रकार की जनता शामिल है।
और इससे अजैनों के लिये जैनोंके किसी पुगने कौटाम्बिक विवाह पर श्रापसि करने या उसके कारण जैन धर्मसे ही घणा करने की कोई वजह नहीं हो सकती । श्राजमो अग्रवाल लोग, उसी गांत्र पद्धतिको टालकर, अपने उसी एक वंशम-अग्रवालोंके ही साथ-विवाह सम्बन्ध करते हैं: यह प्राचीन रीतिरिवाज तथा घटनाविशेषको प्रदर्शित करनेवाला कितना स्पष्ट उदाहरण है । याब बिहारीलालजी अग्रवाल जैन बुलन्दशहरी ने अपन अग्रवाल इतिहास' म भी अग्रवालकी उत्पत्तिका यह सम्म इतिहास दिया। इतने पर भी समालोचकी प्राचीन कालके ऐसे विवाह-सम्बंधों पर, जिनके कारण बहुनसी श्रेष्ट जनता का इस समय अगवाल वंशम अस्तित्व है, प्रणा प्रकाशित करते है और उनपर पर्दा डालना चाहते है, यह कितने बड़े आश्चर्यकी बात है !!
पाठकजन, यह बात मानी हुई है और इसमें किसीको आपत्ति नहीं कि 'कंस' उन यदुवशी राजा उगसेनका पुत्र था जिनका उल्लेख ऊपर उद्धृतकी हुई वशावलीमे भोजक-वृष्टि के पुत्ररूपसे पाया जाता है । यह कंस गर्भ में प्रातही माता
*यह इतिहास ला० हीरालाल पन्नालाल जैन,दरीया कलाँ, देहली के पतेसे तीन श्राने मूल्यमें मिलता है।
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
७२
विवाह-क्षेत्र प्रकाश ।
पिताको अतिकष्टका कारण हुआ और अपनी प्राकृतिसे प्रत्युग जान पड़ताथा, इसलिये पैदा होतेही एक मंजूषा बन्द करके इसे यमुनामें बहा दियागया था। दैवयोगसे, कौशाम्बी में यह एक कलाली (मद्यकारिणी) के घर पला, शस्त्रविद्यामें वसुदेवका शिष्य बना और वसुदेव की सहायतासे इसने महाराज जरासंधके एक शत्रुको बाँधकर उनके सामने उपस्थित किया । इसपर जरासंधने अपनी कालिदसेना रानीसे उत्पन्न 'जीवद्यशा' पत्रीका विवाह कससे करना चाहा । उसवक्त कंस का वंश-परिचय पाने के लिये जब वह मद्यकारिणी बलाई गई और वह मंजपा सहित आई तो उस मंजुषाके लेखपरसे जरासंधको यह मालूम हुआ कि केस मेरा भानजा है मेरी बहन पदमावतीसे उग्रसेन द्वारा उत्पन्न हुआ है और इसलिये उसने बड़ी खशी के साथ अपनी पत्रीका विवाह उसके साथ कर दिया । इस विवाह के अवसर पर कंसका अपने पिता उग्रसेनकी इस निदं यताका हाल मलूम करके–कि उसने पैदा होते ही उसे नदीमें बहादिया-बड़ा क्रोध श्राया और इसलिए उसने जरासंधसे मथुराका राज्य मांगकर संना श्रादि साथ ले मथराको जा घेरा । और वहाँ पिताको युद्धमै जीतकर बाँध लिया तथा अपना वंदी बनाकर उसे मथुराक द्वारपर रक्खा । इस पिछली बानको जिनसेनाचार्यन नीचे लिखे तीन पद्यों में जाहिर किया है :
'सद्योजातं पिता नद्यां मुक्तवानिति च कुधा । वरीत्वा मथुरां लब्ध्वा सर्वसाधनसंगतः ॥ २५ ॥ कंसः कालिन्दसेनायाः सुतया सह निघणः । गत्वा यद्ध विनिर्जित्य बबन्ध पितरं हतं ॥ २६ ॥
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुटुम्ब विवाह । महोग्रो भग्नसंचारं उग्रसेनं निगृह्य सः। अतिष्ठिपकनिष्ठः सः स्वपुरद्वारगोचरे ।। २७ ॥
-हरिवंशपुराण, २३वाँ सर्ग । इसके बाद कंस ने सोचा कि यह सब ( जीवधशा से विवाह का होना और मथुरा का राज्य पाना ) घमुदेवका उपकार है, मुझे भी उन के साथ कुछ प्रत्युपकार करना चाहिये और इसलिये उसने प्रार्थना-पूर्वक अपने गरु वसुदेव को बड़ी भक्ति के साथ मथुरा में लाकर उन्हें गरुदक्षिणा के तौर पर अपनी बहन देवकी' प्रदान की--अर्थात्, अपनी बहन देवकी का उनके साथ विवाह कर दिया।
विवाह के पश्चात् धसुदेवजी कंस के अनुरोध से देवकी सहित मथुरा में रहने लगे। एक दिन कंस के बड़े भाई 'अतिमुक्तक ' मुनि #आहार के लिये कंस के घर पर प्राण । उस समय कस की रानी जीवद्यशा उन्हें प्रणाम कर बड़े विभ्रम के साथ उनके सामने खड़ी हो गई और उसने देवकी
* ये 'अतिमुक्तक' मुनि राजा उग्रसेनके बड़े पुत्र थे और पिता के साथ किये हुए कंस के व्यवहार को देखकर संसार से विरक्त हो गये थे, ऐसा जिनदास ब्रह्मचारीके हरिवंशपुराण से मालूम होता है, जिसका एक पद्य इस प्रकार है:
उग्रसेनात्मनो ज्येष्टोऽतिमुक्तक इतीरितः। भवसिथतिमिमां वीक्ष्य दध्याविति निज हृदि ॥१२-६१॥
परन्तु ब्रह्मनेमिदत्त अपने कथाकांशमैं इन्हें कंसका भी छोटा भाई लिखत है। यथा
" तदा कंसलघुभ्राता दृष्ना संसारचेष्टितं । . अतिमुक्तकनामासौ संजातो मुनिसत्तमः ।।
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
विवाह क्षेत्र- प्रकाश ।
का रजस्वल वस्त्र मुनि के समीप डालकर हँसी दिल्लगी उड़ाते हुए उनसे कहा 'देखो ! यह तुम्हारी बहन देवकी का आनन्द वस्त्र है ' ।
७४
इस पर संसारकी स्थिर्तिके जानने वाले मुनिराजने अपनी वचन- गुप्तिको भेदकर खेद प्रकट करते हुए, कहा 'अरी क्रोडनशीले ! तू शोकके स्थान में क्या आनंद मना रही है, इस देवकी के गर्भ से एक ऐसा पुत्र उत्पन्न होनेवाला है जो तेरे पति और पिता दोनोंके लिये काल होगा, इसे भवितव्यता समझना ।' मुनिके इस कथनले जीवद्यशाको बड़ा भय मालूम हुआ और उसने अश्रुभरे लोचनसे जाकर वह सब हाल अपने पति से निवेदन किया । कंसभी मुनिभाषण को सुनकर डर गया और उसने शीघ्रही वसुदेव के पास जाकर यह वर माँगा कि 'प्रसूति के समय देवकी मेरे घरपर रहे' । वसुदेवको इस सब वृत्तान्त की कोई खबर नहीं थी और इसलिये उन्होंने कंसकी वरयाचना गुप्त रहस्य न समझ कर वह वर उसे दे दिया । सो ठीक है 'सहोदरके घर बहनके किसी नाशकी कोई आशंका भी नहीं की जाती ' -- कंस देवकीका सोदर (सगाभाई ) था, उसके घरपर देवकीके किसी ग्रहितकी आशंका के लिये वसुदेव के पास कोई कारण नहीं था, जिससे वे किसी प्रकार उसकी प्रार्थनाको अस्वीकार करनेके लिये वाध्य होसकते, और इसलिये उन्होंने खुशी से कंसकी प्रार्थनाको स्वीकार करके उसे वचन दे दिया ।
यह सब कथन जिनसेनाचार्य के हरिवंशपुराण से लिया गया है । इस प्रकरणके कुछ प्रयोजनीय पद्य पं० दौलतरामजी की भाषा टीका सहित इस प्रकार हैं :
“वसुदेवोपकारेण हृतः प्रत्युपकारधीः ।
न वेत्ति किं करोमीति किंकरत्वमुपागतः ॥ २८ ॥
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
७५
कुटुम्बमें विवाह । अभ्यर्थ्य गुरुमानीय मथुरा पृथुभक्तितः । स्वसारं प्रददौ तस्मै देवकी गुरुदक्षिणाम् ।। २६ ।।
टीका-"कंस मथुराका राज पाय पर विचारी यह सब उपगार वसुदेवका है । सो मैं हू याकी कुछ सेवा करूँ ॥२८॥ तब प्रार्थना करि वसुदेव क महाभक्तिते (सं) मथुराविर्षे लाया श्रर अपनी बहन देवकी वसुदेवकं परनाई ॥ २६ ॥"
"जातु चिन्मुनिवेलायामतिमुक्तकमागतम् । कंसज्येष्ठं मुनि नत्वा पुरःस्थित्वा सविभ्रमम् ॥३२॥ हसंती नर्म भावेन जगौ जीवद्यशा इति ।
आनन्दवस्त्रमेतत्ते देवक्याः स्वसुरीक्षताम् ॥३३॥" टीका--"एकदिन श्राहारके समै कंसके बड़े भाई अतिमुक्तक नामा मुनि कंसके घर आहार क आए ॥ ३३॥ तब नमस्कार करि जीवंयशा चंचल भावकरि हँसती थकी देवकी के रजस्वलापनेके वस्त्र स्वामीके समीप डारे पर कहती भई । ए तिहारी वहनके आनंदके वस्त्र हे सो देषहु ।। ३४ ॥"
"भविता योहि देववया गर्मेऽवश्यमसौ शिशुः । पत्युः पितुश्च ते मन्यरितीयं भवितव्यता ॥ ३६॥" ततो भीतमतिर्मकन्वा मुनि साश्रुनिरीक्षणा । गत्वा न्यवेदयत्सैतत्सत्यं यतिभापितम् ।। ३७॥" श्रुत्वा कंसोपि शंकावानाशु गत्वा पानतः । वसुदेवं वरं वत्रे नीवधीः सत्यवाग्व तम् ॥ ३८ ॥ स्वामिन्वरप्रसादो में दानव्यो भवता ध्रुवम् । प्रसतिसमये वासो देवक्या मद्गृहेऽस्त्विति ॥ ३६॥ .
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
विवाह-क्षेत्र प्रकाश । सोऽप्यविज्ञायवृत्तान्तो दत्तवान्वरमस्तधीः । नापायः शंक्यते कश्चित्सोदरस्य गृहे स्वसुः॥४०॥" टीका-" (मुनिने कहा ) या देवकी के गर्भ विर्षे एंसापुत्र होयगा जो तेरे पति. श्रर पिता मारेगा ॥ ३६ ॥ तब यह जीवजशा अश्रुपात करि भर है नेत्र जाके सो जायकरि अपने पतित मुनिक कहे हुए बचन कहती भई ॥ ३७॥ तब कंस ए वचन सुनकरि शंकावान होय तत्काल वसदेव पै गया पर वर मांग्या ॥३८॥ कही हे स्वामी माहि यह वर देहु जो देवकीकी प्रसूति मेरे घर होय । सो वसदेव तो यह वृसान्त जाने नाहीं॥३६॥ विना जाने कही तिहारेहो घर प्रतिके समै वह निवास करहु । यामें दोष कहा । बहन का जापा भाई के घर होय यहतो उचित ही है । या भाँति वचन दिया ॥ ४० ॥"
इन पद्यों से २६, ३३वे और ४०वें पद्यमें यह स्पष्टरूपसे घोषित किया गया है कि देवकी कंसकी बहन थी, कंसके बड़े भाई अतिमुक्तककी बहन थी और कंस उसका 'सादर' था। 'सोदर शब्दको यहाँ प्राचार्य महाराजने खासतौर पर अपनी श्रोरसे प्रयुक्त किया है और उसके द्वारा देवकी और कंसमें बहन भाई के अत्यंत निकट सम्बंधको घोषित कियाहै। 'सोदर' कहत है 'सहादर' को-सगं भाई को-,जिनका उदर तथा गर्भाशय समान है-एक हे-अथवा जो एकही माताके पेटसे उत्पन्न हुरहै वे सब सादर कहलाते हैं । और इस लिये सोदर, समानादर, सहोदर, सगर्भ, सनाभि, और सोदर्य ये सब एकार्थवाचक शब्द है । ' शब्द कल्पद्रुम' में भी सोदर का यही अर्थ दिया है । यथाः--
"सादरः, (सह समान उदर यस्य । सहस्य सः।)सहोदरः इति शब्द रत्नावली।" "सहोदरः, एकमातगर्भ
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुटुम्बमें विवाह |
जातभ्राता । तत्पर्याय:--, सहजः, सोदरः, भ्राता, सगर्भः, समानोदर्यः, सोदर्यः इति जटाधरः ।"
वामन शिवराम एंप्टे ने भी अपने कोश में इसी अर्थका विधान किया है । यथा :
"सोदर . [ समानमुदरं यस्य समानस्य सः] Bora from the same womb (गर्भ, गर्भाशय), uterine. --रः a uterine brother.”
७७
""
"Uterine, सहोदर, सोदर, समानोदर, सनाभि. ऐसी हालत में, देवकी कंस की बहन ही नहीं किन्तु सगी बहन हुई और इसलिये उसे राजा उग्रसेन को पुत्री, नृप भाजकवृष्टि की पौत्री, महाराजा सुवीर की प्रपौत्री और ( सुवीर के सगे भाई सूर के पांत ) वसुदेव की भताजी कहना कुछ भी अनुचित मालूम नहीं होता ।
वंशावली के बाद के इन्हीं सब खण्डउल्लेखों को लेकर देवकी को राजा उग्रसेनकी पुत्री लिखा गया था । परन्तु हाल में जिनसेनाचार्य के हरिवंशपुराण से एक ऐसा वाक्य उपलब्ध हुआ है जिससे मालूम होता है कि देवकी खास उग्रसेन की पुत्री नहीं किन्तु उग्रसेनके भाई की पुत्री थी और वह वाक्य इस प्रकार है :
प्रवर्द्धतां भ्रातृशरीरजायाः सुतोऽयमज्ञय मरे रितीष्टां । तदग्रसेनमभिनं वाचममू विनिर्जग्मतुराशु पुर्याः ||२६||
- ३५ वां सर्ग ।
यह वाक्य उस अवसर का है जब कि नवजात बालक कृष्णको लिये हुए वसूदेव और बलभद्र दोनों मथुरा के मुख्य द्वार पर पहुंच गये थे, बालक की छींक का गंभीर नाद होने पर द्वार के ऊपर से राजा उग्रसेन उसे यह आशीर्वाद दे चुके
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
विवाह-क्षेत्र-प्रकाश।
थे कि 'तु चिरकाल तक इस संसार में निर्विघ्न रूप से जीता रहो' और इस प्रिय श्राशीर्वाद से संतुष्ट होकर वसुदेवजी उनसे यह निवेदन कर चुके थे कि 'कृपया इस रहस्य को गुप्त रखना, देवकी के इस पुत्र द्वारा श्राप बंधनसं छूटोगे (विमुक्तिरस्मात्तव दैवकेयात् )'। इस कथन के अनन्तर का ही उक्त पद्य है। इसके पूर्वार्ध में राजा उग्रसेनजी वसुदेवजी की प्रार्थना के उत्सर में पुनः आशीर्वाद देते हुए कहते हैं- 'यह मेरे भाई की पुत्री का पत्र शत्र से अज्ञात रह कर वद्धि को प्राप्त होवो,' और उत्तरार्ध में गन्थकर्ता प्राचार्य बतलाते हैं कि तब उग्रसेन की इस इष्ट वाणी का अभिनन्दन करके• उस की सराहना करके वे दोनो-वसुदेव और बलभद्रनगरो ( मथुरा ) से बाहर निकल गये।'
इस वाक्य से जहाँ इस विषय में कोई संदेह नहीं रहता कि देवकी राजा उगमेनके भाईकी पुत्री थी वहाँ यह बात और भी स्पष्ट हो जाती है कि वह वसुदेवकी भतीजी थी : क्योंकि उगसेन आदि वसुदेव के चचाज़ाद भाई थे और इस लिये उग्रसेनकी पुत्री न होकर उग्रसेनके भाई की पुत्री होनेसे देवकी के उस सम्बन्ध परमाणुमात्र भी अन्तर नहीं पड़ता।
राजा उग्रसेनके दो सगे भाई थे--देवसेन और महासेनजैसा कि पहले उद्धृत की हुई वंशावली से प्रकट है। उन में से, यद्यपि, यहाँ पर किसी का नाम नहीं दिया परन्तु पं० दौलतरामजी ने अपनी भाषा टीकामें उगसेन के इस भाईका नाम 'देवसेन' सूचित किया है । यथा:___" हे पूज्य यह रहस्य गोप्य राखियो। या देवकीके पत्र ते तिहारा वंदिगृह तें, छूटना हायगा। तब उग्रसेन कही यह मेरे भाई देवसेन की पुत्री का पुत्र वैरी की बिना जान में सुख ते रहियो।”
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुटुम्ब विवाह ।
98
पं० गजोधरलालजी ने भी इस प्रसंग पर, अपने अनुवाद में, 'देवसेन' का ही नाम दिया है जिसका पीछे उल्लेख किया जाचका है और उनकी, पं० दौलतरामजी वालो इन पंक्तियोंके श्राशयसे मिलती जलनी, पंक्तियां भी ऊपर उधत की जाचुकी हैं। हो सकता है कि उनका यह नामोल्लेख पं० दौलतरामजी के कथन का अनकरण मात्र हो, क्योंकि तीन साल बाद के अपने विचार लेख में, जिसका एक अंश · पावती पुरवाल ' से ऊपर उद्धृत किया जा चुका है, उन्होंने स्वयं देवकी को राजा उग्रसेन की पुत्री स्वीकार किया है । परन्तु कुछ भी हो, पं० दौलतरामजी ने उग्रसेन के उस भाई का नाम जो देवसेन सचित किया है वह ठोक जान पड़ता है और उसका समर्थन उत्तरपुराण के निम्न वाक्यों से होता है:
" अथ स्वपुरमानीय वसुदेवमहीपतिम् । देवसेनसुतामस्मै देवकीमनुजां निजाम् ॥३६६॥" विभूतिमद्वितीय वं काले कंसस्य गच्छति । अन्येधुरतिमुक्ताख्यमुनिर्भितार्थमागमत् ॥३७०॥" राजगहें समीक्ष्यैनं हासाज्जीवधशा मुदा । देवकीपुष्पजानन्दवस्त्रमेतत्तवानुजा ॥ ३७१ ॥" स्वस्याश्चेष्टितमेतेन प्रकाशयति ते मुने । इत्यवोचत्तदाकर्ण्य सकोपः सोऽपि गुप्तिभित्॥३७२॥"
--७०वाँ पर्व। इन वाक्यों द्वारा यह बतलाया गया है कि-'कंसने नप बसदेवको अपने नगरमें लाकर उन्हें देवसेनकी पुत्री अपनी छोटी बहन 'देवकी' प्रदानकी । विवाहदी )। इसके याद कुछ काल पीतने पर एक दिन 'अतिमुक्त' नामके मुनि भिक्षाके लिये
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषाह-क्षेत्र,प्रकाश। कंसके राज भवन पर पाए । उन्हें देखकर ( कंसको रानी) जीवधशा प्रसन्न हो हँसीसे कहने लगी 'देखो। यह देवकीका रजस्वल आनन्द वस्त्र है और इसके द्वारा तुम्हारी छोटी बहन (देवकी) अपनी चेष्टाको तुम पर प्रकट कर रही है। इसे सुन कर मुनिको क्रोध श्रागया और व अपनी वचनगुप्तिको भंगकरके कहने लगे, क्या कहने लगे, यह अगले पद्यों में बतलाया गया है।
यहाँ देवकीके लिये दो जगह पर 'अन्जा' विशेषणका जो प्रयोग किया गया है वह खास तौरसे ध्यान देने योग्य है। अनुजा कहते हैं *कनिष्टा भगिनी को-+ younger sister का--,जो अपने बाद पैदा हुई हो ( अन पश्चात् जाता इति अनुजा । ) और यह शब्द प्रायः अपनी सगी बहन अथवा अपने सगे ताऊ चचाकी लड़कीके लिये प्रयुक्त होता है। कंस उग्रसेन का पुत्र था और उग्रसेन.देवसेन दोनों सगे भाई थे, यह बात इस ग्रन्ध्र ( उत्तरपुराण ) में भी इससे पहले मानी गई हैx और इसलिये कसने देवसेनकी पुत्री अपनी छोटी बहन देवकी (देवसेनसुतां निजां अनजां देवकी ) घसदेवको प्रदोनकी,
*देखो ‘शब्दकल्पद्र म' कोश। देखो वामन शिवराम एंप्टेको संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी । - यथाः-पद्मावत्या द्वितीयस्य वृष्टेश्च तनयास्त्रयः ।
उग्र-देव-महाधुक्तिसेनान्ताश्च गुणान्विताः॥१०० ॥
इति तद्ववनं श्रुत्वा मंजूषान्त स्थपत्रकं । गृहीत्वावाचि. यित्वोच्चैस्प्रसेनमहीपतः ॥३६५॥ पद्मावत्याश्च पुत्रोयमिति ज्ञात्वा महीपतिः। विततारसुतां तस्मै राज्याध च प्रतुष्टवान्॥३६६॥ कंसोप्युत्पत्तिमात्रेण स्वस्य नया विसर्जनात्। -उत्तरपुराण, ७० वाँ पर्व ।
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुटुम्ब में विवाह। इसका स्पष्ट अर्थ यहीहोता है कि कंसने अपने चचा देवसेन की पुत्री देवकी वसुदेवसे व्याही । भावनगरको एक पुरानी जीर्ण प्रतिमे, प्रथम पद्यमें पाएहुए 'देवसेन' नाम पर टिप्पणी देते हुए, लिखा है___ "उग्रसेन-देवसेन महासेनास्त्रयो नरवृष्णेः पुत्रा ज्ञातव्याः" अर्थात्-उग्रसेन, देवसेन, और महासेन ये तीन *नरवृष्णि (भोजकवृष्टि) के पुत्र जानने चाहिये। इससे उक्त अर्थका और भी ज्यादा समर्थन हो जाता है और किसी संदेहको स्थान नहीं रहता । अस्तु : यह देवसेन मृगावती देशके अन्तर्गत दशार्णपर के राजा थे, 'धनदेवी' इनकी स्त्री थी और इसी धनदेवी से देवकी उत्पन्न हुई थो; ऐसा उत्तरपुराणके निम्नवाक्य से प्रकट है :---
मृगावत्याख्यविषये दशार्णपुरभूपतेः ।। देवसेनस्य चोत्पन्ना धनदेव्याश्च देव की ।
-७२ वाँ पर्व। और इस लिये ब्रह्मनेमिदत्तके नेमिपुराण, जिनदास ब्रह्मचारी के हरिवंशापुराण भट्टारक शुभचन्द्र के पाण्डवपुराण और भ. यशःकीर्ति के प्राकृत हरिवंशपगणमें देवकी के पिता, धनदेवीके पति और दशाण परके राजा रूपसे जिन देवसेनका उल्लेख पाया जाता है और जिनके उल्लेखोकी, इन ग्रन्थोंसे, समालोचनामें उद्धृत किया गया है वे येही राजा उग्रसेनके भाई देवसेन है-उनसे भिन्न दूसरे कोई नहीं है । नेमिपुराणमें तो उत्तर पुराणकी उक्त दोनो पंक्तियाँभी ज्योकि त्यो उद्धृत पाई जाती है बल्कि इनके बाद की 'त्वंसा नन्दयशा स्त्रीत्वमुप
* उत्तरपुराणमें भोजकवृष्टि (वृष्णि) की जगह नरवृष्णि या नरवृष्टि ऐसा नाम दिया है।
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
विवाह क्षेत्र प्रकाश |
गम्य निदानतः " यह तीसरी पंक्तिभी उधृत है और प्रत्थके प्रारंभ अपने पुराण कथनको प्रधानतः गुणभद्र के पुराण (उत्तर पुरोग) के श्राश्रितसूचित किया है । यथा:--
I
८२
यत्पुराणं पुरोक्तं गुणभद्रा दिसूरिभिः ।
तद्वये बोधोऽहं किमाश्चर्यमतः परं ||२८|| पाण्डवपुराण में गुणभद्र की स्तुति के बाद स्पष्ट लिखा ही है कि उनके पुराणार्थका अवलोकन करके यह पुराण रचा जाता है । यथा :
गुणभद्रभदंतोऽत्र भगवान् भातु भूतले । पुराण प्रकाशार्थं येन सूर्यातिं लघु ॥ १६ ॥ तत्पुराणार्थमालोक्य धृत्वा सारस्वतं श्रुतम् ।
।
1
मासे पाण्डवानां हि पुराणं भारतं ब्रुवे || २० || जिनदास ब्रह्मचारीका हरिवशपुराण प्रायः जिनसेनाचार्य के हरिवंशपुराणका सामने रखकर लिखा गया है और उसमें जिनसेनके वाक्योंका बहुत कुछ शब्दानुसरण पायाजाता है जिनदासने स्वयं लिखाभी है कि गौतम गणधरादिके बाद हरि- वंशकं चरित्रको जिनसेनाचार्यने पृथ्वी पर प्रसिद्ध किया है । और उन्हीं के वाक्यों परसे ग्रह चरित्र अपने तथा दूसरोंके सुख- बोधार्थ यहाँ उद्धृत किया गया है । यथा :-- ततः क्रमाच्छीजियसेननाम्नाचार्य जैनागमको विदेन । सत्काव्य केली सदनेन पृथ्यांनीतंप्रसिद्धिं चरितं हरेश्व ॥ ३५ ॥ श्रीनेमिनाथस्य चरित्रमतदाननं (१) नीत्वा जिनसेनसरेः । समुद्धृतं स्वान्यसुखप्रबोध हे तोश्चिरं नन्दतु भूमिपीठे ॥ ४१ ॥” - ४०वाँ सर्ग |
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुटुम्बमें विवाह |
और यशः कीर्तिने भी अपने प्राकृत हरिवंपुराणको जिनसेन के आधार पर लिखा है । वे उसके शब्द अर्थका सम्बंध जिनसेन शास्त्र (हरिवंशपुराण ) से बतलाते हैं । यथा:श्रइ महंत पिक्खिवि जणु संकिउ । ता हरिवंसु मईमिर्डहिंकिउ । सद्द अत्यसंबंधु फुरंत । जिरण से हो सतहो यहु पयडिउ ।।
इन उल्लेखांस स्पष्ट है कि उक्त नेमिपुराणादि चारों ग्रंथ जिनसेन के हरिवंशपुराण और गुणभद्र के उत्तरपुराणके आधार पर लिखे गये हैं और इसलिये इनसे यदि किसीमें देवकीको कसकी या कंसके भाई श्रतिमुत्तककी बहन ( स्वसा ), छोटी बहन (अनुजा ) श्रथवा राजा उग्रसेन के भाई की पुत्री ( भ्रातृशरीरजा, इत्यादि ) नहीं लिखा हां तो इतने परसे ही वह किसी दूसरे देवसेनकी पुत्री नहीं ठहराई जा सकती, जबतक कि कोई स्पष्ट कथन ग्रंथ में इसके विरुद्ध न पाया जाताही । और यदि इन ग्रंथो मेंसे किसीमें ऐसा कोई विरोधी कथन हो भी तो वह उस ग्रन्थकारका अपना तथा अर्वाचीन कथन समझना चाहिये, उसे जिनसेनके हरिवशपुराण और गुणभद्र के उत्तरपुराणपर कोई महत्व नहीं दिया जासकता । परन्तु इन ग्रन्थों में ऐसा कोई भी विरोधी कथन मालूम नहीं पड़ता जिससे देवकी राजा उग्रसेनके भाई देवसेन से भिन्न किसी दूसरे देवसेनकी पुत्री ठहराई जा सके । फिरभी समालोचकजी नेमिपुराण में
८३
*जिनदास ब्रह्मचारी के हरिवशपुर में तो उन तीनों श्रवसरोपर देवकीको कल तथा अतिमुक्तककां बहन ही लिखा है जिनपर जिनसेन के हरिवंशपुराण में वैसा लिखा गया है । यथा:"श्रानीय मधुगं भक्त्याऽस्यर्याय प्रददौ निजां । स्वसार देवकीं तस्मै सन्मान्य मृदुभाषया ॥ ६८ ॥ सविभ्रमा हसतीति प्राह जावद्यशा स्वसुः। देवक्या वीक्ष त्वं वस्त्र
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
विवाह क्षेत्र प्रकाश ।
यह स्वप्न देख रहे हैं कि उसमें देवकी को कंसके मामाकी पुत्री लिखा है और उसीके निम्न वाक्योंके श्राधारपर यह प्रतिपादन करना चाहते हैं कि देवकी कंसके मामाकी लड़की थी, इस लिये कंस उसे बहन कहता था और इसीसे जिनसेनाचार्यने, हरिवंशपुराण में, उसे कंसकी बहन रूप से उल्लेखित किया है:
——
८४
ततः स्वयं समादाय पितुः राज्यं स कंसवाक् । गौरवेण समानीय वसुदेवं स्वपत्तनम् ॥ ८६ ॥ तदा मृगावतीदेश भुर्भुजादेशनं ( 2 ) पुरत् । कंसमातुलजानीता [] धनदेव्या [व्यां] समुद्भवा[व] ॥ ८७ देवकी [कीं] नामां[तः] कन्यां कांचिदन्य[न्यां] सुरांगना [न]। महोत्सवैर्ददौ तस्मै सोपि सार्धं तया स्थितः ॥ ८८ ॥
इन पद्य में से मध्यका पद्य नं० ८७, यद्यपि, ग्रन्थकी सब प्रतियों में नहीं पायाजाता- देहलीके नये मंदिर की एक प्रतिमें भी वह नहीं है और न इसके अभाव से ग्रन्थके कथनसम्बंध में ही कोई अन्तर पड़ता है; हो सकता है कि यह 'क्षेपक' हो । फिर भी हमें इस पथ के अस्तित्व पर आपत्ति करने की कोई ज़रूरत नहीं है । इसमें 'कंसमातुलजानीतां' नामका जो विशेपण पद है उससे यह बात नहीं निकलती कि देवकी कंसके मामाकी लड़की थी, बल्कि कंसके मातुलपुत्र द्वारा वह लाई
मृतुकालविडंबितम् ॥ ७१ ॥ " वरमज्ञातवृत्तान्तः प्रददौ स्वच्छधीः स्वयं । तथेत्युक्षा स्वसुर्भातृगेहे किंच न कुत्सितं ॥ ८० ॥" - १२ वाँ सर्ग । *इस प्रकारकी ब्रैकटोंके भीतर जो पाठ दिया है वह शुद्ध पाठ है । और ग्रंथकी दूसरी प्रतियोंमें पाया जाता है ।
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुटुम्बमें विवाह |
गई थी ( कंसमातुलजेन श्रानीता तां = कंसमातुलजानीतां ), यह उसका अर्थ होता है । कंसका मामा जरासंध था । जरासंध के किसी पुत्रद्वारा देवकी दशार्णपुरसे मथुरा लाई गई होगी, उसी का यहाँ पर उल्लेख किया गया है। पिछले दोनों पद्यो में 'कन्यां' पदके जितने भी विशेषण पद हैं वे सब द्वितीया विभक्ति के एक वचन हैं और इस लिये + "कंसमातुलजानीतां' पदका दूसरा कोई अर्थ नहीं होता जिससे देवकी का कंसके मामाकी पुत्री ठहराया जासके ! इस नेमिपुराणको भाषा टीका पंडित भागचन्द्रजीने की है उन्होंने भी इन पद्योंकी टीका देवकीको कंसके मामाकी पुत्री अथवा दशार्णपुर के देवसेन राजाको कसका मामा नहीं बतलाया, जैसाकि उक्त टीकाके निम्न अंशसे प्रकट हैः "मृगावती देशविषै दशार्णपुर तहाँ देवसैन राजा श्रर धनदेवी रानी faast देवकीनामा पुत्री मँगाय मानों दुसरो देवांगनाही है ताहि महोत्सव कर सहित वसुदेवके अर्थ देता भया । वसुदेव ता सहित तिष्ठ ।” -- नानौता के एक जैनमंदिरकी प्रति ।
६५.
जान पड़ता है समालोचकजीने वैसेही विना समझे उक्त पद परसे देवकीको कसके मामाकी पुत्री और देवसेनको कंस का मामा कल्पित कर लिया है और अपनी इस निःसार कल्पना के आधार पर ही आप अपने पाठकों का यह संदेह दूर करने के
+ देहलीके नये मंदिरकी दूसरी प्रति और पंचायती मंदिर की प्रतिमें भी मध्यका श्लोक जरूर है परन्तु उनमें इस पद की जगह "कंसमातुल श्रानौता [तां]" ऐसा पाठ है, जिसका अर्थ होता 'कंसके मामा द्वारा लाई हुई' | परन्तु वह मामा द्वारा लाई गई हो या मामा के पुत्र द्वारा, किन्तु मामाकी पुत्री नहीं थी यह स्पष्ट है ।
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
विवाह-क्षेत्र प्रकाश ।
लिये तय्यार हो गये हैं कि जिनसेनने हरिवंशपुराणमें देवकी को कंसकी वहन क्यों कर लिखा है ! यह कितने साहसकी बात है ! आपने यह नहीं सोचा कि जिनसेनाचार्य तो स्वयं देवकी को राजा उग्रसेनके भाई की पत्री बतला रहे हैं और देवसेन उग्रसेन का सगा भाई था, फिर वह कंसके मामाकी लड़की कैसे होसकती है ? वह तो कंपके सगे च चाकी लड़की हुई। परन्तु आप तो सत्य पर पर्दा डालने की धनमें मस्त थे श्रापको इतनी समझ बूझसे क्या काम ? __ यहाँ पर इतना और भी बतला देना उचित मालम होता है कि पहले जमाने में मामाकी लडकीसे विवाह करने का प्राम रिवाज था और इसलिये मामाकी लड़कीको उस वक्त कोई बहन नहीं कहता था। और न शास्त्रों में बहन रूप से उसका उल्लेख पाया जाता है। समालोचकजी लिखनेको तो लिखगये कि देवको कंसके मामाको लड़की थी और इसलिये कंस उसे बहन कहता था परन्तु पीछे से यह बात उन्हें भी खटकी जरूर है और इसलिये श्राप समालोचनाके पष्ट ११ पर लिखते हैं:" देवकी कंसके मामाकी बेटी थी श्राजकल मामाकी बेटीको भी बहिन मानते हैं। शायद इस पर बाब साहब यह कह सकते है पहिले मामाको बेदी बहिन नहीं मानी जाती थी क्योंकि लोग मामा की बेटीके साथ विवाह करतथे और दक्षिणदेशमें अबभा करते है, परन्तु इस सन्देह को श्राराधनाकथाकोशक श्लाक अच्छी तरह दूर कर देते हैं साथमें बाब साहबके खास गांव देवबंदमें जो श्राराधनाकथाकोश छपा है। उससे भी यह संदेह साफ तौर से काफूर होजाता है" इससे ज़ाहिर है कि समालोचकजी ने देवकीको यदुवंशसे पथक करने और उसे भोजकवृष्टिकी पौत्री न माननेका अपना
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुटुम्बमें विवाह । अन्तिम प्राधार आराधनाकथाकोशके कुछ श्लोको और उनके भाषापद्यानयाद पर रक्खा है । अापके वे श्लोक इस प्रकार हैं:
अथेह मृत्तिकावत्यां पुर्या देवकि क] भूपतेः । भार्यायाधनदेव्यास्तु देवकी चारुका कन्यकाम्।।८।। प्रतिपन्नस्वभगिनीं मीन्द्रां] तां विवाहप्रयुक्तितः । कंसो सौ वा[व] सुदेवाय कुरुवंशो श्योद्भां ददौ।।८६ ये दोनों जिस अाराधना कथाकोश के श्लोक है वह उन्हीं नेभिदत्त ब्रह्मचारीका बनाया हु प्रा है जो नेमिपुराणके भी कर्ता हैं और जिन्होंने नेमिपराणमें देवकीको न तो कुरुवंशमे उत्पन्न हुई लिखा और न इस बात का ही विधान किया कि कंसने उसे चैसेही वहन मान लिया था—वह उसके कुटम्बकी बहन नहीं थी। परन्तु समालोचकजी उनके इन्ही पद्यों परसे यह सिद्ध करना चाहते हैं कि देवकी कुरुवंशमें उत्पन्न हुई थी और कस उसे वैसेही वहन करके मानता था। इसीसे आपने इन पोका यह अर्थ किया है :"मृतिका पुरीके राजा देवकी [?] की रानी धनदेवी के एक देवकी नामकी सुन्दर कन्या थी। वह कुरुवंशमें उत्पन्न हुई थी। और कंस उसे बहिन करके मानता था। उसने वह कन्या वसुदेवको व्याहदी।" परन्तु "वह कुरुवंश में उत्पन्न हुई थी और कंस उसे बहन करके मानता था" यह जिन दो विशेषण पदोका अर्थ किया गया है उन्हें समालोचकजी ने ठीक तौर से समझा मालम नहीं होता। आपने यह भी नहीं खयाल किया कि इन श्लोको का पाठ कितना अशुद्ध हो रहा है और इसलिये मुझे उनका शुद्ध पाठ मालम करके प्रस्तुत करना चाहिये-वैसे ही अशुद्ध रूप में माराधनाकथाकोशकी छपोहुई प्रति परसे नकल
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
विवाह-क्षेत्र प्रकाश। करके उसे पाठकों के सामने रख दिया है । " देवकभूपतेः" की जगह “ देवकिपतेः " पाठ देकर आपने देवकी के पिता का नाम 'देवकी' बतलाया है परन्तु वह — देवक' हैदेवकी नहीं हिन्दुओ के यहाँ भी देवकी के पिता को नाम 'देवक' दिया है और उसे कंसके पिता उग्रसेनका सगा भाई भी लिखा है; जैसा कि उनके महाभारतान्तर्गत हरिवंशपुराण के निम्न वाक्यों से प्रकट है:
आहुकस्य तु काश्यायां द्वौ पुत्रौ संबभवतुः ।। २६॥ देवकश्योग्रसेनश्च देवपुत्रसमावुभौ । देवकस्याभवन्पुत्राश्चत्वारस्त्रिदशोपमाः ॥ २७ ।। देववानुपदेवश्च सुदेवो देवरक्षितः। कुमार्यः सप्तचाप्यासन्वसुदेवाय ता ददौ ॥२८॥ देवकी शांतिदेवा च सुदेवा देवरक्षिता । वकदेव्युपदेवीच सुनााम्नीचैव सप्तमी ।। २६ ॥ नवोग्रसेनस्य सुतास्तेषां कंसस्तु पूर्वजः । न्यग्रोधश्चसुनामा च कंकः शंकुः सुभमिपः ॥३०॥
-३७ वां अध्याय । और इस लिये देवक देवसेन का ही लघुरूप है । उसी संघ नाम से यहाँ उसका उल्लेख किया गया था जिसे समा. लांच कजी ने नहीं समझा और देवकी के पिता को भी देवकी बना दिया ! " वासुदेवाय" पाठ भी अशुद्ध है, उसका शुद्ध रूप है “ वसुदेवाय” तभी · वसुदेव को' देवकी के दिये जाने का अर्थ बन सकता है अन्यथा, 'वासदेवाय ' पाठ से तो यह अर्थ हो जाता है कि देवकी 'घासुदेव' को घसुदेव
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुटम्बमें विवाह ।
के पुत्र श्रीकृष्ण को-च्याही गई, और यह कितना अनर्थकारी अर्थ है इसे पाठक स्वयं समझ सकते हैं । इसी तरह " प्रतिपन्नस्वभगिनी " पाठ भी प्रशद्ध है । श्लोक में छठा अक्षर गरु और पहले तथा तीसरे चरण का सातवाँ अक्षर भी गरु हाता है परन्तु यहाँ उक्त पहले चरण में ६ठा और ७ याँ दोनो ही अक्षर लघ पाये जाते है और इसलिये वे इस पदके अशद्ध होने का खासा संदह उत्पन्न करते हैं। लेखकके पुस्तकालयमें इस प्रन्थकी एक जीर्ण प्रति सं.१७६५ की लिखी हुई है, उसमें “प्रतिपन्नम्बभग्नीभ्रां" ऐसा पाठ पाया जाता है। इस पाठ में "भगिनी" की जगह " भग्नी" शब्दका जो प्रयोग है वह ठीक है और उससे उक्त दोनों अक्षर, छन्दः शास्त्रकी दृटिम, गर हो जाते है परन्तु अन्तका भ्रां' अक्षर कुछ अशुद्ध जान पड़ता है और उसे अधिक अक्षर नहीं कहा जा सकता । क्योंकि उसे पृथक करके यदि “ भग्नी" का " भग्नी" प.ठ माना जाये ता उससे छंद भंग हो जाता है-पाठकी जगह सात ही अक्षर रह जाते हैं - इस लिये 'भग्नी' के बाद श्राठयाँ अक्षर पदकी विभक्तिको लिये हुए जरुर हाना चाहिय । मालूम होता है वह अतर "न्द्री" था, प्रति लेखक की कृपा से "मां" बन गया है। और इसलिये . उक्त पदका शुद्ध रूप "प्रतिपन्नम्वभग्नीन्द्रा" होना चाहिये, जिसका अर्थ हाना है अपनी बहनों में इन्द्रा पद को प्राप्त'-- अर्थात् , इन्द्राणी जैली । नेभिदत्तने अपने — नेमिपुराण में भी देवकी को सरांगणा' लिखा है जैसा कि ऊपर उधत किये
* यथा:- जाके षष्ठं गमयं मर्वच लघ पंचमम् । द्विवतुष्पादयाह स्वं सप्तमं दीर्घ मन्ययोः ॥१०॥
--श्रुतबोधः ।
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
विवाह-क्षेत्र-प्रकाश। हुए उसके पद्य नं० ८८ से प्रकट.है। उसो पातको उन्होंने यहाँ पर इस पद के द्वारा व्यक्त किया है और उसे अपनी बहनों में इन्द्रा ( शची ) जैसी बतलाया है। वह कंस की वैसे ही मानी हुई-कल्पित को हुई बहन शो, यह अर्थ नहीं बनता और न उसका कहीं से कोई समर्शन होता है। देवको यदि कसकी कल्पित भगिनी थी तो उससे यह लाज़िमी नहीं प्राता कि वह कंस के भाई अनिमुक्तक की भी कल्पित भगिनी थी क्योंकि श्रतिमुक्तकजी ने उम्मी वक्त जिनदीक्षा धारण करली थी जबकि कलने मथुरा आकर अपने पिनाका वंदिगृहमें डाला था-और इसलिये कस ने यदि देवकीको अपनी बहन बनाया तो वह उसके बाद का कार्य हुअा। फिर अतिमुक्तक के भिक्षार्थ पाने पर कंसकी स्त्री ने उनसे यह क्यों कहा कि ' यह तुम्हारी बहन (स्वसा अथवा अनुजा) देवकी का श्रानन्द वस्त्र है ! इस वाक्यप्रयोग से ता यहो जाना जाना है कि अतिमुक्तकका देवकाके साथ भाई बहन का कौटुम्बिक सम्बन्ध था और इसी सं जीवद्यशा निःसंकोच भाव से उस सम्बन्ध का उनके सामने उल्लेख कर सकी है अथवा उक्त वाक्य के कहने में उसकी प्रवृत्ति हो सकी है । यदि यह कहा जाय कि जिस प्रकार दूसरे के पत्र को गोद ( दत्तक) लेकर अपना पत्र बना लिया जाता
और तब कटम्बवालों पर भी उस सम्बध की पाबन्दी होती है-वे उसके साथ गोद लेने वाले व्यक्ति के सगे पुत्र जैसा ही व्यवहार करते है-उसी प्रकार से कम ने भी देवकी को अपनी बहन बना लिया था तो प्रथम तो इस प्रकार से बहन बनानका कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता-हरिवंशपुराण (जिनसेनकत) और उत्तरपुराण जैस प्राचीन ग्रन्थों से यही पाया आता है कि देवकी उन राजा देवसनकी पुत्री थी जो कंस के पिता उग्रसेन के सगे भाई थे-दूसरे, यदि ऐसा मान भी लिया
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुटुम्बमें विवाह |
६१
जाय तो कंस की ऐसी दत्तकतुल्य बहन वसुदेवकी भतीजी ही हुई - उसमें तथा कंस की सगी बहन में सम्बंध की दृष्टि से कोई अन्तर नहीं होता और इसलिये भो यह नहीं कहा जासकता कि वसुदेव ने अपनी भतीजी से विवाह नहीं किया । ऐसा कहना मानो यह प्रतिपादन करना है कि ' एक भाई के दत्तकपुत्र से दूसरा भाई अपनी लड़की व्याह सकता है अथवा उस दत्तकपुत्र की लड़की से अपना या अपने पुत्र का विवाह कर सकता है'। क्योंकि वह दस्तक ( गोद लिया हुआ ) पुत्र उस भाई का असली पुत्र नहीं है किन्तु माना हुआ पुत्र है । परन्तु जहां तक हम समझते हैं समालोचकजी को यह भी इष्ट नहीं हो सकता, फिर नहीं मालूम उन्होंने क्यों-- इतने स्पष्ट प्रमाणों की मौजदगी में भी यह सब व्यर्थका आडम्बर रचा है ? नादानी और बेसमझी के सिवाय इसका दूसरा और क्या कारण हो सकता है ?
रही कुरुवंश में उत्पन्न होने की बात, वहभी ठीक नहीं है । 'कुरुवंशोद्भव' का शुद्ध रूप है 'कुरुवंश्योद्भव' जिसका अर्थ होता है 'कुरुवंश्या स्त्री में उत्पन्न' ( कुरुवंश्यायां उद्भवा या तां कुरुवंश्याद्भवां ) - अर्थात्, देवकीकी माता धनदेवी कुरुवंश्या थी - कुरुवंश में उत्पन्न हुई थी -नकि देवकी कुरुवंश में उत्पन्न हुई थी । समालोचकजी ने भाषाके जो निम्न छंद उद्धृत किये उनसे भी आपके इस सब कगनका कोई समर्थन नहीं होता:अब नगरी मृतिकावती, देवसेन महराज । धनदेवी ताके तिया, कुरुवंशन सिरताज ॥ ताके पुत्री देवकी, उपजी सुन्दर काय । सो वसुदेव कुमार संग, दीनी कंस सु व्याह ॥
यहाँ 'कुरुवंशन सिरताज,' यह स्पष्ट रूपसे 'धनदेवी' का
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२
विवाह-क्षेत्र-प्रकाश। विशेषण जाना जाता है और इसको धनदेवीके अनन्तर प्रयुक्त : करके कविने यह साफ सचित किया है कि धनदेवी कुरुवंशमें उत्पन्न हुई स्त्रियों में प्रधान थी। बाकी देवकी कंसको मानी हुई बहन थी, इस बातका यहाँ कोई उल्लेख ही नहीं है। इतने पर भी समालोचकजी इन भाषा छंदों परसे संदेह का काफूर होना मानते हैं और लिखते हैं :"यह सब कोई जानता है कि वसुदेव यदुवंशी थे,
और देवकी कुरुवंशकी थी। परन्तु बाबू साहबने तो उसे सगी भतीजी बना ही दी।" परन्तु महाराज ! सब लोग तो देवकीको कुरुवंशकी नहीं जानते, और न हरिवंशपुराण तथा उत्तरपराण जैसे प्रचीन प्रन्थोसे ही उसका कुरुवंशी होना पाया जाता है-यह तो श्रापके ही दिमाग़ शरीफसे नई बात उतरी अथवा श्रापकी ही नई ईजाद मालम होती है। और आपकी ही कदाग्रह तथा बेहयाई का चश्मा चढ़ी हुई आँखें इस बातको देख सकती हैं कि बाब साहब लेखकाने कहाँ अपने लेखमें देवकीको वसदेव की 'सगी' भतीजी लिख दिया है, लेखमें दो हुई वंशावली परसे तो कोई भी नेत्रवान उसमें सगी भतीजीका दर्शन नहीं कर सकता। सच है 'हठग्राहो मनुष्य युक्ति को खींच खाँचकर वहीं लेजाता है जहाँ पहले से उसकी मौत ठहरी हुई होती है परन्तु जो लोग पक्षपात रहित होते हैं वे अपनी मतिको वहाँ ठहराते हैं जहाँतक युक्ति पहुँचती है । इसीसे एक प्राचार्य महाराजने,ऐसे हठ-ग्राहियों की बुद्धिपर खेद प्रकट करते हुए, लिखा है :"अाग्रही बत ! निनीषति युक्तिं यत्रतत्रमतिरस्य निविष्ठा । पक्षपातरहितस्य तु युक्तिर्यत्रतत्रमतिरंति निवेशम् ।।"
हाँ, समालोचकजी की एक दूसरी, बिलकुल नई, ईजादका
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुटुम्बमें विवाह |
६३
उल्लेख करना तो रहहीं गया, और वह यह है कि उन्होंने, लेखक पर इस बात का प्रक्षेप करते हुए कि उसने भाषाके छदोषद्ध 'श्राराधना कथाकोश' के कथन पर जान बूझ कर ध्यान नहीं दिया, यह विधान किया है कि उसने उक्त ग्रंथका स्वाध्याय अवश्य किया होगा, क्योंकि वह उसके खास गाँव (?) देवबन्द का छपा हुआ है। और इस तरह पर यह घोषणा की है कि जिस नगर या ग्राम में कोई ग्रंथ छपता है वहाँका प्रत्येक पढ़ा लिखा निवासी इस घातका जिम्मेवार है कि वह ग्रंथ उसने पढ़ लिया है और वह उसके सारे कथनको जानता है । शौर इसलिये बम्बई, कलकत्ता आदि सभी नगर ग्रामों के पढ़े लिख को अपनी इस जिम्मेदारी के लिये सावधान हो जाना चाहिये ! और यदि किसीको यह मालूम करनेकी ज़रूरत पड़े कि बम्बई में कौन कौन ग्रन्थ छपे हैं और उनमें क्या कुछ लिखा है तो वहाँ किसी एक ही पढ़े लिखेको बुलाकर अथवा उससे मिलकर सारा हाल मालूम कर लेना चाहिये ! यह कितना भारी श्राविष्कार समालोचकजीने कर डाला है ! और इससे पाठकों को कितना लाभ पहुंचेगा !! परन्तु खेद है लेखक तो कई बार अपने अनेक स्थानोंके मित्रोंको वहाँके छपे हुए ग्रंथोंकी बाबत कुछ हाल दर्याफ्त करके ही रह गया और उसे यही उत्तर मिला कि 'हमें उन प्रन्थोंका कुछ हाल मालूम नहीं है ।' शायद, समालोचकजी हां एक ऐसे विचित्र व्यक्ति होंगे जिन्होंने कमसे कम
*यथाः——बाबू साहबके खास गाँव देववन्दमै जो 'श्राराधनाकथाकोश' छपा है उससे भी यह सदेह साफ तौर से काफूर होजाता है क्या बाबू साहबने अपने यहाँ से प्रकाशित हुए ग्रन्थों का भी स्वाध्याय न किया होगा? किया अवश्य होगा परन्तु उन्हें तो जिस तिस तरह अपना मतलब बनाना है" ।
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
६४
विवाह-क्षेत्र-प्रकाश।
देहलीसे,जहाँ श्रापका अक्सर निवास रहता है, प्रकाशित होने वाली सभी पुस्तकों तथा ग्रन्थोंको-परिचय, इच्छा, और संप्राप्ति श्रादिके न होत हुए भी पढ़ा होगा और आपको उनका पूर्ण विषय भी कण्ठस्थ होगा! रही लेखककी ग्रंथोंके पढ़ने की बात, यद्यपि उसका अधिकांश समय प्रन्थोके पढ़ने और उनमेंसे अनेक तत्वों तथा तथ्योंका अनुसंधान करने में ही व्यतीत होता है, फिर भी घह देववन्दसे प्रकाशित हुए ऐसे साधारण सभी गन्थोंको तो क्या पढ़ता, स्वयं उसकी लायब्रेरीमें पचासो अच्छे ग्रंथ इस धक्त भी मौजूद है जिन्हें परी तौर पर अथवा कुछको अधूरी तौर पर भी पढ़ने देखने का अभी तक उसे अवसर नहीं मिल सका। इसलिये समालोचकजीका उक्त आक्षेप व्यर्थ है और यह उनके दुरागृहको सूचित करता है।
यहाँ तकके इस सब कथनसे यह बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि देवकी न तो कुरुवंशमें उत्पन्न हुई थी, न सके मामाकी लड़की थी और न वैसे ही कंसद्वारा कल्पना की हुई बहन थी, बल्कि यह कंसके पिता उग्रसेनके सगे भाई अथवा कंसके सगे चचा देवसेनकी पुत्री थी--यदुवंशमें उत्पन्न हुई थीऔर इसी लिये नृप भोजकवृष्टि (या नर वृष्णि) तथा भोजकवृष्टि के भाई अंधकवृष्टि ( वृष्णि ) की पौत्री थी और उसे अंधकवृष्टि के पुत्र वसुदेव की भतीजी समझना चाहिये । इसी देवकीक साथ वसदेवका विवाह होने से साफ जाहिर है कि उस वक्त एक कदम्बमें भी विवाह हो जाता था और उसके मार्गमें आज कल जैमी गोत्रोंकी परिकल्पना कोई वाधक नहीं थी। अग्रवाल जैसी समृद्ध जाति भी इन्हीं कोम्बिक विवाहोंका परिणाम है। उसके श्रादिपरुषराजा अगसेनके सगे पोते पोतियों का-अथवा यो कहिये कि उसके एक पुत्रकी संततिका दूसरे पुत्रकी संततिके साथ-आपसमें विवाह हुआ था। आजकल
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुटुम्बमें विवाह ।
६५ भी अगवाल अगवालों में ही विवाह करके अपने एकहो वंशमें विवाहकी प्रथाको चरितार्थ कर रहे है और राजा ऋगसेनकी दृष्टिसे साभगवाल उन्हीं के एक गोत्री हैं। समालांच कजीने विरोधके लिये जिन प्रमाणों की उपस्थित किया था उनमें से एकभी विरोधक लिये स्थिर नहीं रह सका; प्रगत इसके सभी लेखकके कशन की अनुकूलतामें परिमात होगये और इस बातको जतला गये कि समारवाचकजी सत्य पर पर्दा डालनेकी धनमें समालोचना की हदसे कितने बाहर निकल गये - समालोचक के कर्तव्यसे कितने गिर गये- उन्होंने सत्यको छिपाने तथा असलियत पर पर्दा डालने की कितनी कोशिश की, कितना कोलाहल मचाया, कितना श्राडम्बर रचा और कितना पाखंड फैलाया परन्तु फिरभी चे उममें सफल नहीं हो सके ! सायही, उनके शास्त्रज्ञान और दंभविधानको भी सारी कलई खुलगई !! अस्तु ।
यह तो हुई उदाहरण के प्रथम अंश—'देवकीसे विवाह'के आशंपों की बात, अक्ष उदाहरणके दूसरे अंश- जरासे विवाह' को लीजिये।
म्लेच्छों से विवाह । लेखक ने लिखा था कि--" जरा किसी म्लेच्छराजाकी कन्या थी जिसने गंगा तट पर वसुदेवजी को परिभ्रमण करते हुर दखकर उनके साथ अपनो इस कन्या का पाणिग्रहण कर दिया था। पं० दौलतरामजी ने, अपने हरिवंशपुराणमें, इस राजा को 'म्लेच्छरखण्ड का राजा' बतलाया है और पं० गजाघरलालजी उसे ' भीलोका राजा' सत्रित करते हैं। वह राजा म्लेच्छखण्डका राजा हो पा पार्यस्वराडोद्भव म्लेच्छराजा, और चाहे उसे भीलों का राजा कहिये, परन्तु इसमें सन्देह नहीं कि
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
विवाह-क्षेत्र प्रकाश।
घह ार्य तथा उच्च जाति का मनुष्य नहीं था । और इस लिये उसे अनार्य तथा ग्लेच्छ कहना कुछ भी अनुचित नहीं होगा। म्लेच्छोंका श्राचार आम तौर पर हिंसा रति, मांसभक्षण में प्रीति और जबरदस्ती दूसरों की धनसम्पत्तिका हरना, इत्यादिक होता है; जैसा कि श्राजिनसेनाचार्यप्रणीत श्रादिपुराणके निम्नलिखित वाक्य से प्रकट है:-- म्लेच्छाचारो हि हिंसायां रतिमांसाशनेऽपि च । बलात्परस्वहरणं निधूतत्वमिति स्मृतम् ।।४२-१८४ ॥
वसुदेवजी ने, यह सब कुछ जानते हुए भी, बिना किसी झिझक और रुकावट के बड़ी खशी के साथ इस म्लेच्छ राजा को उक्त कन्या से विवाह किया और उनका यह विवाह भी उस समय कछ अनुचित नहीं समझा गया । बल्कि उस समय और उससे पहले भी इस प्रकार के विवाही का श्राम दस्तर था। अच्छे अच्छे प्रतिष्टित, उच्चकुलीन और उत्तमातम परुषों ने म्लेच्छ गजानी की कन्याओं से विवाह किया, जिनके उदाहरणोंसे जैन-साहित्य परिपूर्ण है।"
उदाहरण के इस अंश से प्रकट है कि लेखकन जितनी पार अपनी ओर से जरा के पिनाका उल्लेख किया है वह " म्लेच्छराजा" पद के द्वाग किया है, जिसमें ‘म्लेच्छ' विशेषण और 'राजा' रिशेप्य है ( म्लेच्छः राना म्लेच्छराजा) और उस का अर्थ होता है ‘म्लेच्छ जाति विशिष्ट राजाअथान म्लेच्छ जातिका राजा, वह राजा जिसकी जाति म्लेच्छ है, न कि यह गाजा जो आर्य जातिका होते हुए म्लेच्छों पर शासन करता है। परन्तु समालोचकजी ने दूसरे विद्वानों के अवतरणांको लेकर और उन्हें भी न समझ कर उनके शब्दछल से लेखक पर यह आपति की है कि उसने म्लेच्छखंडों पर
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
म्लेच्छों से विवाह ।
६७
शासन करने वाले श्रार्य जाति के चक्रवर्ती राजाओं को भी म्लेच्छ ठहरा दिया है ! आप लिखते हैं: :--
61
खूब [1] क्या मलेक्षों का राजा भी मलेक्ष ही होगा ? और भीलोंका राजा भी भील ही हो, इसका क्या प्रमाण ? यदि कोई हिन्दुस्तान का राजा हो तो हिन्दू ही हो सकता है क्या ? और जरमनका जरमनी तथा मुसलमानोंका मुसलमान ही हो सकता है क्या ? यदि ऐसा ही नियम होता तो चक्रवर्ती जोकि मलेक्षखण्ड के भी राजा होते हैं । लेखक महोदय के विचारानुसार वे भी मलेक्ष कह जाने चाहिये । इस नियमानुसार पूज्य तीर्थंकर श्री शांतिनाथ कुन्थुनाथ, अरहनाथ जोकि चक्रवर्ती थे, लेखक महोदय की सम्मति अनुसार वे भी इसी कोटि में आसकेंगे ? अतः इसका कोई नियम नहीं है कि किसी जाति या देशका राजा भी उसी जाति का हो अतः इस लेख से यह सिद्ध होता है कि जरा कन्या भील जाति की नहीं थी ।
""
पाठकजनं देखा ! समालोचकजी कितनी भारी समझ और अनन्य साधारण बुद्धिके थादमी है ! उन्होंने लेखकके कथनको कितनी बढ़िया समालोचना कर डाली !! और कितनी आसानी से यह सिद्ध कर दिखाया कि 'जरा' भील जातिकी कन्या नहीं थी !!! हम पूछते हैं यह कौन कहता है और किसने कहाँ पर विधान किया कि म्लेच्छांका राजा म्लेछही होता है, भीलोंका राजा भीलही होता है, हिन्दुस्तानका राजा हिन्दू ही होता है और मुसलमानोका राजा मुसलमानही हुआ करता है ? फिर क्या अपनी ही कल्पनाकी समालोचना करके आप खुश होते हैं ? क्या जिस राजाकी बाबत यह कहा जाता हो कि यह 'हिन्दूराजा'
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
विवाह-क्षेत्र प्रकाश ।
है आप उसे 'मुसलमान' समझते हैं ? और जिसे 'मुसलमान राजा' के नामसे पुकारा अथवा उल्लेखित किया जाता हो उसे 'हिन्द्र' खयाल करते हैं ? यदि नहीं तो फिर एक 'म्लेच्छ राजा' को म्लेच्छ न मानकर श्राप 'आर्य' कैसे कह सकते है ? 'हिन्दू' और 'मुसलमान' जिस प्रकार जातिवाचक शब्द हैं उसी प्रकार से 'मलेच्छ' भी एक जातिवाचक शब्द है। और ये तीनों ही राजा शब्द के पूर्ववर्ती होने पर अपने अपने उत्तरवर्ती राजाको जातिको सचित करते हैं। स्वयं श्रीजिनसेनाचार्य ने, अपने • हरिवंशपुराणमें, इस राजाको स्पष्ट रूपसे 'मलेच्छराज' लिखा है। यथा :--
चंपा-सरसि, संप्राप्य तस्यों सोमात्यदेहजाम् ।। ४ ।। तोयकीडा रतस्तत्र स हृतः सर्पकारिणा । विमुक्तश्च पपातासौ भागीरथ्यो मनोरथी ॥ ५ ॥ “पर्पटनटवीं तत्र म्लेच्छराजेन वीक्षितः । "परिणीय सुतां तस्य जराख्यां तत्र चावसत् ॥६॥
जरत्कुमारमुत्पाद्य तस्यामुन्नतविक्रमः । . इन पद्यों में यह बतलाया गया है कि-'चंपापीमें वहाँके मंत्रीकी पत्रीसे विवाह करके, एकदिन वसुदेव चंपा नगरीके सरांवरमें जलक्रीडा कर रहे थे, उनका शत्रु सूर्पक उन्हें हर कर लेगया और ऊपरसे छोड़दिया। वे भागीरथी (गंगा) नदी में गिरे और उसमें से निकल कर एक वनमें घमने लगे। वहां एक म्लेच्छ राजासे उनका परिचय हुआ, जिसकी 'जरा' नाम की कन्यासे विवाह करके वे वहाँ रहने लगे और उस स्त्री से उन्होंने 'जरत्कुमार' नामका पुत्र उत्पन्न किया।'
'मलेच्छसजसे श्रीजिनसेनाचार्यका अभिप्राय म्लेच्छजाति
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
६
म्लेच्छोसे विवाह। विशिष्ट राजा'का है, यह बात उनके इसी प्रन्थके दूसरे उल्लेखों से भी पाई जाती है। यथा :म्लेच्छराजसहस्राणि वीक्ष्य पूर्ववरूथिनीम् । टुभितान्यभिगम्याशु योधयामासरश्रमात् ।। ३०॥ ततः क्रुद्धो युधि म्लेच्छरयोध्यो दंडनायकः । युवा निर्धय तानाशु दधे नामार्थसंगतम् ॥ ३१ ॥ भयान्म्लेच्छास्ततो याताः शरणं कुलदेवताः। घोरान्मेघमुखानागान्दर्भशय्याधिशायिनः ॥ ३२ ॥
* * * ततो मेघमुखैम्लेंच्छाः प्रोक्ताः संहतवृष्टिभिः । चक्रिणां शरणं जग्मुरादाय वरकन्यकाः ॥ ३८ ॥
__-११वाँ सर्ग। यहाँ, उत्तर भारतखण्ड के म्लेच्छोंके साथ भरत चक्रवर्ती के सेनापति जयकुमारके युद्धका वर्णन करते हुए, पहले पद्यमें जिन सहस्रों म्लेच्छ राजाओं का “ म्लेच्छराजसहस्राणि" पदके द्वारा उल्लेख किया है उन्हें ही अगले पोंमें "म्लेच्छ." और “ म्लेच्छाः” पदों के द्वारा स्पष्ट रूप से ‘म्लेच्छ' सूचित किया है। और इससे साफ जाहिर है कि 'ग्लेच्छ राजा' का अर्थ म्लेच्छ जानिके राजासे है। और इस लिये जराका पिता म्लेच्छ था। पं० दौलतराम जी ने इस राजाको जोम्लेच्छखण्डका राजा बतलाया है उसका अभिप्राय 'म्लेच्छखंडोद्भव' ( म्लेच्छखण्डमें उत्पन्न हुए ) राजासे है-म्लेच्चखण्डी को
*यथा :-" सो गंगा के नीर एक नेच्छखंडका गजा ताने देखो। सो अपनी जरा नामा पत्री वसुदेव को परनाई।"
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
१००
विवाह- क्षेत्र प्रकाश |
जीत कर उन पर अपना श्राधिपत्य रखने वाले चक्रवर्ती राजा से नहीं । जान पड़ता है 'म्लेच्छराज' शब्द परसे ही उन्होंने उसे म्लेच्छ्रखण्ड का राजा समझ लिया है। और पं० गजाधर लाल जी ने जो उसे " भीलोका राजा लिखा है उसका
श्राशय भील जाति के राजा ( भिल्लराज ) से सदर से है जो म्लेच्छों की एक जाति है – भीलों पर शासन करने वाले किसी आर्य राजासे नहीं । जरासे उत्पन्न हुए जरत्कुमारका श्राचरण एक बार भील जैसा होगया था, इसी परसे शायद उन्होंने जराको भील कन्या माना है। आप 'पद्मावतीपुरवाल' ( वर्ष २ अंक ५वाँ ) में प्रकाशित अपने उसी विचार लेख में लिखते भी हैं
:–
"वास्तव मे उस समय भी संतान पर मातृपक्षका संस्कार पहुँचता था । श्रापने हरिवंशपुराण में पढा होगा कि जिस समय कृष्ण की मृत्यु की बात मुनिराज के मुख से सुन जरत्कुमार बनमें रहने लगा था उस समय उसके श्राचार विचार भील सरीखे होगयेथे, वह शिकारी होगया था । पीछे युधिष्टिर आदि के समझानेसे उसने भालके वेषका परित्याग किया था । "
इससे स्पष्ट है कि पं गजधिरलालजी ने जराके पिताको श्रार्य जातिका राजा नहीं समझा बल्कि 'भील' समझा है और
यथा : नदीको पार कर कुमार किसी वनमें पहुँचे वहाँ पर घूमते हुए उन्हें किसी भीलोंके राजाने देखा उनके सौंदर्य पर मुग्ध हो वह बड़े आदरसे उन्हें अपने घर लेगया और उसने अपनी जरा नाम की कन्या प्रदान की ।"
66
+ यथा: - भिल्लः, म्लेच्छ जातिविशेषः । भील इति भाषा | यथा हेमचंद्रे - माला मिलाः किराताश्च सर्वाऽपि म्लेच्छ जातयः । - इति शब्दकल्पद्र ुमः।
क्रि
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
म्लेच्छोसे विवाह ।
१०१ इस लिये उनके 'भीलों का राजा' शब्दोके छलको लेकर समालोचक जीने जो आपत्ति की हे वह बिलकुल निःसार है। पं० गजाधरलाल जी तो अपने उक्त लेख में स्वयं स्वीकार करते है कि उस समय म्लेच्छ किंवा भोलों आदि की कन्यासे भी विवाह होता था। यथा :"उस समय राजा लोग यदि म्लेच्छ किंवा भीलादि
की कन्याओसे भी पाणिग्रहण कर लेते थे तथापि उनके समान स्वयं ग्लेच्छ तथा धर्म कर्मसे विमुख न बन जातेथे किन्तु उन कन्याओं को अपने पथ पर ले पाते थे। और वे प्रायः पतिद्वारा स्वीकृत धर्मका ही पालन करती थी। इस लिये वसुदेवने जो जरा आदि म्लेच्छ कन्याओंके साथ विवाह किया था उसमें उनके धार्मिक रीतिरिवाजों में जरा भी फर्क न पड़ा था।" इस उल्लेख द्वारा प० गजाधरलाल जी ने जरा को साफ तौरसे । म्लेरछ कन्या' भी स्वीकार किया है और उसके बाद 'पादि' शब्द का प्रयोग करके यह भी घोषित कियाहै कि वसदेवने 'जरा' के सिवाय और भी म्लेछ कन्यानोसे विवाह किया था। समालोचकजी के पास यदि लजादेवी हो तो उन्हें, इन सब उल्लेखोंको देख कर, उसके आँचल में अपना मह छुपा लेना चाहिये और फिर कभी यह दिखलाने का साहस न करना चाहिये कि पंडितजी के उक्त शब्दों का पाच्य ' भील' राजा से भिन्न कोई ‘ार्य' राजा है।।
मालम होताहै समालोचक जी को इस खगालने घड़ा परेशान किया है कि भोल लोग बड़े काले, डरावने और बदसरत होते हैं, उनको कन्यासे वसुदेव जैसे रूपवान और अनेक रूप वती स्त्रियों के पति पुरुष क्यों विवाह करते । और इसीसे
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०२
विवाह क्षेत्रप्रकाश।
श्राप यहाँ तक कल्पना करने के लिये मजबर हुए हैं कि यदि वह कन्या ( जरा) भीलोने ही वसुदेव को दी हो तो वह जरूर किसी दूसरी जातिके राजाकी लड़की होगी और भील उसे छीन लाये होंगे । यथा :--. "... भील लोग जंगलों में रहने वाले जिनके विषयमें
शास्त्रों में लिखाहै कि वे बड़े काले,बदसूरत डरावने होते हैं। तो वसदेवजी ऐसे पराक्रमी और सन्दर कामदेवके समान जिनके रूपके सामने देवाङ्गनायें भी लजित होजावे, ऐसी राजाओंकी अनेक रूपवती और गणवती कन्याओं के साथ विवाह किया। उन को क्या ज़रूरत थी कि ऐसे बदसरत भीलकी लड़कोके साथ शादी करते। हाँ यह ज़रूर होसकता है कि भील किसी राजाकी लड़कीको छीन लाये हों और उसे सुन्दर खूबसूरत समझ कर वसुदेवको देदी हो। इससे सिद्ध है कि वह भीलकी कन्या
तो थी नहीं"। परन्तु सभी भील बड़े काले, बदसूरत और डरावने होते हैं, यह कौनसे शास्त्र में लिखा है और कहाँसे आपने यह नियम निर्धारित किया है कि भोलौकी सभी कन्याएँ काली, बदसूरत तथा डरावनी ही होनी हैं ? क्या रूप और कुनके साथ कोई अविनाभाव सम्बंध है ? हम तो यह देखते हैं कि अच्छे अच्छे उञ्चकुलों में बदसूरत भी पैदा होते हैं और नीचातिनीच कुलों में खबसूरत बच्चे भी जन्म लेने हैं । कुलका समग, दुर्भग और सौभाग्यके साथ कोई नियम नहीं है । इसी बातको श्रीजिनसेनाचार्यने वसुदेवके मुखसे, रोहिणीके स्वयंवरके अवसर पर कहलायो है। यथा :
कश्चिन्महाकुलीनोऽपि दुर्भगः सुभगोऽपरः ।
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
म्लेच्छों से विवाह |
१०३
कुल सौभाग्ययोर्ने प्रतिबन्धोस्ति कश्चनः ।। ५५ ।। - हरिवशपुराण, ३१वाँ सर्ग 1 पं मजधरलालजी ने इस पद्यका अनुवाद यो किया है :"कोई कोई महाकुलीन होने पर भी बदसूरत होता है
:--
दूसरा कुलीन होनेपर भी बड़ा सुन्दर होता है इस लिये कुनीन और सौभाग्य की आपस में काई व्याप्ति नहीं अर्थात् जो कुलीन हां वह सुन्दर हो हो और अलोन बदसूरत ही हो यह कोई नियम नहीं इसके सिवाय, जैनशास्त्रों में भीलकन्याओं से विवाह के स्पष्ट उदाहरण भी पाये जाते हैं, जिनमें से एक उदाहरण राजा उपश्रेणिक का लीजिये । ये राजा श्रोणिकके पिता थे । इन्हें एक बार किसी दुष्ट अश्वने लेजाकर भीलोकी पल्ली में पटक दिया था । उस पल्लीके भील राजाने जब इन्हें दुःखितावस्था में देखा तो वह इन्हें अपने घर लेगया और उसने दवाई भोजन पानादि द्वारा सब तरहसे इनका उपचार किया। वहाँ ये उसकी 'तिलकसुन्दरी' नामकी पुत्री पर शासक हा गये और उसके लिये इन्होंने याचना की । भील राजाने उपश्रोणिक से अपनी पुत्रीके को राज्य दिये जाने का वचन लेकर उसका विवाह उनके साथ कर दिया और फिर उन्हें राजगृह पहुँचा दिया । यथाःउपश्रेणिको(क१) वैरिनृपसोमदेव पितदुष्टाऽश्वेनोपश्रेणिको नीत्वा भिल्लपल्यां क्षिप्तो दुःखितो भिल्लराजेन दृष्टोगृहमानीत उपचरितः । तत्सुत्यं तिलकसुंदरीमीक्षित्वा तां तं ययाचे । एतस्या खुतं राजानं करिष्यामीति भाषां नीत्वा परिणाय्य तेन राजगृहं प्रापितः ।
1
- गद्य श्रेणिक चरित्र, ( देहली के नये मंदिरकी पुरानी जीर्ण प्रति) |
21
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
विवाह-क्षेत्र प्रकाश। .
इसी भील कन्यासे 'चिलातीय' नामका पुत्र उतान हुाथा, जिसे 'चिलाति पत्र' भी कहते हैं। प्रतिज्ञानुसार इसीको राज्य दिया गया और इसने श्रन्तको जिन दीक्षा भी धारण की थी।
इस लिये समालोचकजी का यह कोग भ्रम है कि सभी भील कन्या काली, बदसूरत तथा उरावनी होती हैं अथवा उनके साथ उच्चकुलोनोंका विवाह नहीं होता था। परन्तु जरा भील कन्या थी, यह बात जिनसेनाचार्यके उक्त वाक्योंकी लेकर निश्चित रूपसे नहीं कही जोसकती। उन परसे जगके सिर्फ म्लेच्छ कन्या होने का ही पता चलता है. म्लेच्छोंकी किसी जाति विशेषका नहीं। होसकता है कि पं० गजाधर. लाल के कथनानसार वह भील कन्या ही हो परन्तु पं० दौलतरामके कथनानमार वह म्लेन्छखंडके किसी ग्लेच्छराजा की कन्या मालूम नहीं होनी: क्योंकि जिनसेनाचार्यने साफ तौरसे वप्तदेवके चंपापरीसे उठाये जाने और भागीरथी गंगा नदीमें पटके जानेका उल्लेख किया है और यह वही गंगा नदी है जो यक्तप्रांत और बंगाल में को बहती है-वह महागगा नहीं है जो जैनशास्त्रानसार आर्यखण्डका म्लेच्छखण्डसे अथवा, उत्तरभारतमें, म्लेच्छखण्डका म्लेच्छखंडसे विभाग करती हैइसका भागीरथी नाम ही इसे उस महागंगासे पृथक करताहै, वह 'अकृत्रिम' और यह 'भागीरथ द्वारा लाई हुई है भगीरथेन सानीता तन भागीरथी स्मता)। चंपा नगरी भी इसके पास है। श्रतः 'जरा' इसी भागीरथी गंगाके किनारे के किसी स्नेन्छ राजाकी पुत्री थी और इससे यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि पहले नेच्छखण्डौके नेच्छोकी कन्यानोसे ही नहीं किंतु यहांके आर्यखएडोद्भव म्लेच्छोंकी कन्याओंसे भी विवाह होताथा। उपश्रेणिक का भील कन्यासे विवाह भी उसे पुष्ट करता है । इसके सिवाय यह बात इतिहास प्रसिद्ध है कि सम्राट चंद्रगुप्त मौर्यने सीरिया
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
. म्लेच्छोसे विवाह ।
१०५
के म्लेच्छराजा 'सिल्यूकस' की कन्यासे विवाह किया था। ये सम्राट चंद्रगुप्त भद्रवाहु श्रुतकेवलीके शिष्य थे, इन्होंने जैनमुनि दीक्षा भी धारण की थी, जिसका उल्लेख कितने ही जैन शास्त्रो तथा शिलालेखों में पाया जाता है। और जैनियोंकी क्षेत्रगणना के अनसार सीरिया भी श्रायवाडका ही एक प्रदेश है। ऐसी हालत में यह बात और मी निर्विवाद तशा निःसन्देह हो जाती है कि पहले श्रार्यखण्ड के ग्लेच्छों के साथ भी प्रायों अथवा उच्च कुलीनों का विवाह सम्बंध होता था।
हमारे समालोचकजी का चिस जग' के विषय में बहुत ही डांवाडोल मालूम होता है --वे म्वयं इस बात का कोई निश्चय नहीं कर सके कि जरा किस की पत्री थी-कभी उन का यह खयाल होता है कि जरा का पिता नच्छ या भील न हाकर नचलो अथवा भीलो पर शासन करने वाला कोई आर्य राजा होगा और उसीन अपनी कन्या वसुदेवको दी होगी; कभी वे सोचते हैं कि यह कन्या वस देवको दी तो होगी भील ने ही परन्तु वह कहीं से उसे छीन लाया होगा--उसकी वह अपनी कन्या नहीं होगी और फिर कभी उनके चित्त में यह ग्याल भी चक्कर लगाता है कि शायद जरा हो तो म्लेच्छकन्या ही, परन्तु वह क्षेत्र नेच्छ की--नंग्छखंड के म्नेछ कीकन्या होगी, उसका कुलाचार बुरा नहीं होगा अथवा उसके श्रीचरण में कोई नीचता नहीं होगी! खेद है कि ऐसे अनिश्चित और संदिग्ध चित्तवृत्ति वाले व्यक्ति भी सुनिश्चित बातों की समालोचना करके उन पर प्रादाप करने के लिये तय्यार हो जाते है और उन्हें मिथ्या तक कह डालने की धृष्टता कर बैठते हैं ! अस्तु; समालोचकजी, उक्त अवतरण के बाद अपने खयालों की इसी उधेड़बन में लिखते हैं:
“यदि थोड़ी देर के लिये यह मान लिया जाये कि
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०४
विवाह-क्षेत्र प्रकाश
.
इसी भील कन्यासे 'चिलातीय' नामका पुत्र उत्पन्न हुनाथा, जिसे 'चिलाति पत्र' भी कहते हैं। प्रतिज्ञानसार इसीको राज्य दिया गया और इसने श्रन्तको जिन दीक्षा भी धारण की थी।
इस लिये समालोचकजीका यह कोरा भ्रम है कि सभी भील कन्याएँ कालो, बदसरत तथा डरावनी होती हैं अथवा उनके साथ उञ्चकुलोनों का विवाह नहीं होता था। परन्तु जरा भील कन्या थी, यह बात जिनसेनाचार्य के उक्त वाक्योंकी लेकर निश्चित रूपसे नहीं कही जोसकती। उन परसे जगके सिर्फ म्लेच्छ कन्या होनेका ही पता चलता है. म्लेच्छोंकी किसी जाति विशेषका नहीं। होसकता है कि पं० गजाधरलाल के कथानानसार वह भील कन्या ही हो परन्तु पं० दौलतरामके कथनानुसार वह म्लेच्छखंडके किसी ग्लेच्छराजा की कन्या मालम नहीं होती: क्योंकि जिनसेनाचार्यने साफ तौरसे वसुदेव के चंपापुरीसे उठाये जाने और भागीरथी गंगा नदीमें पटके जानेका उल्लेख किया है और यह वही गंगा नदी है जो यक्तप्रांत और बंगालमें को बहती है-वह महागगा नहीं है जो जैनशास्त्रानुसार आर्यखण्डका म्लेरछनण्डसे अथवा, उत्तरभारतमें, म्लेच्छखराडका म्लेच्छखंडसे विभाग करती है--- इसका भागीरथी नाम ही इसे उस महागंगासे पृथक करताहै, वह 'अकृत्रिम' और यह 'भागीरथ द्वारा लाई हुई है भगीरथेन सानीता तन भागीरथी स्मृता )। चंपा नगरी भी इसके पास है। अतः 'जरा' इसी भागीरथो गंगाके किनारेके किसी लेन्छ राजाकी पुत्री थी और इससे यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि पहले नेछखराडोकेच्छोकी कन्याम्रोसे ही नहीं कि यहांके प्रायखण्डोद्भव म्लेच्छोंकी कन्याओंसे भी विवाह होताथा। उपश्रेणिक का भील कन्याले विवाह भी उसे पुष्ट करता है । इसके सिवाय यह बात इतिहास प्रसिद्ध है कि सम्राट चंद्रगुप्त मौर्यने सीरिया
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
म्लेच्छोंसे विवाह ।
१०५
के म्लेच्छराजा 'सिल्यकस' की कन्यासे विवाह किया था। ये सम्राट चंद्रगुप्त भद्रबाहु श्रुतकेवलीके शिष्य थे, इन्होंने जैनमुनि दीक्षा भी धारण की थी, जिसका उल्लेख कितने ही जैन शास्त्रों तथा शिलालेखों में पाया जाता है। और जैनियों की क्षेत्रगणना के अनमार सीरिया भी श्रायखगडका ही एक प्रदेश है। ऐसी हालत में यह बात और मी निर्विवाद तथा निःसन्देह हो जाती है कि पहले आर्यखण्ड के ग्लेन्छों के साथ भी पार्यों अथवा उच्च कुलीनों का विवाह सम्बंध होता था।
हमारे समालोचकजी का चित्त 'जग' के विषय में बहुत ही डांवाडोल मालम होता है.-वे स्वयं इस बात का कोई निश्चय नहीं कर सके कि जरा किस की पुत्री थी-कभी उन का यह खयाल होता है कि जरा का पिता बेच्छ या भील न होकर म्लेच्छों अथवा भीलों पर शासन करने वाला कोई आर्य राजा होगा और उमीन अपनी कन्या वसुदेवको दी होगा; कभी वे सोचत है कि यह कन्या वसुदेवका दी तो होगी भील ने ही परन्तु वह कहीं से उसे छीन लाया होगा-उसकी वह अपनी कन्या नहीं होगी-:और फिर कभी उनके चित्त में यह
याल भी चक्कर लगाता है कि शायद जरा हो तो म्लेच्छकन्या ही, परन्तु वह क्षेत्र म्लेच्छ की-मच्छखंड के म्नेछ कीकन्या होगी, उसका कुलाचार बुरा नहीं होगा अथवा उसके आचरण में कोई नीचता नहीं होगी ! खेद है कि ऐसे अनिश्चित और संदिग्ध चित्तवत्ति वाले व्यक्ति भी सनिश्चित यातो की समालोचना करके उन पर श्राक्षाप करने के लिये तय्यार हो जाते है और उन्हें मिथ्या तक कह डालने की घटता कर बैठते हैं ! अस्तु: समालोचकजी, उक्त अवतरण के बाद, अपने खयालों की इसी उधेड़बन में लिखते हैं:___यदि थोड़ी देर के लिये यह मान लिया जाये कि
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०६
विधाह क्षेत्र-प्रकाश। किसी मलेत की ही कन्या होगी तो मलेक्ष भी कितने ही प्रकारके शास्त्रों में कहे हैं। जिनमें एक क्षेत्र मलेक्ष भी हैं जो कि देश अपेक्षा मलेत कहाते हैं। लेकिन, कुलाचार बुरा ही होता हैं ऐसा नियम नहीं । जैले पंचाब में रहने वाले हरएक कौम के पंजाबी कहाते हैं,
और बंगाल में रहने वालों को बंगाली तथा मदरास में रहने वालों को मदरासी कहते हैं किन्तु उन सब का प्राचरण एकसा नहीं होता । इन देशों में सब ही ऊँचनीच जातियों के मनप्य रहते हैं फिर यह कहना कि अमुक मनप्य एक मदरासी या पंजाबी लड़की के साथ शादी कर लाया, यदि उसी की जाति की ऊँच खानदानकी लड़की हो तो क्या हर्ज है। इसलिये बाबू साहब जो लिखते हैं कि वह कन्या नीच थी यह बात सिद्ध नहीं हो सकती नीच हम जब ही मान सकते हैं जबकि कन्याके जीवनचरित्रमें कुछ नीचता दिखलाई हो।"
अपने इन वाक्यों द्वारा समालोचकजी ने यह सूचित किया है कि घम्लेच्छ खंडो (म्लेच्छ क्षेत्रों) को पंजाब, बंगाल तथा मदरास जैसी स्थितिके देश समझते है, उनमें सबही ऊँच नीच जातियों के आर्य अनार्य मनष्योका निवास मानते है और यह जानते हैं कि वहाँ ऐसे लोग भी रहते हैं जिनका कुलाचार बरा नहीं है। इसी लिये संभव है कि घसदेवजी वहीं से अपनी ही जातिकी और किसी ऊँचे वंशकी यह कन्या (जरा) विवाह कर ले श्राप हो। परन्तु समालाचकजीका यह कोरा भ्रम है
और जैनशास्त्रोसे उनकी अनभिज्ञताको प्रकट करता है ! वसुदेव 'जरा' को किसी म्लेच्छ-खंडसे विवाह कर नहीं लाए, बल्कि बह चंपापुरीके निकट प्रदेशमै भागीरथी गंगाके श्रासपास रहने वाले किसी नेच्छ राजाकी कन्याथी, यह बाततो ऊपर श्रीजिन
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
--
---
-
म्लेच्छोसे विवाह । सेनाचार्य के वाक्योंसे सिद्ध की जा चुकी है । अब मैं इस भ्रमको भी दूरकर देना चाहता हूँ कि जैनियों के द्वारा माने हुए *नेच्छ: खण्डोंमें आर्य जनताका भी निवास है :
श्रीअमृतचन्द्राचार्य, तत्वार्थसारमें, मनुष्योंके आर्य और मेच्छ ऐसे दो भेदोका वर्णन करते हुए, लिखते हैं :
आर्यखण्डोद्भवा पायर्या म्लेच्छाः केचिच्छकादयः। म्लेच्छखण्डोद्भवाम्लेच्छाअन्तर्वीपजा अपि ॥२१२।। अर्थात्-आर्य खण्डमें जो लोग उत्पन्न होते है.वे 'आर्य' कहलाते हैं परन्तु उनमें जो कुछ शकादिक (+शक, यवन, शवर पुलिन्दादिक) लोग होते हैं वे म्लेच्छ कहे जाते हैं और जो लोग म्लेच्छखण्डोंमें तथा अन्तर्वीपोंमें उत्पन्न होते हैं उन सबको 'म्लेच्छ' समझना चाहिये।
इससे प्रकट है कि आर्य खण्डमें जो मनुष्य उत्पन्न होते हैं वे तो आर्य और म्लेच्छ दोनों प्रकारके होते हैं, परन्तु म्लेच्छखंण्डोंमें एकही प्रकारके मनुष्य होते हैं और वे म्लेच्छ ही होते हैं । भावार्थ, म्लेच्छोंके मूल भेद तीन हैं १ श्रार्य खण्डोद्भव, २ म्लेच्छखण्डोद्भव x, ३अन्तीपज और पार्योका मूलभेद एक आर्यखण्डोद्भव ही है। जब यह बात है तब म्लेच्छखण्डों में आर्य राजाओका होना और उनकी कन्याओंसे चक्रवर्ती श्रादिका
*अाधुनिक भूगोलवादियोंको इन म्लेच्छ खगडोंका अभी तक कोई पता नहीं चला। अब तक जितनी पृथ्वीको खोज हुई है वह सब, जैनियोंकी क्षेत्र गणना के अनुसार अथवा उनके मापकी दृष्टिसे, आर्य खण्डके ही भीतर आ जाती है।
+ यथा :-"शकयवनशवरपलिंदादयः म्लेच्छाः ” xइन पहले दो भेदोका नाम 'कर्मभूमिज' भी है।
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०८
विवाह-क्षेत्र प्रकाश।
विवाह करना अथवा वसूदेवका यहाँसे अपनी ही जातिकी कन्याका ले श्रीना कैसे बन सकता है? कदापि नहीं। और इस लिये यह समझना चाहिये कि जिन लोगोने-चाहे वे कोई भी क्यों न हो-म्लेच्छ खंडोंकी कन्याओंसे विवाह किया है उन्होंने म्लेच्छोकी म्लेच्छ कन्यायोंसे विवाह किया है । म्लेच्छत्वकी दृष्टि से कर्मभूमिके समीम्लच्छ समान हे और उनका प्रायः वही समान प्राचार है जिसका उल्लेख भगवजिनसेना. चार्यने अपने उस पद्यम किया है जो ऊपर उद्धृत किये हुए उदाहरणांश में दिया हुआ है। समालोचकीको यह म्लेच्छाचार देखकर बहुतही तामहुश्रा मालम होता है। श्रापने जराके पिताको किसी तरह पर उस म्लेच्छाचारसे सुरक्षित रखने के लिये जो प्रपंच रचा है उसे देखकर बड़ा ही आश्चर्य तथा खेद होता है ! आप सबसे पहले लेखक पर इस बातका भाक्षेपकरते है कि उसने उक्त पद्यक आगे पाछेक दोचार श्लोकोको लिखकर यह नहीं दिखलाया कि उसमें केस म्लेच्छोका प्राचार दियाहा है। परन्तु स्वयं उन श्लाकोंको उधत करके और सबका अर्थ देकर भी आप उक्त पद्यक प्रतिपाद्यविषय अथवा अर्थ-सबंध किसी भी विशेषताका उल्लेख करने केलिये समर्थ नहीं होसकेयह नहीं बतला सके कि वह हिसाम रति, मांसभक्षण प्राति और जबरदस्ती दूसरोकी धनसम्पत्तिका हरना, इत्यादिम्लेच्छों का प्रायः साधारण पाचरण न होकर अमुक जातिके म्लेच्छोंका प्राचार है । और न यह ही दिखलासकं कि लेखकके उद्धत किये हुए उक्त कद्यका अर्थ किसी दूसरे पद्य पर अवलम्बित है, जिसकी वजहसे उस दूसर पद्यको भी उद्धृत करना जरूरी था और उसे उद्धत न करनेसे उसके अर्थम अमुक बाधा श्रागई। वास्तवमै वह अपने विषयका एक स्वतंत्र पद्य है और उसमें 'म्लेच्छाचारी हि' और 'इतिस्मृतम्' ये शब्द साफ
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
म्लेछोसे विवाह ।
१०६ पतला रहेहैं कि उसमें हिंसायां रतिः' (हिंसा रति ) आदि रूपसे जिस प्राचारका कथन है वह निश्चयसे म्लेच्छाचार हैम्लेच्छोंका सर्व सामान्याचार है। 'इतिस्मृतम्' शब्दोंका अर्थ होता है ऐसा कहा गया, प्रतिपादन किया गया अथवा स्मृति · शास्त्र द्वारा विधान किया गया। हाँ, अगले पद्यका अर्थ इस पद्य पर अवलम्बित जरूर है, और वह अगला पद्य जिसे समालोचक जी ने भी उद्धृत किया है इस प्रकार है :
सोऽस्त्यमीषां च यद्वेदशासार्थमधमद्विजाः। तादृशं बहुमन्यन्ते जातिवादावलेपतः ॥ ४२-१८५ इस पद्यमें बतलाया गया है कि 'घह ( पूर्व पद्यमें कहा हुश्री ) म्लेच्छाचार इन ( अक्षर ग्लेच्छों) में भी पाया जाताहै. क्योंकि ये अधमद्विज अपनी जातिके घमंडमें श्राकर वेदशास्त्रों के अर्थको उस रूपमें बहुत मानते हैं जो उक्त म्लेच्छाचारका प्रतिपादक है। और इस तरह पर जो लोग वेदार्थ का सहारा लेकर यज्ञो तथा देवताओं की बलि के नामसं बेचारे मूक पशुओं की घोर हिंसा करते तथा मांस खाते हैं उनके उस पाचारको म्लेच्छाचारकी उपमा दी गई है और उन्हें कथंचित् *अक्षर म्लेच्छ ठहराया गया है। इससे अधिक इस कथनका ग्रन्थमें कोई दूसरा प्रयोजन नहीं है। इस पद्यके “ सोऽस्त्यभीषांच" शब्द साफ बनला रहे हैं कि इससे पहिले लेच्छोंके सर्वसाधारण श्राचारका उल्लेख किया गया है और उसी ग्लेछाचार से इन अधर्म द्विजोके प्राचार की तुलना की गई है न कि इन्हीं का उक्त पद्यमे प्राचार बतलाया गया है। इसी प्रकरण के एक
___ *ऐसे लोगोको, किसी भी रूपमें उनकी जातिको सचित किये बिना, केवल ग्लेच्छ नामसे उल्लेखित नहीं किया जाता।
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
विवाह क्षेत्र-प्रकाश ।
दूसरे पद्यमें भी इन लोगों के प्राचारको ग्लेच्छाचारकी उपमा दी गई है, लिखा है कि 'तुम निव्रत हो (अहिंसाविव्रततों के पालनसे रहित हो), निमस्कार हो, निर्दय हो, पशघाती हो
और ( इसी तरह के और भी ) म्लेच्छाचार में परायण हो, तुम्हें धार्मिक द्विज नहीं कह सकते । यथाःनिव्रता निर्नमस्कारा निघणाः पशुपातिनः । म्लेच्छाचारपरा ययं न स्थाने धार्मिकद्विजाः ॥ १६० ।।
इससे भी हिंसा में रति' आदि म्लेच्छों के साधारण प्राचारका पता चलता है। परन्तु इतने पर भी समालोचकजी लेखक की इस बात को स्वीकार करते हुए कि 'अच्छे अच्छे प्रतिष्ठित, उचकलीन और उत्तमोत्तम परुषों ने म्लेच्छराजाओं की कन्याओं से विवाह किया है" लिखते हैं:
"ठीक है हम भी इस बातको मानते हैं कि चक्रवर्ती म्लेच्छखंड के राजाओं की कन्याओंसे विवाह कर लाते थे लेकिन वे क्षेत्रको अपेक्षा से म्लेच्छ राजा कहाते थे । यह बात नहीं है कि उनके आचरण भी नीच हो या वे माँसखोर व शराबखोर हो अथवा
आपके लिखे अनसार हिंसामें रति मांसभक्षण में प्रीति रखने वाले और जबरदस्ती दूसरोका धन हरण करने वाले हो। बाबू साहब आपको लिखो हुई यह बात उन म्लेच्छ गजाओं में कभी नहीं थी। आपने जो म्लेच्छों के आचरण संबन्धी श्लोक दिया है वह केवल जनतामे भ्रम फैलाने के लिये ऊपर नीचे का संबन्ध छाड़कर दिया है”। इसके बाद म्लेच्छोंके इस प्राचार की कुछ सफाई पेश करके, आप फिर लिखते हैं:
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
म्लेच्छोसे विवाह । " उन मलेशीमें हिंसा मांसभक्षण आदि की प्रवृत्ति सर्वथा नहीं थी।" ___ "बहुनसे लोग जो म्लेच्छोंको नोच और कदाचरणी समझ रहे हैं उनकी यह समझ बिलकु न मिया है।"
"इन मलेक्ष गजाओ का नीच हिसक मांसखोर प्रादि कहना था मिथ्या और शास्त्र विरुद्ध है।"
प.ढक जन, देखा ! समालोचकजीने म्लेच्छखण्डके म्लेच्छों को किस टाइपक म्लेच्छ समझा है । कैसा विचित्र सृष्टि का अनुसंधान किया है ! श्रापको तो शायद स्वप्न में भी उसका कभी खयाल न पाया हो। अच्छा होता यदि समालोचकजी उन म्लेच्छोका एक सर्वांगपूर्ण लक्षण भी दे देते । समझमें नहीं श्राता जब लाग दिसा नहीं करते, माँस नहीं खाते, शराब नहीं पीत, जबरदस्ती दूसरोका धन नहीं हरते, अन्याय नहीं करते; ये सब बात उनमें कभी थी नहीं, वे इनकी प्रवत्तिसे सर्वथा रहित है और साथही नीव लथा कदाचरणी भी न ही है, तो फिर उन्हें 'म्लेच्छ क्यों कहा गया। उनकी पवित्र भूमिको 'म्लेच्छखण्ड'की सज्ञा क्यों दीगई? क्या उनसे किसी प्राचार्य का कोई अपराध बनगयाथा या वैसेही किसो श्राचार्यका सिर फिर गया था जो एस हिंसादि पापांस सस्पृष्ट पूज्य मनुप्योको भा 'म्लेच्छ' लिख दिया ? उनसे अधिक श्रायकि ओर क्या कोई सींग होते हैं, जिससे मनुष्य जातिके आर्य और म्लेच्छ दा खास विभाग किय गये है ? महाराज ! आपकी यह सब कल्पना किसीभी समझदारको मान्य नहीं हो सकती। म्लेच्छ प्रायः मलिन और दूषित आचार वाले मनुष्यों का ही नाम है, जिन लोगों में कुल-परम्परासे ऐसे कदाचार रूढ होजातेहै उन्हीं की म्लेच्छ संज्ञा पड़ जाती है। श्रीविद्यानंदाचार्य. कर्मभूमिज म्लेच्छोंका वर्णन करते हुए, जिनमें प्रार्यखंडोद्भव और म्लेच्छ
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
विवाह-क्षेत्र प्रकाश।
खण्डोन दोनों प्रकारके म्लेच्छ शामिल हैं, साफ़ लिखते हैं:
कमभूमिभवा म्लेच्छाः प्रसिद्धा यवनादयः । स्युः परे च तदाचार पालनाद्बहुधा जनाः ॥
-श्लोक वार्तिक । अर्थात-कर्मभूमियों में उत्पन्न हुए जो म्लेच्छ हैं उनमें यवनादिक तो प्रसिद्धहीं है बाको यवनादिकसं भिन्न जो दूसरे बहनसे म्लेच्छ है वे सब यवनादिको ( यवन, शवर, पलिदादिको ) के प्राचारका ही पालन करते है और इसीसे म्लेच्छ कहलात है।
इससे साफ जाहिर है कि म्लेच्छखण्डोंक म्लेच्छोंका प्राचार यहाँके शक, यवन शवादि म्लेच्छाक आचारसे भिन्न नहीं है
और इसलिये यह कहना कि 'नन्छ खंडाके मच्छोम हिंसा तथा मांसभक्षणदि का सर्वथा प्रवत्ति नहीं' श्रागमें बाग लगाना है । श्राविद्यातदाचाय नन्छाक नोच गात्रादिका उदयभी बतलाते है-लिखते हैं उच्च गात्रादिक उदयसे आर्य और मीच. गोत्रादिक उदयसे म्लेच्छ होते हैं। यथा:
"उच्चैर्गोत्रोदयादेराया नीचर्गोत्रादेश्चम्लेच्छाः।" सब. क्या समालोचकजी इन विधानीक कारण, अपने उक्त पाक्यों के अनुसार, श्री विद्यानंदाचार्य की समझ को “बिलकुल मिथ्या" और उनके इस नीच श्रादि कशनको “सर्वथा मिथ्या और शास्त्र विरुद्ध" कहनेका साहस करते हे ? यदि नहीं तो उन्हें अपने उक्त निरगल और निःसार वाक्योंके लिये पश्चाताप होना चाहिये। औरखेद है कि समालोचकजीन बिना सोचे समझे जहाँ जो जी में आया लिख मारा है ! लेखकके शास्त्रीय वर्णनोको इसी तरह सर्वथा मिथ्या और शास्त्र विरुद्ध' बतलाया गया है, और यह उनके सर्वधा मिथ्या और शास्त्रविरुद्ध
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
म्लेच्छोंसे विवाह ।
११३
कथन-टाइपका एक नमना है-उसकोखास बानगी है । खाली इस बातको छिपाने के लिये कि 'जरा' ऐसे मनुष्य की कन्या थी जो म्लेच्छ होनेसे हिंसक और मांस-भक्षक कहा जासकता है आपने म्लेच्छाचारको हो उन्नर देना चाहा है, यह कितना दु साहस है! म्लेच्छोका प्राचार तो हिन्दू ग्रन्या से भी मांस भक्षणादिक रूप पाया जाता है, जैसा कि प्रायश्चित्तत्व' में कहे हुए उनके बौधायन प्राचार्य के निम्न वाक्यसे ग्रकटहै :
गोमांस खादको यस्तु विरुद्धं बहु भापते । सर्वाचारविहीनश्च म्लेच्छ इत्यभिधीयते ।। अर्थात्--जो गो-मांस भक्षण करता है, बहुत कुछ विरुद्ध बोलता है और सर्व धर्माचारसे रहित है उसे म्लेछ कहन है ।
अब समालोचक जी की उस सफाईका भी लीजिय जो श्राएन उन म्लेच्छाके प्राचार-विषयम पंश की है, और वह आदिपुराणके निम्न दो श्लोक है, जिनमें म्लेच्छरवगडोके उन स्नेच्छोंका उल्लेख किया गया है जिन्ह भरत चक्रवर्तीके सेनापतिने जीत कर उनसे अपने स्वामीक भाग-योन्य कन्यादि रत्नोंका ग्रहण कियाथा: -
" इत्युपायैरुपायज्ञः साधयन्म्लेच्छभू भुजः। तेभ्यः कन्यादिरत्नानि प्रभोर्नोग्यान्यपाहरत् ।।१४१ धर्मकर्म-वहिता इत्यमी म्लेच्छका मताः।
अन्यथान्यैः समाचारैरायर्यावर्तेन ते समाः।।१४२" इन पद्योंमें से पहले पद्यमे तो म्लेच्छ राजाओंको जीतने और उनसे कन्यादि रत्नोंके ग्रहण करनेका वही हाल है जो ऊपर बतलाया गया है और दूसरे पद्यमें लिखा है कि लोग धर्म (अहिंसादि) और कर्म (निरामिष भोजनादिरूप
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
११४
विवाह-क्षेत्र प्रकाश।
सदाचार ) से रहित हैं-भ्रष्ट है-इस लिये इन्हें म्लेच्छ कहते हैं, अन्यथा, दूसरे श्राचरणों (असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य, शिल्प और विवाहादि कर्मों ) की दृष्टिसे आर्यावर्त की जनताके समान है (अन्तर्वीपज म्लेच्छोंके समान नहीं)।' ___ बस, इस एक श्लोक पर से ही समालोचकजी अपने उस सब कयन का सिद्ध समझते है जिसका विधान उन्होंने अपने उक्त वाक्यों में किया है ! परन्तु इस श्लोक में तो साफ तौर पर उन म्लेच्छा का धर्म कर्म स वाहभन ठहगया है, और इससे अगलं हा निम्न पद्य में उनके निवासस्थान म्लेच्छखण्डका 'धम कर्म की अभमि प्रतिपादन किया है । अथात् , यह बतलाया है कि वह भूमि धर्म कर्म के प्रधाग्य है-वहां अहिंसादि धर्मों का पालन और सत्को का अनुष्ठान नहीं बनता:
इति प्रसाध्य तां भूमिमभूमि धर्मकर्मणाम् । म्लेच्छराजवलैः साई सनानीव्यवृतन्पुनः ।। १४३।।
-आदिपुराण, २१वा पर्व । फिर समालोचकजी किस आधार पर यह सिद्ध समझते हैं कि उन म्लेच्छों में हिंसा तथा मांसभक्षणादिक की प्रवृत्ति सर्वथा नहीं है ? हिंसा तो अधर्म ही का नाम है और मांस भक्षणादिक को असत्कर्म कहत हैं. ये दोनों ही जब वहाँ नहीं
और वे लोग नीच तथा कदाचरणी भी नहीं तब तो वे खासे धर्मात्मा, सत्कर्मी और आर्यखण्ड के मनुष्यों से भी श्रेष्ट ठहरे, उन्हें धर्म कर्म से वाहभूत कैसे कहा जा सकता है ? क्या धर्म कर्म के और कोई सींग पूंछ होते है जो उनमें नहीं है और इसलिये वे धर्म-कर्म से वहिर्भूत करार दिये गये हैं ? जान पड़ता है यह सब समालोचकजी की विलक्षण समझ का परिपाम है, जो आप उन्हें म्लेच्छ भी मानते हैं, धर्म कर्म से वहि
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
म्लेच्छोसे विवाह ।
११५ भत भी बतलाते हैं और फिर यह भी कहते हैं कि वे हिंसा तथा मांसभक्षणादिकसे अलिप्त हैं-उनमें ऐसे पापों तथा कदाचरणों की प्रवृत्ति ही नहीं ! ! वाह ! क्या खष !! समालोचक जीकी इस समझ पर एक फार्सी कवि का यह वाक्य बिलकुल चरितार्थ होता है:
“वरी अक्लोदानिश बबायद गरीस्त ।" अर्थात-ऐसो बुद्धि और समझ पर रोना चाहिये ।
आप लिखते हैं : यदि वे [म्लेच्छ नीच होते तो 'उनके अन्य सब प्राचरण श्रार्यखण्डके समान होतेहैं' ऐसा प्राचार्य कभी नहीं लिखते।" परन्तु खेद है आपने यह समझने की जरा भी कोशिश नहीं की कि वे आचरण कौनसे हैं और उन की समानतासे क्या वह नीचता दूर होसकती है। इसी देश में भी जिन्हें आप नीच समझते हैं उनके कुछ आचरणोंको छोड़ कर शेष सब आचरण ऊंचसे ऊँच कहलानेवाली जातियों के समान है। तब क्या इस समानता परसे ही वे ऊच होगये और आप उन्हें ऊँच मानने के लिये तय्यार है ? यदि समानता का ऐसा नियम हो तब तो फिर कोई भी नीच नहीं रह सकता और श्री विद्यानन्दाचार्यन गलती की जो म्लेच्छके नीच गोत्रादिका उदय बतला दिया। परन्तु ऐसा नहीं है: वास्तवमें ऊँचता और नीचता खास खास गण दोषा पर अवलम्बित होती है-दूसरे पाचरणों की समानतासे उसपर प्रायः कोई असर नहीं पड़ता।
लेखकने, यद्यपि, अपने लेख में यह कहीं नहीं लिखा था कि जर। 'नीच थी,' जैलाकि समालोचकजाने अपने पाठकों को सुझाया है किन्तु उसके पिताकी बाबत सिर्फ इतना ही लिखा था कि 'वह श्राय तथा उच्च जातिका मनष्य नहीं था, फिर भी समालोचक जी ने, जराकी नीचताका निषेध करते हुए,
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
विवाह-क्षेत्र-प्रकाश।
जो यह लिखने का कष्ट उठाया है कि " नीच हम [उसे तबही मान सकते है जवकि उस कन्याके जीवन चरितमें कुछ नीचता दिखलाई हो,” इसका क्या अर्थ है वह कुछ समझमें नहीं पाता । क्या समालोचकजी इसके द्वारा यह प्रतिपादन करना चाहते हैं कि किसी तरह पर अच्छे संस्कारों मेंरहने के कारण नीच जातिमें उत्पन्न हुई कन्याओं के जीवनचरित में यदि नीचताकी कोई बात न दिखलाई पड़ती हो तो हम उन्हें ऊँच मानने, उनसे ऊँच जातियों की कन्याओं जैसा व्यहार करने और ऊँच जाति वाला के साथ उनके विवाह-सम्बंधको उचित ठहराने के लिये तय्यार है ? यदि ऐसा है तब तो श्राप का यह विचार कितनी ही दृष्टियों से अभिनंदनीय होसकताहै, और यदि वैसा कुछ श्राप प्रतिपादन करना नही चाहते तो आप कायह लिखना बिलकुल निरर्थक और अप्रासंगिक जान पड़ता है।
हमारे समालोचजीको एक बड़े फिक्रन और भी घेरा है और वह है भरत चक्रवर्तीका म्लेच्छ कन्याओंसे माना हुश्रा (almitt (d) विवाह । आपकी समझमें.म्लेन्छोको उच्चजातिके न मानने पर यह नामुमकिन (असंभव) हैं कि भरतजी नीच जाति की कन्याासे विवाह करते, और इसीलिये आप लिखते हैं:"यह कभी संभव नही हो सकताकि जो भरत गहस्था.
वस्थामै अपने परिणाम ऐसे निर्मल रखते थे कि जिन्हें दीक्षा लेतही केवल ज्ञान उत्पन्न हो गया और जिनके लिये "भरत घरमें ही वैरगो" आदि अनेक प्रकारकी स्तुतिए प्रसिद्ध हैं वे भरत नीच कन्याओं से विवाह करें। ऐसे महापुरुषों के लिये नीच कन्याओं के साथ विवाह की बात कहना केवल उनका
अपमान करना है उन्हें कलंक लगाना है।" इसके उत्तरमें हम सिर्फ इतनाही कहना चाहते हैं कि
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
म्लेच्छौसे विवाह |
११७
भरतजी किसी वक्त घरमें वैरागी जरूर थे परन्तु वे उस वक्त वैरागी नहीं थे जबकि दिग्विजय कर रहे थे, युद्धमें लाखों जीवोंका विध्वंस कर रहे थे और हजारों स्त्रियों से विवाह कर रहे थे । यदि उस समय, यह सब कुछ करते हुए भी वे वैरागी थे तो उनके उस सुदृढ़ वैराग्यमें एक नीच जातिकी कन्यासे विवाह कर लेने पर कौनसा फर्क पड़ जाता है और वह किधर से बिगड़ जाता है ? महाराज ! आप भरतजी की चिन्ताको छांड़िये, वे आप जैसे अनुदार विचारके नहीं थे । उन्होंने राजाश्रौको क्षात्र धर्मका उपदेश देते हुए स्पष्ट कहा है :
स्वदेशेऽनतरम्लेच्छान् प्रजावाधाविधायिनः । कुलशुद्धिप्रदानायैः स्वसात्कुर्यादुपक्रमैः ॥ १७६ ॥ - आदिपुराण, पर्व ४२ वाँ ।
अर्थात् श्रपने देश में जो अज्ञानी म्लेच्छ प्रजाको बाधा पहुँचाते हो लटमार करते हो उन्हें कुलशुद्धि-प्रदानादिकके द्वारा अपने बना लेने चाहियें ।
क्रमशः
यहाँ कुल शुद्धि के द्वारा अपने बना लेने का स्पष्ट अर्थ म्लेच्छों के साथ विवाह संबंध स्थापित करने और उन्हें अपने धर्म में दीक्षित करके अपनी जाति में शामिल कर लेनेका है । साथ ही, यहभी जाहिर होता है कि म्लेच्छों का कुल शद्ध नहीं। और जब कुलही शुद्ध नहीं तब जातिशुद्धि की कल्पना तो बहुत दूरकी बात है ।
भरतजीने, अपने ऐसेही विचारों के अनुसार, यह जानते हुए भी किच्छा कुन शुद्ध नहीं है. उनकी बहुतसी कन्याश्र से विवाह किया । जिनकी संख्या, श्रादिपुराण में, मुकुटबद्ध राजाओं की संख्या जितनी बतलाई है। साथ ही, भरतजीकी कुलजातिसंपन्ना स्त्रियों की संख्या उससे अलग दी है । यथा:--
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
विवाह क्षेत्र-प्रकाश।
-
-
----
-
--
--
-
------
-
-
कुलजात्यभिसम्पन्नो देव्यस्तावत्पमाः स्मृताः । रूपलावण्यकान्तीनां याः शुद्धाकरभूमयः ॥ ३४ ॥ म्लेच्छराजादिभिर्दत्तास्तावन्त्यो नृपवन्लभाः। अप्सरः संकथा क्षोणीं यकाभिरवतारिताः।। ३५ ।।
-३७ वाँ पर्व । इनमेंसे पहिले पद्यमें आर्य जातिकी स्त्रियों का उल्लेख है और उन्हें 'कुलजात्यभिसंपन्ना' लिखा है । और दूसरे पद्यमें म्लेच्छ जातिके राजादिकों की दी हुई स्त्रियों का वर्णन है । इससे जाहिर है कि भरत चक्रवतीने म्लेच्छोको जिन कन्याओं से विवाह किया वे कुल जातिसे संपन्न नहीं थी अर्थात्, उञ्चकुल जातिकी नहीं थी । साथही, 'म्लेच्छराजादिभिः' पदमें आए हुए 'पादि' शब्दसे यह भी मालम होता है कि वे म्लेच्छ कन्याएँ केवल म्लेच्छ राजाओं ही की नहीं थी बल्कि दूसरेम्लेच्छोकी भी थी । ऐसी हालतमें समालोचजीकी उक्त समझ कहाँ तक ठाक है और उनके उस लिखने का क्या मल्य है, इसे पाठक स्वयं समझ सकते है । लेखक तो यहाँ पर सिर्फ इतना और बतला देना चाहता है कि पहले जमाने में दुष्कुलोसे भी उत्तम कन्याएँ ले ली जाती थीं और उन्हें अपने संस्कारों द्वारा उसी तरह पर ठोक कर लिया जाता था जिस तरह कि एक रत्न संस्कारके योगसे उत्कर्षको प्राप्त होता है अथवा सुवर्ण धातु संस्कारको पाकर शुद्ध हो जाता है। इसीस यह प्रसिद्धि चली आती है... "कन्यारत्नं दुष्कुलादपि" । अर्थात, दुष्कुलसे भी कन्यारत्न ले लेना चाहिये । उस समय पितकलं और मातृकुल की शुद्धिको लिये हुए ‘सजाति' दो प्रकारको मानी जाती थी--एक शरीर जन्मसे और दूसरी संस्कारजन्मसे । शरीर जन्मसे उत्पन्न होने वाली सज्जातिका सद्भाव
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
म्लेच्छों से विवाह |
१९६
प्रायः श्रार्य खण्डों में माना जाता था *-- म्लेच्छ खण्डों में नहीं । म्लेच्छखण्डों में तो संस्कार जन्मले उत्पन्न होनेवाली सजातिका भी सद्भाव नहीं बनता; क्योंकि वहाँकी भूमि धर्म कर्म के अयोग्य है-- उसका वातावरणही बिगड़ा हुआ है। हाँ, वहाँके जो लोग यहाँ श्राजाते थे वे संस्कारके बलस सज्जातिमें परिणत किये जा सकते थे और तब उनकी म्लेच्छसंज्ञा नहीं रहती थी । यहाँ की जो व्यक्तियाँ शरीरजन्मसे श्रशुद्ध होती थी उन्हें भी अपने धर्म में दीक्षित करके. संस्कार जन्म के योग से सज्जानिमें परिणत कर लिया जाताथा और इस तरह परनीचों को ऊँच बना लिया जाताथा। ऐसे लोगों का वह संस्कार जन्म' योनिसंभव' कहलाता था + | म्लेच्छा के त्रास अथवा दुर्भिक्षादि किसी भी कारणसे यदि किसीके सत्कुल में कोई बट्टा लग जाता थादोष आजाता था -- तो राजा अथवा पंचों श्रादिकी सम्मति से उसकी कुलशुद्धि हो सकती थी और उसकुलके व्यक्ति तब उपनयन (यज्ञोपवीत) संस्कार के योग्य समझे जाते थे । इस कुलशुद्धिका विधान भी आदिपुराण में पाया जाता है । यथा :
* संजन्मप्रतिलभोऽयमार्यावर्त्त विशेषतः ।
सतां देहादिसामग्र्यां क्षेत्रः सूते हि देहिनाम् ॥८७॥ शरीरजन्मना सैपा सज्जातिरूपवर्णिता । पतन्मूला यतः सर्वाः पुंसामिष्ठार्थसिद्धयः ॥ ८ ॥ संस्कारजन्मना चान्या सज्जातिरनुकात्येते । यामासाद्य द्विजन्मत्वं भव्यात्मा समुपाश्नुते ॥ ८॥ - आदिपुराण, ३८याँ पर्व । + अयोनिसंभवं दिव्यज्ञानगर्भसमुद्भवं । सोऽधिगत्य परं जन्म तदा सज्जातिभाग्भवेत् ॥१८॥
- श्रादिपुराण पर्व ३८वां ।
الله
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२०
विषाह-क्षेत्र प्रकाश
कुतश्चित्कारणायस्य कुलं सम्प्राप्तदूषणम् । सोऽपि राजादिसम्मत्या शोषयेत्स्वं यदाकुलं ।।१६८|| तदाऽस्योपनयाहत्वं पुत्रपौत्रादिसंततौ। न निषिद्धं हि दीक्षाह कुल चेदस्य पूर्वनाः ।।१६६।।
-४०वा सर्ग। शुद्धि का यह उपदेश भी भरत चक्रवर्तीका दिया हुआ श्रादिपुराण में बतलाया गया है और इससे दस्सो तथा हिन्दुस मुसलमान बने हुर मनुष्यों की शुद्धका खासा अधिकार पाया जाता है । ऐसी हालतमै समालाची भरत महाराजके अपमान और कलंककी बातकाक्या खयाल करते हैं, वे उनके उदार विचागे को नहीं पहुँच सकते, उन्हें अपनी ही सँभाल करनी चाहिये। जिसे वे अपमान और दूषण (कलक) की बात समझते है वह भरतजीके लिय अभिमान और भूषण की बात थीं। वे समर्थ थे, योजक थे, उनमें योजनाशक्ति थी और अपनी उस शक्तिक अनसार वे प्रायः किसी भी मनुष्य का अयोग्य नहीं समझते थे-सभी भव्यपुरुषोंको योग्यतामें परिणत करने अथवा उनकी योग्यतासे काम लेने के लिये सदा तय्यार रहते थे। और यह उन्हों जैसे उदारहृदय योजकोंके उपदेशादि का परिणाम है जो प्राचीन कालमें कितनी ही म्लेच्छ जातियांके लोग इस भारतवर्ष में पाए और यहाँके जैन, बौद्ध, अथवा हिन्दू धर्मोमें दीक्षित होकर आर्य जनता में परिणत होगये। और इतने मखलून हुए (मिलगये) कि आज उनके वंशके पूर्वपरुषोका पता चलाना भी मुशकिल हो रहा है। समालोचकजीको भारतके ग्राचीन इति. हासका यदि कुछ भी पता होता तो वे एक म्लेच्छ कन्याके विवाह पर इतना न चौकते और न सत्य पर पर्दा डालनेकी जघन्य चेष्टा करते । अस्तु ।
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
मलेच्छोसे विवाह ।
१२१
इस सब कथनसे साफ जाहिर होता है कि-जिस जराका घसुदेव के साथ विवाह हुश्रा, जिसके पुत्र जरत्कुमारने राजपाट छोड़कर जैनमनि दीक्षा तक धारणकी और जिसकी संततिमें होने वाले जितशत्रु राजासे भगवान महावीरकी वश्रा व्याही गई वह एक म्लेच्छ राजांकी कन्या थी, भील भी म्लच्छोकी एक जाति होनेसे वह भील कन्या भी हो सकती है परन्तु वह म्लेच्छ खंडके किसी म्लेच्छ राजाकी कन्या नहीं थी किन्तु आर्यखगडोद्भयम्लेच्छ राजाकी कन्या थी जा चम्पापुरी कपासक इलाके में रहता था । म्लन्छुखंडोमै श्रायोका उद्भव नहीं । म्लेच्छोका सर्व सामान्याचार वही हिंसा करना और मांस भक्षणादिक है । मलेल्छ खडाके म्लेच्छभी उस प्राचारसे खाली नहीं है, वे खास तौरपर धर्म कर्मसे वहित है और उनका क्षेत्र धर्म कर्मके अयोग्य माना गया है वहाँ सजातिका उत्पाद भी प्रायः नहीं बनता।ग्लेछीम नाच गोत्रादिकका उदयभी बतलाया गया है और इससे यह नहीं कहा जा सकताकि वे उच्चजातिके होत है । भरत चक्रवतीने ( तदनसार और भी चक्रवतिया ने) म्लेच्छ राजादिका की बहुतसी कन्याओं से विवाह किया है, वे हीन कुल जातिकी कन्याश्री से विवाह कर लेना अनुचित नहीं समझत थे, उन्होंने ग्ले छोकी कुल सृद्धि करने और जिनके कुलमें किसी वजहसे कोई दोष लग गया हो उन्हें भी शुद्ध कर लेने का विधान किया है । उस वक्त न मालूम कितने ग्लेच्छ शुद्ध होकर आर्यजनताम परिणत हुए । इतिहास से कितनेही म्लेच्छ राजादिकोंका आर्य जनतामे शामिल होने का पता चलता है। पहले जमाने में दुष्कुलोंसे भी उत्तम कन्याएँ ले ली जाती थी, राजा श्रोणिकके पिताने भील कन्यासे विवाह किया और सम्राट चंद्रगुप्तने एक म्लेच्छराजाकी कंन्यासे शादी की । ऐसी हालतमें समालोचकजीने उदाहरणके इस अंश पर जो कुछ भी
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२२
विवाह क्षेत्र प्रकाश ।
आक्षेप किये हैं वे सब मिथ्या तथा व्यर्थ हैं और उनकी पूरी नासमझी प्रकट करते हैं।
अब उदाहरण के तृतीय अंश - प्रियंगु सुन्दरीसे विवाह'को लीलिये ।
व्यभिचारजातों और दस्सोंसे विवाह |
लेखकने लिखा था कि " - प्रियंगुसुन्दरीके पिताका नाम 'पीपुत्र' था । यह एणीपुत्र 'ऋषिदत्ता' नामकी एक अविवा हिता तापस कन्यासे व्यभिचारद्वारा उत्पन्न हुआ था । प्रसत्रसमय उक्त ऋषिदत्ताका देहान्त हो गया और वह मरकर देवी हुई, जिसने एणी प्रथांत् हरिणीका रूप धारण करके जगलमें अपने इस नवजात शिशुको स्तन्यपानादिसे पाला और पाल पोषकर अन्तको शीलायुध राजाके सपुर्द कर दिया । इससे प्रियंगुसुन्दरीका पिता पणापुत्र व्यभिचारजात' था, जिसकी श्राज कलकी भाषा में 'दस्ता' या 'गाटा' भी कहना चाहिये । वसुदेवजीने विवाह के समय यह सब हाल जान करभी इस विवाहको किसी प्रकारसे दूषित, अनुचित, अथवा अशास्त्र सम्मत नहीं समझा और इस लिये उन्होंने बडी खुशी के साथ .प्रियंगु सुन्दरीका भी पाणिग्रहण किया ।"
उदाहरण के इस श्रंश पर जो कुछ भी आपत्ति की गई है उसका सारांश सिर्फ इतनाही है कि एणीपुत्र व्यभिचारजात नहीं था किन्तु गन्धर्व विवाहसे उत्पन्न हुआ था । परन्तु ऋषिदत्ताका शीलायुधसे गंधर्व विवाह हुआ था. ऐसा उल्लेख जिनसेनाचार्य ने अपने हरिवंशपुराण में कहाँ किया है, इस बातको समालोचकजी नहीं बतलां सके । आपने उक्त हरिवंशपुराण के आधार पर कई पृष्ठों में ऋषिदत्ता की कुछ विस्तृत कथा देते हुए
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यभिचारजातों और दस्सोंसे विवाह। १२३ भी, जिनसेनांचार्यका एक भी वाक्य ऐसो उद्धृत नहीं किया जिससे गंधर्व विवाहका पता चलता। सारी कथा से नीचे लिखे कुल दो वाक्य उद्धृत किये गये हैं जो दोपोंके दो चरणहैं:
"ऋतुमत्यायपुत्राहं यदिस्यां गर्भधारिणी ।" “पृष्ठस्तथा [तः सतामाह या मा] कुलाभूःप्रियेशृणु" इनमें से पहले चरणमें ऋषिदत्ताके प्रश्न का एक अंश और दसरमें शीलायधके उत्तरका एक अंश है। समालोचकजी कहते है कि कामक्रीडाके श्रनन्तर की बात चीतमें जब ऋषिदत्ताने शीलायुधको 'आर्यपुत्र' कहकर और और शीलायधने ऋषिदत्ताको प्रिये' कहकर संबोधन किया तो इससे उनके गंधर्व विवाहका पता चलता है--यह मालम होता है कि उन्होंने
आपसमें पति-पत्नी होने का टहराव कर लिया था और तभी भोग किया था: क्योकि "अार्यपत्र जो विशेषण हे यह पतिके लिये ही होता है" और "जो प्रिये विशेषण है यह पत्नी के ही लिये होता है।" इसी प्रकार जिनदास ब्रह्मचारीके हरिवंशपराणसे सिर्फ एक वाक्य ("इनि पष्ठः सतामचे मा भैषी शृणु वल्लभे") उद्धन करके उसमें आए हुए 'वल्लभे' विशेषणकी बाबत लिखा है - "ये भी पत्नी के लियेही होता है। परन्तु ये विशेषण पति-पत्नीके लियेही प्रयुक्त होते हैं-अन्यके लिये नहींऐसा कहीं भी कोई नियम नहीं देखा जाता। शब्द-कोशोंके देखनेसे मालम होता है कि आर्य पुत्र 'आर्यस्य पुत्र" आर्यके पुत्रको, "मान्यस्य पुत्र"-मान्यके पुत्र को और "गुरुपुत्र"-गुरुके पुत्रको भी कहते हैं (देखा 'शब्दकल्पद्रम' ) । 'आर्य' शब्द पज्य, स्वामी, मित्र, श्रेष्ट, श्रादि कितनेही अर्थों में व्यवहत होता है और इस लिये 'आर्य पुत्र' के और भी कितने ही अर्थ तथा वाच्य होते हैं । वामन शिवराम ऐप्टेने, अपने कोशमै,यहभी बत
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२४
विवाह-क्षेत्र प्रकाश। लाया है कि आर्य पुत्र 'बड़े भाईके पुत्र' और 'राजी' के लिये भी एक गौरवान्वित विशेषणके तौरपर प्रयुक्त होता है। यथाः-- आर्यपुत्रः--honorrific desiy lution of the son of the eld nother' : or of a prince by his general &c. __ ऐसी हालतमै एक मान्य और प्रतिष्टत जन तथा राजा समझ कर भी उक्त सम्बोधन पदका प्रयोग हो सकता है और उससे यह लाजिमी नहीं पाता कि उनका विवाह होकर पतिपत्नी संबंध स्थापित होगया था। इसी तरह पर 'प्रिया' और 'वल्लभा शब्दोंके लिये भी, जो दोनों एक ही अर्थको वाचक है, ऐसा नियम नहीं है कि वे अपनी विवाहिता स्त्रीके लिये ही प्रयुक्त होत हो-वे साधारण स्त्री मात्रके लिये भी व्यवहृत होते हैं, जो अपनको प्यारी हो । इसीसे उक्त ऐप्टे साहबने 'प्रिया' का अर्थ a loan in gutiyal और वल्लभाका । }yeloved female भी दिया है। कामी जन तो अपनी कामु. कियों अथवा प्रेमिकाओं को इन्हीं शब्दोंमें क्या इनसे भी अधिक प्रेम व्यंजक शब्दों में सम्बोधन करते हैं। ऐसी हालतमें ऋषिदत्ताके प्रेमपाश में बँधे हुए उस कामांध शीलायधने यदि उसे 'प्रिय' अथवा 'वल्लभ' कह कर सम्बोधन किया तो इसमें कौन श्राश्चर्य की बात है ? इन मम्बांधन पदोस ही क्या दोनोका विवाह मिद्ध होता है? कभी नहीं । केवल भोग करने से भी गंधर्व विवाह सिद्ध नहीं होजाता, जब तक कि उससे पहले दोनोम पति पत्नी बननेका दृढ़ संकल्प और ठहराव न होगया हो। अन्यथा, कितनी ही कन्याएँ कुमारावस्थामें भांग कर लेती हैं और वे फिर दसरे परुषोसे व्याहो जाती हैं । इस लिये गंधर्व विवाहके लिये भोगसे पहले उक्त संकल्प तथा ठहराव का होना जरूरी और लाजिमी है। समालोचक जी कहते भी हैं कि उनदानाने ऐसा निश्चय करके ही भाग किया था,परन्तु
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यभिचारजातो और दस्सोसे विवाह । १२५ जिनसेनाचार्य के हरिवंशपराणमें उस संकल्प, ठहराव अथवा निश्चयको कहीं भी कोई उल्लेख नहीं है। भांगके पश्चात भी ऋषिदत्ता की ऐसी कोई प्रतिज्ञा नहीं पाई जाती जिससे यह मालूम होता हो कि उसने अाजन्मके लिये शीलायुधको अपना पति बनाया था। ___ समालोचक जी एक बात और भी प्रकट करतेहैं और वह यह कि ऋषिदत्ता पंचाणुव्रतधारिणीथी और 'सभ्यक्तव सहित मरी थी "इमो लिये यह बिना किसीका पति बनाये कभी काम सेवन नहीं कर सकती थी।" परन्तु सकने और न सकने का सवाल तो बहुत टेढा है। हम सिर्फ इतनाही पूछना चाहते है कि यह कहाँका और कौनसे शास्त्रका नियम है कि जो सम्यतव सहित मरण करे उसका संपूर्ण जीवन पवित्र ही रहा होउसने कभी व्यभिचार न किया हो ? किसी भी शास्त्रमें ऐसा नियम नहीं पाया जाता । और न यही देखने में आता है कि जसने एक बार अणुवत धारण कर लिये वह कभी उनसे भ्रष्ट न होसकता हो । अणुव्रतीकी तो बात ही क्या अच्छे अच्छे महावतो भो कामपिशाचक वशवर्ती होकर कभी कभी भ्रष्ट होगये है। चारुदत्त भी ता अणुव्रतो थे और श्रावकके इन व्रतोको लेनके बाद ही वेश्यासक्त हुए थे। फिर यह कैसे कहा जासकता है कि ऋषिदत्तासे व्यभिचार नहीं बन सकता था। श्रीजिनसेनाचार्यने तो साफ लिखा है कि उन दोनोंके पारस्परिक प्रेमने चिरकालकी मर्यादा को तोड़ दिया था। यथा:
*शांतायधमतः श्रीमांश्रावस्तीपतिरेकदा ।
**जिनदास ब्रह्मचारोने, अपने हरिवंशपुराणमें, इन चारों पद्योंको जगह नीचे लिखे तीन पद्य दिये हैं :
शांतायुधात्मजो जातु श्रावस्तीनगरीपतिः ।
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
विवाह-क्षेत्र-प्रकाश।
शीलायुध इतिख्यातः संयातस्तापसाश्रमम् ॥३६ ॥ एकयैव कृतातिथ्यम्तया तापसकन्यया । रुच्याहारैर्मनोहारि-सवल्कलकुचश्रिया ।। ३७ ।। अतिविधभतः प्रेम तयोरप्रतिरूपयोः।। विभेद निजमर्यादा चिरं समनुपालिताम् ।। ३८ ॥ गते रहसि निःशंकं निःशंकस्तामसौ युवा । अरीरमद्यथाकामं कामपाशवशो वशां ।। ३६ ॥
-हरिबंशपुराण । अर्थात --एक दिन शांनायुनधका पुत्र शीलायुध, जो धा. वस्ती नगरीका राजा था, नापसामधमें गया। वहाँ वह तापसकन्या ऋषिदत्ता अकेली थी और उसने ही सन्दर भोजनसे राजाका अतिथि-सत्कार किया। ये दोनों अति रूपवान थे, इनके परस्पर केलिकलह उपस्थित होने ---अथवा स्नेहके बढ़ने से---दोनोंके प्रेमने चिरकालसे पालन की हुई मर्यादाको तोड़ डाला। और वह कामपाशके वश हुआ युवा शीलायध उस कामपाशश्शवर्तिनी ऋषिदत्ताको एकान्त में लेजाकर उससे निःशंक हुआ यथेष्ट काम क्रीड़ा करने लगा।
प० दौलतरामजी भी अपनी टोकामें लिखते है-"ऋषिदत्ता तापसकी कन्या अकेली हुती ताने शोलायुधको मनोहर
शीलायुधाभिधोयासीत्तं तापसजनाश्रमं ॥ ३६॥ तयैकयैव विहितातिथ्यस्तापसकन्यया । वन्याहारैः परां प्रीति स तया सह संगतः ॥३७ ॥ ततो रहसि निःशंकस्तामसीतापसात्मजां । बुभुजे कामनाराचवशाल्पीकृतविग्रहाम् ॥ ३८ ॥
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यभिचारजातों और दस्सों से विवाह ।
१२७
श्राहार कराया, ए दोऊही अतुल रूप सो इनके प्रेम बढ़ा सो चिरकालको मर्यादा हुती सा भेदी गई। एकान बिपै दोऊ नि.शरु भये यथेष्ट रमते भयं।" और पं० गजाधरलालजी ३- वे पद्यके अनुवाद में लिखते हैं-'वे दोनों गाढ प्रेम वधनमें बंध गये उनके उस प्रे बचनने यहाँ तक दानों पर प्रभाव जमा दिया कि नतो ऋषिदचाका अपनी तपस्विमय दाका ध्यान रहा और न राजा शीलायधको ही अपनी वंशमयादा सोचनेका अवसर मिला।" और इसके बाद आपने यह भी जाहिर किया है कि "ऋविदत्ताको अपने अविचारित काम पर बड़ा पश्चासाप हुश्रा मारे भयकं उसका शरीर थर थर काँपने लगा।"
श्रोजिनसेनाचार्यके वाक्या और उक्त टीका वचनों से यह स्पष्ट ध्यान निकलती है हि ऋषिदत्ता और शोलायुधने विवाह न करके व्यभिचार कियाथा। हरिवंशपराण के उक्त चारा पद्या में शोलायधके आश्रम में जाने और भांग करने तकका पूरा वर्णन है परन्तु उसमें कहीं भी पति-पत्नीक संबंध-विषयक किसी ठहराव. संकल्प, प्रतिक्षा या विवाहका कोई उल्लेख नहीं है। फिर यह कसे कहा जासकता है कि इन दोनों का गंधर्व विवाह हुआथा ? समालोचकजी, कथाका पूणांश ( ? ) देते हुए लिखत है :
"चंकि राजपुत्र भी तरुण तथा रूपवान था और . कन्या भी सुन्दरी व लावण्यवती थी इनको आपस
में एक दूसरे पर विश्वास हो गया । ( पति पत्नी बनने की वार्ता हो गई ) जो कि गन्धर्व विवाह से भली भाँति घटित होता है। और इन्होंने परस्पर
में काम क्रीडा की"। मालूम होता है यह आपने उक्त ३८ वे और ३६ पद्यों का पूर्णाश नहीं किन्तु सारांश दिया है और इस में चिरपालित
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
विवाह-क्षेत्र-प्रकाश।
मर्यादा को तोड़ने की बात आप कतई छिपा गये! अथवा यो कहिये कि, कथाका उपयुक्त सारांश देने पर भी, कथाकं अंश को छिपानेका जो इलज़ाम श्रापन लेखक पर लगाया था उसके स्वयं मुलज़िम और मुजरिम (अपराधी) बन गये । साथ ही, यह भी मालम होता है कि ३८ व पद्य में पाए हुए “अतिविधभतः”, पद का अर्थ प्रापने 'विश्वास होगया' समझा, उसे ही पति-पत्नी बनने को वार्ता होना मान लिया ! और फिर उसीको गंधर्व विवाह में घटित कर लिया !! वाह ! क्या ही अच्छा आसान नसखा आपने निकाला ! कुछ भी करना धरना न पड़े और मुफ्त में पाठकों को गंधर्व विवाह का पाठ पढ़ा दिया जाय !! महाराज! इस प्रकार की कपट-कला से कोई नतोता नहीं है । मल ग्रन्थ में अतिविधमतः' यह स्पष्ट पद है, इस में पति-पत्नी बनने की कोई बाता छिपी हुई नहीं है और न गंधर्व विवाह ही अपना मह ढाँए हुए बैठा है। 'विश्रंभ' शब्द का अर्थ, यद्यपि, विश्वास भी होता है परन्तु 'कलिकलह' (LOVE (uture) और 'प्रणय' (स्नेह ) भी उसके अर्थ है (विश्रंभः कलिकलहे, विश्वासे प्रणये वध)
और ये ही अर्थ यहां पर प्रकरण संगत जान पड़ते है। ‘अति विश्वास से प्रेम ने मर्यादा तोड़ दी' यह अर्थ कुछ ठीक नहीं बैठता । हाँ, स्नेहके अतिरेकसे अथवा कंलिकलहकं बढ़नेसप्रेमप्रस्तावके लिये अधिक छेड़छाड़ हँसी मजाक और हाथा पाई के होने से प्रेम ने उनकी चिरपालित मर्यादा ताड़ दी', यह अर्थ संगत मालम होता है। परन्तु कुछ भी सही, आप अपने 'विश्वास' अर्थ पर ही विश्वास रक्ख फिर भी तो उसमें से
* यह श्री हेमचन्द्र और श्रीधरसेनाचार्यों का वाक्य है। मेदिनी कोशमै भी केलिफलह' और 'पुणय' दोनों अर्थ दिये हैं ।
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यभिचरजोतों और दस्सोसे विवाह ।
१२६
पति-पत्नी होने की कोई बात चीत सनाई नहीं पड़ती और न गंधर्व विवाह ही के मुख का कहीं से दर्शन होता है । यदि दोनो का गंधर्व विवाह हुश्रा होता.तो कोई वजह नहीं थी कि क्यों ऋषिदत्ता प्रसय से पहले ही शीलायध के घर पर न पहुंच गई होती- खासकर ऐसी हालत में जब कि उसने शीलायुध-द्वारा भांगे जाने का हाल अपने माता पिता से भी उसी दिन कह दिया था । साथ ही, समालोचकजीके शब्दों में (मूल ग्रन्थ के शब्दा में नही ) यह भी कह दिया था कि “ मैं एकान्त में राजा शोलायुध की पत्नी हो चको हूँ।" ऐसी दशा में तो जितना भी शीघ्र बनना चे प्रकट रूप से उसका बाकायदा नियमानुसार) विवाह शीलायधके साथ कर देते और उसे उसके घर पर भेज देते । ऋपिदत्ता को तब क्या जरूरत थी कि वह डरती और घबराती हुई यह प्रश्न करती कि ऋतु. मती होनेसे यदि मेरे गर्भ रहगया हो तो मैं उसका क्या करूँगी। एक विवाहिता स्त्री गर्भ रह जाने पर क्या किया करती है ? जब यह खुद बालिग (प्राप्तवयस्क) थी, अपनी खुशी से उसने विवाह किया था और एक ऐसे समर्थ परुष के साथ विवाह किया या जोकि राजा था तो फिर उसके लिये डरने, घबराने और थरथर कांपने को क्या जरूरत थी? प्रियंगसुन्दरी का भी तो वसुदेवके साथ पहले गंधर्व विवाह ही हुआ था। वह तो तभी से उनके साथ रहने लगी थी। और बादको उसका बाजाता विवाह मोहागया था। हा सकता है कि ऋषिदत्ता अपने तापसी जीवन में ही रहना चाहती हो और इसीलिये केवल पुत्र के वास्ते उसने पूछ लिया हो कि उसके होने पर क्या किया जाय । ऐसी हालतमें उसका वह कर्म गंधर्व-विवाह नहीं कहला सकता। शीलायध ने उसके प्रश्नका जो उत्तर दिया उससे भी यह बात नहीं पाई जाती कि उनका परस्पर
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
-
-
-
-
१३०
विवाह-क्षेत्र प्रकाश। विवाह हो गया था। वह कहता है 'प्रिये ! डरे मत, मैं श्रावस्ती नगरी का इक्ष्वाकुवंशी राजा हूं और शीलायुध मेग नाम है; जब तेरे पुत्र हो तब तू पत्र सहित मेरे पास श्राइयो - अथवा मुझ से मिलियो।' वाह ! क्या अच्छा उत्तर है ! क्या अपनी पत्नी को ऐसा ही उत्तर दिया जाता है ? यदि विवाह हो चका था तो क्यों नहीं उसने दृढ़ता के साथ कहा कि मैं तुझे अभी अपने घर पर बुलाये लिये लेता हूं? क्यों तापसाश्रम में ही अपने पत्र का जन्म होने दिया ? और क्यों उसने फिर अन्त तक उसकी कोई खबर नहीं ली? यह तो उसे यहाँ तक भल गया कि जब वह मरकर देवी हुई और उसी तापसी वेप में पुत्रको लेकर शीलायुध के पास गई तो उसने उसे पहिचाना तक भी नहीं । क्या इन्हीं लक्षणों से यह जाना जाता है कि दोनों का विवाह हो गया था! और भोग से पहले पति पत्नी बनने की सब बातचीत से हो गइ थी? कभी नहीं । उत्तर से तो यह मालम होता है कि भोग से पहले शीलायधने अपना इतना भी परिचय उसे नहीं दिया कि वह कौन से वंशका और कहाँका राजा है,-इस परिचयके देनेकी भी उसे बादको ही जरूरत पड़ी-उसने तो अपने वीर्य से उत्पन्न होनेवाले पत्र की रक्षा आदिके प्रबन्धके लिये ही यह कह दिया मालूम होता है कि तुम उसे लेकर मेरे पास आजाइयो। फिर यह कैसे कहा जासकता है कि दोनों का परिचय और विवाह की बात चीत होकर भोग हुश्रा था ? यदि दोनों का गंधर्व विवाह हुआ होता तो श्रीजिनसेनाचार्य उसका उसी तरह से स्पष्ट उल्लेख करते जिस तरह से कि उन्होंने इसी प्रकरण में प्रियंगसुन्दरी के गंधर्व विवाह का उल्लेख किया है * । अस्तु: उक्त प्रश्नोत्तर यथाः-प्रियंगुसुन्दरी सौरि रहसि प्रत्यपद्यत ।
सा गंधर्व विवाहादि सहसन्मुखपंकजा ॥६॥
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यभिचारजातों और दस्सों से विवाह । १३१
के श्लोक निम्न प्रकार हैं और वे ऊपर उद्धृत किये हुए पद्यों के ठीक बाद पाये जाते हैं:
विजिज्ञयचतस्तं सा साध्वी साध्वसपूरिता । ऋतुमत्यार्यपुत्राहं यदि स्यां गर्भधारिणी ॥ ४० ॥ तदा वद विधेयं मे किमिहाकुलचेतसः ।
पृष्ठस्ततः सतामाह माकुलाः प्रिये श्रृणु ॥ ४१ ॥ इताकुलजो राजा श्रावस्त्या मस्तशात्रवः । शीलायुधस्त्वयावश्यं दृष्टव्योहं सपुत्रया ।। ४२ ।।
यशःकीर्ति भट्टारकके बनाये हुए अपभ्रंशभाषात्मक प्राकृत हरिवंशपुराण में यही प्रश्नोसर इस प्रकारसे दिया हुआ है :ars करेसमि ।
freive काइ हउसोगब्भु का सुयउ देखमि ।
सीलाउहु खिउ हउ साविच्छिहिं । सो दम आणि दिज्जहिं ।
अर्थात् - ( ऋषिदत्ताने पूछा ) मैं ऋतुसम्पन्ना हूं, यदि मेरे गर्भ रह गया तो मैं क्या करूँगी और उस पुत्रको किसे दूँगी ? ( उत्तर में शीलायुधने कहा ) मैं श्रावस्ती ( नगरी) में शीलायुध (नामका राजा हूं सां वह पुत्र तुम मुझे लाकर दे देना ।
इसके बाद लिखा है कि 'राजा अपने नगर चला गया और ऋषिदत्ताने वह सब वृत्तांत अपने माता पितासे कह दिया' । यथा य कवि सो गाउ यि एयरहो । थि वित्तंतुकहिउ तिरिण पियरहो ||
इस प्रश्नोतरसे, यद्यपि, यह बात और भी साफ जाहिर
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३२
विवाह-क्षेत्र प्रकाश । होती है कि ऋषिदत्ता और शीलायुधका आपसमें विवाह नहीं हुअा था किन्तु भोग हुअा था और उस भोगसे उत्पन्न होने वाले पुत्रका ही इस प्रश्नोत्तर द्वारा निपटारा किया गया है कि उसका क्या बनेगा । अन्याथा,-विवाहकी हालतमें--ऐसे विलक्षण प्रश्नोत्तर का अवतार ही नहीं बन सकता। परन्तु इस प्रश्नोत्तरसे ठीक पहले शीलायुधके तापसाश्रम में जाने श्रादिका जो वर्णन दिया है उसमें विवाहिय' पद खटकता है और वह वर्णन इस प्रकार है :
सीलाउहणरवइ तहिं पत्तउ । बनकीलइ सो ताए विदिहिउ । अतिहिं धरि विहय तहो अणुराइय ।
तेंसि हि सक्खि करवि विवाहिय । समालोचकजीने इस पद्यक अर्थमें लिखा है कि-"किसी समय शीलायुध राजा वहाँ वन क्रीडाके लिये श्राया वह [उसे] ऋषिदत्ताने देखा उन दोनों में परस्पर अनुराग हो गया और उन्होंने तेंसिको साक्षीकर विवाह कर लिया ।” साथही. यह प्रकट किया है कि 'तैसि' का अर्थ हमें मिला नहीं, वह निःसंदेह कोई अचेतन पदार्थ जान पड़ता है जिसको साक्षी करके विवाह किया गया है। ___ यहाँ, मैं अपने पाठकों को यह बतला देना चाहता हूं कि उक्त प्रश्नोत्तर वाला पद्य इस बातको प्रकट कर रहा अथवा माँग रहा है कि उससे पहले पद्यमै भोगका उल्लेख होना चाहिये, तब ही गर्भकी शंका और तद्विषयक प्रश्न बन सकता है। परंतु इस पद्यमें भोगका कोई उल्लेख न होकर केवल विवाहका उल्लेख है और विवाह मात्रसे यह लाजिमी नहीं पाता कि भोग भी उसी वक्त हुआ हो । मात्र विवाह के अनन्तर ही उक्त
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यभिचारजातों और दस्सोंसे विवाह । १३३ प्रश्नोत्तरका होना बेढंगा मालूम होता है ऐसी हालतमें यहाँ 'विवाहिय' पदका जो प्रयोग पाया जाता है वह संदिग्ध जान पड़ता है। बहुत संभव है कि यह पद अशुद्ध हो और भोग किया, काम क्रीडाकी अथवा रमण किया, ऐसेही किसी अर्थके वाचक शब्द की जगह लिखा गया हो। 'सिहि सक्खि' पाठ भी प्रशद्ध मालम होता है उसके अर्थका कहींसे भी कोई समर्थन नहीं होता । ऋषिदत्ताकी कथाको लिये हुए सबसे प्राचीन ग्रन्थ, जो अभी तक उपलब्ध हुआ है वह, जिनसेनाचार्यका हरिवंशपुराण ही है--काप्टासंघी यशः कीर्ति भट्टारकका प्राकृत हरिवंशपुराण उससे ६६० वर्ष वादका बना हुआ हैपरन्तु उसमें तैसि ( ? ) की सातोसे तो क्या वैसे भी विवाह करनेका कोई उल्लेख नहीं है, जैसाकि ऊपर जाहिर किया जा चका है। इसके सिवाय, भट्टारकजीने स्वयं यह सूचित किया है कि मेरे इस ग्रंथके शब्द-अर्थका सम्बंध जिनसेनाचार्यके शास्त्र ( हरिवंशपुराण ) से है । यथा :
सद अत्य संबंध फुरंतउ ।
जिणसणहो सुत्तहो यहु पयडिउ । और जिनसेनाचार्यने साफ तौर पर विवाहका कोई उल्लेख न करके उक्त अवसर पर भोगका उल्लेख किया है और "अरीरमत्' पद दिया है। जिनसेनाचार्यके अनसार अपने हरिवंश पुराणकी रचना करते हुए, ब्रह्मचारी जिनदासने भी वहाँ "बभुजे" पदका प्रयोग किया है जिसका अर्थ होता है 'भोग किया' अथवा भोगा और इसलिये वह जिनसेनके 'परीरमत्' पदके अर्थकाही द्योतक है । परन्तु यहाँ “करेवि विवाहिय" शब्दोंसे वह अर्थ नहीं निकलता, जिससे पाठके अशुद्ध होनेका खयाल और भी ज्यादह दृढ होता है। यदि वास्तव में
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३४
विवाह-क्षेत्र प्रकाश।
पाठ अशुद्ध नहीं है, बल्कि भट्टारकजीने इसे इसी रूपमें लिखा है और वह प्रन्थकी प्राचीन प्रतियों में भी ऐसेही पाया जाता है तो मुझे इस कहने में कोई संकोच नहीं होता कि भट्टारकजी ने जिनसेनाचार्य के शब्दोंका अर्थ समझने में गलती की और वे अपने ग्रन्थ में शब्द अर्थके सम्बंथको ठीक तौरसे व्यवस्थित नहीं कर सके-यह भी नहीं समझ सके कि विवाहके अनंतर उक्त प्रश्नोत्तर कितना वेढंगा और अप्राकृतिक जान पड़ता है। प्रापका ग्रन्थ है भी बहुत कुछ साधारण । इसके सिवाय, जब हमारे सामने मलग्रंथ मौजद है तब उसके आधार पर लिखे हुए सारांशों, श्राशयों, अनुवादों अथवा संक्षिप्त ग्रंथोपर ध्यान देने की ऐसी कोई जरूरत भी नहीं है, वे उसी हद तक प्रमाण माने जा सकते हैं जहाँ तककि वे मल गों के विरुद्ध नहीं है। उनके कथनोकामलगयों पर कोई महत्व नहीं दिया जासकता। जिनसेनाचार्यने साफ सूचित किया है कि उन दोनों के प्रेमने चिरपालित मर्यादाको भी तोड़ दिया था, वे एकान्तमें जाकर रमने लगे, भोगके अनन्तर ऋषिदत्ताको बड़ा भय मालूम हुआ, वह घबराई और उसे अपने गर्भ की फिकर पड़ी। शीलायधके वंशादिकका परिचय भी उसे बादको ही मालूम पड़ा। ऐसी हालतमें विवाह होनेका तो खयालभी नहीं आ सकता । अस्तु।
इस सब कथन और विवेचनसे साफ ज़ाहिर है कि ऋषिदत्ता और शोलायुधका कोई विवाह नहीं हुअाशा, उन्होंने वैसे ही काम पिशाच के वशवर्ती होकर भोग किया और इस लिये वह भोग व्यभिचार था। उससे उत्पन्न हुश्रा एणीपत्र, एक दृष्टिसे शीलायधका पत्र होतेहुए भी, ऋषिदत्ताके साथ शीलायधका विवाह न होनेसे, व्यभिचारजात था। उसकी दशा उस जारज पत्र जैसी थी जो किसी जारसे उत्पन्नहोकर कालान्तरमें उसीको मिलजाय । अविवाहिता कन्याले जो पुत्र
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यभिचारजातों और दस्सोसे विवाह।
१३५
पैदा होता है उसे "कानीन" कहते हैं (कानीनः कन्यकाजातः; कन्यायां अनूढायां जातो वा ),' अनुढा पुत्र' भी उसका नामहै
और यह व्यभिचारजातोंमें परिगणित है । 'एणीपत्र' भी ऐसा सी 'कानीन.' पत्र था और इस लिये उसकी पत्री प्रियंगुसुन्दरी' एक व्यभिचारजातको,अनूढापत्रकी अथवा कानीनकी पत्रा थी, जिसे अाजकल की भाषामें दस्सा या गाटा भी कह सकते हैं। मालम नहीं समालोचक जी का एक व्यभिचारजात या दस्सकी पत्रीसे विवाहकी बात पर क्यों इतना क्षोभ आया जिसके लिये बहुत कुछ यद्वातद्वा लिख कर समालोचनाके बहुनसे पेज रंगे गये है-जबकि साक्षात् व्यभिचारजात वेश्यापुत्रियों तकसे विवाह के उदाहरण जैनशास्त्रों में पाये जाते हैं
और जिनके कुछ नमूने ऊपर दिये जाचुके हैं। क्या जो लोग नेच्छकन्याओं तकसे विवाह कर लेते थे उनके लिये एक दस्से या व्यभिचारजातकी आर्य कन्या भो कुछ गई बीती होसकतो है ? कदापि नहीं। आज कल यदि कोई वेश्याषत्रीसे विवाह करले तो वह उसी दम जातिसे खारिज किया जाकर दस्सा या गाटा बना दिया जाय । साथमें उसके साथी और सहायक भी यदि दस्से बना दिये जाय ता कछ आश्चर्य नहीं। अतः प्राजकलकी दृष्टि में जिन लोगोंने पहले वेश्याओस विवाह किये घे सब दस्स* होने चाहिये । ऋषिदत्ताके पिता श्रमोचदर्शनने
*दस्सा केवल व्यभिचारजात का ही नाम नहीं है बल्कि और भी कितने ही कारणोसे 'दस्सा' संज्ञाका प्रयोग किया जाता है, और न सर्व व्यभिचारजात ही दस्सा कहलाते हैं क्योकि कंड संतान जो भारके जीतेजी और पास मौजद होते हुए जारस पैदा होती है वह व्यभिचारजात होते हुए भी दस्सा नहीं कहलाती।
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३६
विवाह क्षेत्र- प्रकाश -
भी अपने पुत्र चारुचंद्रका विवाह 'कामपताका' नामकी वेश्यापुत्री से किया था, जिसके कथन को भी समालोचक जी कथा का पूर्णांश देते हुए छिपाये ! और इसलिये ऋषिदत्ता दले की पुत्री और दस्सेकी बहन भी हुई। तब उसकी उक्त प्रकार से उत्पन्न हुई संतानको श्राज कलकी भाषा में दस्से के सिवाय और क्या कहा जासकता है ? परन्तु पहले जमाने में 'दस्सेबीसे' का कोई भेद नहीं था और न जैनशास्त्रों में इस भेदको कहीं कोई उल्लेख मिलता है । यह सब कल्पना बहुत पीछे की है जबकि जनता के विचार बहुत कुछ संकीर्ण, स्वार्थमूलक और ईर्षा द्वेष-परायण होगये थे । प्राचीन समय में तो दो दो वेश्यापुत्रियों से भी विवाह करने वाले 'नागकुमार' जैसे पुरुष समाज में अच्छी दृष्टि से देखे जाते थे, नित्य भगवानका पूजन करते थे और जिनदीक्षाको धारण करके केवलज्ञान भी उत्पन्न कर सकते थे परन्तु श्राज इससे भी बहुत कमती हीन बिवाह करलेने वालोंको जातिसे खारिज करके उनके धर्म-साधनके मार्गों को भी बन्द किया जाता है ! यह कितना भारी परिवर्तन है ! समयका कितना अधिक उलटफेर है !! और इससे समाज के भविष्यका चिन्तवन कर एक सहृदय व्यक्तिको कितना महान दुःख तथा कष्ट होता हैं !!!
यहाँ पर मैं समालोचक जीको इतना और भी बतला देना 'चाहता हूँ कि दस्सों और बीसंमेिं परस्पर विवाहकी प्रथा सर्वथा बन्द नहीं है । हूमड श्रादि कई जैन जातियों में वह अब भी जारी है और उसका बराबर विस्तार होता जाता है । बम्बई के सुप्रसिद्ध 'जैनकुल भूषण' सेठ मणिकचंद जी जे० पी०के भाई पानाचंद का विवाह भी एक दस्संकी पुत्रीसे हुआ था । इस लिये आपको इस विवासे मुक्त हो जाना चाहिये कि यदि जैनजातिमें इस प्रथाका प्रवेश हुआ तो वह रसातलको चली
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
ध्यभिचारजातों और दस्सों से विवाह । . १३७
-
-
----
जायगी। दस्सोसे विवाह करना प्रात्मपत्नका अथवा प्रान्मोन्नतिमें बाधा पहुँचानेका कोई कारण नहीं होसकता । दरसों में अच्छे अच्छे प्रतिष्ठित और धर्मात्माजन मौजद है-वे बीसीसे किसी बातमें भी कम नहीं हैं-उन्हें हीन दृष्टिसे देखना अथवा उनके प्रति सद्भाव रखना अपनी क्षद्रता प्रकट करनाहै। अस्तु । ___ यह तो हुई तृतीय अंशके श्राक्षेपोंकी बात, अब उदाहरण का शेष चौथा अंश –'गहिणीका स्वयंवर' भी लीजिये।
स्वयंवर-विवाह। उदाहरणका यह चौथा अंश इस प्रकार लिखा गयायाः
"रोहिणी अरिष्टपर के राजाको लड़की और एक सुप्रतिठित घराने की कन्या थी। इसके विवाहका स्वयंवर रचाया गया था, जिसमें जरोसन्धादिक बड़े बड़े प्रतापी राजा दूर देशान्तरों से एकत्र हुए थे। स्वयंवरमण्डप में वसुदेवजी, किसी कारण विशेष से अपना वेष बदल कर 'पणव' नाम का पादित्र हाथ में लिये हुए एक ऐसे रङ्क तथा अकुलीन बाजन्त्री (बाजा बजाने वाला) के रूप में उपस्थित थे कि जिससे किसी को उस वक्त वहाँ उनके वास्तविक कुल, जाति आदि का कुछ भी पता मालम नहीं था । रोहिणी ने सम्पूर्ण उपस्थित राजाओं तथा राजकुमारी का प्रत्यक्ष देखकर और उनके वंश तथा गणादिका परिचय पाकर भी जब उनमें से किसीको भी अपने याग्य घर पसंद नहीं किया तब उसन, सब लोगोको आश्चर्य में डालते हुए, बड़े ही निःसंकोच भावले उक्त बाजन्त्री रूप के धारक एक अपरिचित और अज्ञात-कुल-जाति नामाव्यक्ति (घसुदेव ) के गले में ही अपनी वरमाला डाल दी।
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३८
विवाह-क्षेत्र प्रकाश।
रोहिणी के इस कृत्य पर कछ ईर्षाल, मानी और मदान्ध राजा, अपना अपमान समझकर, कपित हुए और रोहिणीके पिता तथा वसुदेव से लड़ने के लिये तैयार हो गये। उस समय विवाह नीति का उल्लंघन करने के लिये उद्यमी हुए उन कुषितानन राजाओं को सम्बोधन करके, वसुदेवजीने बड़ी तेजस्वित्ता के साथ जो वाक्य कहे थे उनमेसे स्वयंवर-विवाह के नियमसचक कुछ वाक्य इस प्रकार हैं :
कन्या वृणीते रुचितं स्ययंवरगता वरं । कुलीनमकुलीनं वा क्रमो नास्ति स्वयंवरे ।
-सग ११, श्लोक ७१ । अर्थात्-स्वयंवरको प्राप्त हुई कन्या उस घरको वरण (स्वीकार) करती है जो उसे पसन्द हाता है, चाहे वह वर कुलीन हो या अकुलीन । क्योंकि स्वयंवरमें इस प्रकारका-वरके कुलीन या अकुलीन होनेका--कोई नियम नहीं होता। ये वाक्य सकलकीर्सि श्राचार्य के शिष्य श्रीजिनदास ब्रह्मचारी ने अपने हरिवंशपराण में उद्धत किये हैं और श्रीजिनसेनाचार्य-कृत हरिवंशपुराणमें भी प्रायः इसी श्राशयके वाक्य पाये जाते हैं । वसुदेवजी के इन पचनों से उनकी उदार परिणति और नीतिज्ञनाका अच्छा परिचय मिलता है, और साथ ही स्वयंवर-विवाह की नीति का भी बहुत कुछ अनुभव हो जाता है । वह स्वयंवरविवाह, जिसमें वरक कुलीन या अकुलीन होने का कोई नियम नहीं हाता, वह विवाह है जिसे श्रादिपुराणमें 'सनातनमार्ग' लिखा है और सम्पूर्ण विवाह विधानों में सबसे अधिक श्रेष्ठ (वरिष्ठ) विधान प्रकट किया है। युगकी आदिमें सबसे पहले
. *यथा:-सनातनोऽस्ति मार्गोऽयं श्रतिस्मतिष भाषितः
. विवाहविधिभेदेषु वरिष्ठो हि स्वयंघरः ॥४४.३२॥
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्वयवर-विवाह।
१३६
जब राजा अकम्पन-द्वारा इस (स्वयंवर) विवाह का अनष्ठान हुअा था तब भरत चक्रवर्तीने भी इसका बहुत कुछ अभिनन्दन किया था। साथ ही, उन्होंने ऐसे सनातन मार्गों के पुनरुद्धार. कर्ताओं को सत्पुरुषों द्वारा पूज्य भी ठहराया था x"
उदाहरण के इस अंशपर सिर्फ तीन खास आपत्तियाँ की गई है जिनका सारांश इस प्रकार है:
(१) एक वाजंत्रीके रूपमें उपस्थित होने पर वसुदेवको "रंक तथा अकुलीन" क्यों लिखा गया। "क्या बाजे बजाने वाले सब अकलीन ही होते हैं ? बड़े बड़े गजे और महाराजे तक भी बाजे बजाया करते हैं।" ये रंक तथा अकुलीन के शब्द अपनी तरफसे जोडे गये हैं। वसदेवजी अपने वेषको छिपाये हुए जरूर थे “किन्तु इस वेषके छिपानेसे उन पर कंगाल या अकुलीनतना लाग नहीं होता।"
(२) "यह बाबजीका लिखना कि “रोहिणीने बड़े ही निःसंकोच भावसे वाजंत्री रूपके धारक अज्ञात कलजाति रङ्क व्यक्तिके गले में माला डालदी" सर्वथा शास्त्र विरुद्ध है"।
(३) “जो श्लोकका प्रमाण दिया वह वसुदेवजीने क्रोध कहा है किसी प्राचार्य ने श्राझारूप नहीं कहा जो प्रमाण हो,” ।
इनमसे पहली श्रापत्तिकी बाबत तो सिर्फ इतना ही निवेदन है कि लेखक ने कहीं भी वसुदेवको रंक तथा अकुलीन नहीं लिखा और न यही प्रतिपादन किया कि उनपर कंगाल. या
४ यथाः-तथा स्वयंवरस्यमे नाभवन्यधकम्पनाः।
कः प्रवर्त्तयितान्योऽस्य मार्गस्यैष सनातनः ॥४५॥ मागाँश्चिरंतनान्येऽत्र भोगभूमितिरोहितान् । कुर्वन्ति नतनान्सन्तः सद्भिः पूज्यास्त एव हि ॥५५॥
___-आ० पु० पर्व ४५ ।
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
विवाह-क्षेत्र-प्रकाश।
अकुलीनपना लागू होता है। 'कंगाल' शब्दका तो प्रयोग भी उदाहरण भरमें कहीं नहीं है और इसलिये उसे समालोचकजीकी अपनी कर्तृत समझना चाहिये । लेखक ने जिसके लिये रंक तथा अकुलीन शब्दोंका प्रयोग किया है वह वसुदेवजीका तात्कालीन वेष था, नकि स्वयं वसुदेवजी, और यह बात ऊपरके उदाहरणांशसे स्पष्ट जाहिर है। वेषकी बातकोव्यक्तित्व में घटा लेना कोरी भल है । यह ठीक है कि कभी कभी कोई रोजा महाराजा भी अपने दिल बहलावके लिये बाजा बजा लेते हैं परन्तु उनका वह विनोदकर्म प्रायः एकान्तमें होता है-सर्व साधारण सभा-सोसाइटियो अथवा महोत्सवोंके अवसर पर नहीं- और उससे वे पाणविक'-बाजंत्री-नहीं कहलाते। वसदेवजी, अपना वेष बदल कर 'पणव' नामका वादिन हाथमें लिये हुए, साफ तौर पर एक पाणविकके रूपमें वहाँ (स्वयंवर मंडपमें ) उपस्थित थे-राजाके रूपमें नहीं - और पाणविको को- वाजंत्रियों की श्रेणिके भी अन्तमें बैठे हुए थे, जैसाकि जिनसेनके निम्न वाक्यमे प्रकट है:__ *वसुदेवोऽपि तत्रैव भ्रात्रलक्षितवेषभूत् ।
*इसी पधको जिनदास ब्रह्मचारीने निम्नप्रकरसे बदल कर रक्खा है :
भ्रात्रलक्षितवेषोपि तत्रैव यदुनन्दनः ।
गृहीतपणवस्तस्थौ मध्ये सर्वकलाविदां ॥ यहाँ 'सर्वकलाविदां' पद वादिन-विद्याकी सर्वकलाओके जानने वाले पाणविकोंके लिये प्रयुक्त हुश्रा है । जिनदासने वसुदेवको उन पाणविको बाजंत्रियों के अन्तमें न विठलाकर मध्यमें पिठलाया है, यही भेद है और वह कुछ उचित मालूम नहीं होता। उस वक्तकी स्थितिको देखते हुए एक अपरिचित और अनिमं
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
.
.
-
-
.
-
-
-
.-
.
स्वयंवर-विषाह। तस्थौ पाणविकांतस्थो गृहीतपणवो गृहीः (१) ॥
उनके इस पेषके कारण ही बहुतसेराजा उन्हें 'पाणविक घर' कहने के लिये समर्थ होसके थे और यह कहसके थे कि 'कन्याने बड़ा अन्याय किया जो एक वाजंत्रीको वर बनायो' । यथा:
मात्सर्योपहताश्चान्ये जगुः पाणविकं वरं । कुर्वत्या पश्यतात्यंतमन्यायः कन्यया कृतः ॥४८॥ बाजंत्रीके रूपमें उपस्थित होने की वजहसे ही उन ईर्षाल राजाओं को यह कहने का भी मौका मिला कि यह अकुलीन है, कोई नीच वंशी (कोपि नीचान्वयोद्भवः)है. अन्यथा यह अपना कुल प्रकट करे: क्योंकि उस समय बाजा बजानेको काम या पशो करने वाले शद्र तथा अकुलीन समझे जाते थे। ऐसी हालतमे वसुदेवके उक्त वेषको रंक तथा अकुलीन कहना कुछ भी अनचित नहीं जान पड़ता । समालोचकजी स्वयं इस बातको स्वीकार करते हैं कि प्रतिस्पर्धी राजाओंने वसुदेवको रंक तथा अकुलीन कहा था* और उनके इस कथनका जैन शास्त्रों में उल्लेख भी मानते है, फिर उनका यह कहना कहाँ तक ठीक हो सकता है कि लेखकने इन शब्दोको अपनी तरफसे जोड़ दिया, इसे पाठक स्वयं समझ सकते हैं। साथ ही, इस बातका भी अनुभव कर सकते हैं कि समालोचकजीने जो यह कल्पना की है कि स्वयंवर-मंडपमें राजाओंके सिवाय कोई दूसरा प्रवेश नहीं कर सकता था और इसलिये बाजा बाजाने वाले भी वहाँ राजा त्रित व्यक्ति के रूपमें वसुदेवका पाणविकोंके अन्तमें--पीछेकी और ... बैठ जाना या खड़े रहना ही उचित जान पड़ता है।
*यथाः-."रङ्क और अकुलीन तो केवल प्रतिस्पर्धी राजाओं ने स्पर्धावश बतौर अपशब्दोंके कहा है"।
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४२
विवाह-क्षेत्र-प्रकाश ।
ही होते थे, वसुदेवजी उन्हीं बाजा बजाने वाले राजाओंमें जाकर बैठ गये थे* वह कितनी विलक्षण तथा निःसार मालूम होती है। आपने राजाओंको अच्छा पाणविक बनाया और उन्हें खूब वाजंत्रीका काम दिया ! और एक वाजंत्री ही का काम क्या, जब स्वयंवरमें राजाओं तथा राजकुमारों के सिवाय दूसरेका प्रवेश ही नहीं होता था तबतो यह कहना चाहिये कि पानी पिलाने, जूठे बर्तन उठाने और पंखा झोलने श्रादि दूसरे सेवा चाकरीके कामों में भी यहाँ राजा लोगही नियुक्त थे ! यह श्रागन्तुक राजाओंका अच्छा सम्मान हुा!मालूम नहीं रोहिणी के पिताके पास ऐसी कौन सी सत्ता थी जिससे वह कन्याका पणिग्रहण करने की इच्छासे आए हुए राजाओको ऐसे शूद्र कर्मों में लगा सकता! जान पड़ता है यह सब समालोचकजीकी कोरी कल्पनाही कल्पना है,वास्तविकतासे इसका कोई सम्बंध नहीं। ऐसे महोत्सवके अवसर पर आगन्तुक जनोंके विनोदार्थ और मांगलिक कार्योंके सम्पादनार्थ गाने बजानेका काम प्रायः दूसरे लोगही किया करते हैं, जिनका वह पेशा होता हैस्वयंवरोत्सवकी रीति नीति, इस विषयमें, उनसे कोई भिन्न नहीं होती। इसके सिवाय,समालोचकजी एक स्थान पर लिखते हैं:
"रोहिणीने जिस समय स्वयंवरमण्डपहैं किसी राजाको नहीं वरा और धायसे बात चीत कर रहीथी उस समय मनोहर वीणाका शब्द सुनाई पड़ा"। ___ *यथाः- "स्वयंवर मंडपमें सब राजाही लोग पाया करते थे और जो इस योग्य हुआ करते थे उन्हींको स्वयंवर मंडप में प्रवेश किया जाता था।" "उन्होंने [वसदेवने स्वयंवरमंडपमें प्रवेश किया और जहाँ ऐसे राजा बैठे हुए थे जोकि वादिनविद्याविशारद थे उन्होंमें जाकर बैठ गए।"
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्वयंवर विधाह।
इससे भी यह साफ ज़ाहिर हता है कि स्वयंवरमंडप में घसदेव जी एक राजाकी हैसियत से अथवा राजाके वेषमें उपस्थित नहींथे और इसीसे राहिणोने स्वयंवरमंडपमें किसी गजाको नहीं घरा' इन शब्दों का प्रयोग होसका है। स्वयंवर. मंडपमें स्थित जब सब राजाओंका परिचय दिया जा चुका था
और राहिणीने उनमें से किसोको भी अपना वर पसंद नहीं किया था तभी घमदेवजीने वीणा बजाकर रोहिणीकी चिनपत्ति को अपनो भार आकर्षित किया था। अतः समालोचक जीका इस कल्पना और श्रापत्तिमें कुछ भी दम मालम नहीं होता।
दूसरी आपत्ति के विषयमें, यद्यपि, अब कुछ विशप लिखने की जरूरत बाकी नहीं रहती, फिर भी यहाँ पर इतना प्रकट करदेना उचित मालूम होता है कि समालोचक जी ने उसमें लेखकका जो वाक्य दियाहै वह कुछ बदल कर रखा है उस में 'अज्ञातकल जाति' के बाद 'रङ्क' शब्द अपनी ओरसे बढाया है और उससे पहले 'एक अपरिचित' श्रादि शब्दों को निकाल दिया है। इसी प्रकारका और भी कुछ उलटफर किया है जो ऊपर उद्धृत किये हुए उदाहरणांश परसे सहज ही में जाना जासकता है। मालूम नहीं इस उलटा पलटीसे समालोचकजी ने क्या नतीजा निकाला है। शायद इस प्रकारके प्रयत्न द्वारा ही श्राप लेखकके लिखनेको "सर्वथा शास्त्रविरुद्ध"सिद्ध करना चाहते हो! परन्तु ऐसे प्रयत्नोंसे क्या होसकता है? समालो. चकजीने कहीं भी यह सिद्ध करके नहीं बतलाया कि वरमाला डालने के वक्त वसुदेवजी एक अपरिचित और अशातकुल-जाति व्यक्ति नहीं थे। जिनसेनाचार्यने तो वरमाला डालनेके बाद भी आपको “कोऽपिगुप्तकुलः" विशेषणके द्वारा उल्लेखित किया है औरत दनुसार जिनदास ब्रह्मवारीने भो आपके लिये "कोपिगढ़ कुलः" विशेषणका प्रयोग किया है, जिससे जाहिर है कि उनका
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४४
विवाह-क्षेत्र प्रकाश।
कल यहाँ किसीको मालूम नहीं था। वसदेव जीके कलीन या अकलीन होनेका राजाओं में विवाद भी उपस्थित हुप्राथा और उसका निर्णय उस वक्तसे पहले नहीं होसका जब तक कि युद्ध में वसुदेवने समुद्रविजयको अपना परिचय नहीं दिया । इससे स्पष्ट है कि वरमाला डालनेके वक्त वसुदेवसे कोई परिचित नहीं था, न वहाँ उनके कुल जातिका किसीको कुछ हाल मालूम था: और वे एक बाजंत्री (पाणविक) के वेष में उपस्थित थे, यह पात ऊपर बतलाई ही जा चुकी है। उसो वाजंत्री वेष में उनके गलेमें परमाला डाली गई और वरमालाको डाल कर रोहिणी, सबोंको अाश्चर्य में डालते हुए, उन्हींके पास बैठ गई। ऐसी हालत में लेखकका उक्त लिखमा किधरसे सर्वथा शास्त्रविरुद्ध है इसे पाठक स्वयं समझ सकते हैं। हाँ, समालोचक जीने इतना ज़रूर प्रकट किया है कि वसुदेवने वीणा बजाकर रोहिणीको यह संकेत कियाथा कि "तरे मनको हरण करने वाला राजहंस यहाँ बैठा हुआ है” इस संकेत मात्रका अर्थ ज्यादासे ज्यादा इतना ही होसकता है कि रोहिणोके दिलमें यह खयाल पैदा होगया हो कि वह कोई राजा अथवा राजपत्र है। परन्तु राजा तो म्लेच्छ भी होते है, अकुलोन भी होते है, सगोत्र भी होते है, विजातीय भी होते हैं और असवर्ण भी होते हैं। जब इन सब बातोका कोई निर्णय नहीं किया गया
और वरमाला एक अपरिचित तथा अज्ञातकल जाति व्यक्तिकेही गले में-चाहे वह राजलक्षणोंसे मंडित या अपने मुखमंडल परसे अनुमानित होने वाला राजा ही क्यों न हो-डाल दी गई तबतो यही कहना चाहिये कि स्वयंवर में एक अकलीन, सगोत्र, विजातीय अथवा असवर्णको भी घरा जा सकता है। फिर समालोचक जी की जिनदास ब्रह्मचारीके उक्त श्लोक पर आपत्ति कैसी ? उसमें तो यही बतलाया
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्वयंवर-विवाह ।
१४५
गया है कि स्वयंवरमें कन्या अपनी इच्छानुसार वर पसंद करती है, उसमें घरके कलीन या प्रकलीन होनेका कोई नियम नहीं होता और इसको समर्थन ऊपर की घटना से भले प्रकार होजाता है। । परन्तु तीसरी आपत्तिमें समालोचकजी उक्त श्लोकको कोधमें कहा हुआ ठहरा कर अप्रामाणिक बतलाते हैं और श्राप स्वयं, दूसरे स्थान पर, एक कामीजन द्वारा अपनी कामुकी के प्रति, काम-पिशाचके घश-वर्ती होकर, कहा हुआ वाक्य प्रमाणमें पेश करते हैं और उसमें पाए हुए 'प्रिये' पद परसे यह सिद्ध करना चाहते हैं कि उन दोनों में पति पत्नीका सम्बंध स्थापित होगया था-उनका विवाह होच का था, यह कितने श्राश्चर्य की बात है ! श्रस्तु; मैं अपने पाठकों को यह भी बतला देना चाहता हूँ कि उक्त श्लोक क्रोध नहीं कहा गया किन्तु तुभित राजाओंको शांत करते हुए उन्हें स्वयंवरकी नीतिका स्मरण करानेके लिये कहा गया है। जिनदाप्त ब्रह्मचारीके हरिवंशपुराणमें उक्तश्लोकसे पहले यह श्लोक पाया जाता है :
वसुदेवस्ततो धीरो जगाद क्षुभितान्नृपान । - मद्वचः श्रूयतां यूयं दृप्ताहंकारकारिणः ।। ७० ।।
इसमें वसुदेवका 'धीर' विशेषण दिया है और उसके द्वारा यह सचित किया गयाहै कि वे सुमित सथा अहंकारी राजाओंको स्वयंवरकी नीतिको सुनाते हुए स्वयं धीर थेक्षभित अथवा फपित नहीं थे। श्री जिनसेनाचार्यने तो इस विषयमें और भी स्पष्ट लिखा है । यथा:
वसुदेवस्ततो धीरः प्रोवाच क्षभितान्नपान् । श्रूयतां क्षत्रियैदृप्तः साधुभिश्च वचो मम ॥५२॥
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
विवाह-क्षेत्र प्रकाश।
*स्वयंवरगता कन्या वणीते रुचितं वरं। कुलीनमकुलीनं वा न क्रमोस्ति स्वयंवरे ॥ ५३॥ अक्षान्तिरत्र नो युक्ता पितुर्धातुर्निजस्य वा। स्वयंवरगतिज्ञस्य परस्येह विशेषतः ॥ ५४ ॥ कश्चिन्महाकुलीनोऽपि दुर्भगः सुभगोऽपरः। कुलसौभाग्ययोर्नेह प्रतिबन्धोस्ति कश्चनः ॥५५॥ तदत्र यदि सौभाग्यमविज्ञातस्य मेऽनया। अभिव्यक्तं न वक्तव्यं भवद्भिरिह किंचनः ॥५६॥
-हरिवंशपुराण । अर्थात्-क्षुभित राजाओको अनेक प्रकारसे कोलाहल करते हुए देखकर, धीर वीर वसदेव जी ने, गर्वित क्षत्रियों और साधजनौ दोनों को अपनी बात सुनने की प्रेरणा करते हुए कहा-'स्वयंवरको प्राप्त हुई कन्या उस चरको वरण करतीस्वीकार करती-है जा उस पसंद होता है, चाहे वह घर कुलीन हो या अकुलीन: क्योंकि स्वयंवरमें वरके कुलीन या अकलीन होनेका कोई नियम नहीं होता। (अतः) इस समय कल्याके पिता तथा भाई को, अपने सम्बंधी या दूसरे किसी उत्तक्तिका और खासकर ऐसे शख्लोको जो स्वयंवरकी गतिउसकी रोतिनीति-से परिचित है कुछभी अशांति करनी उचित नहीं है। कोई महाकुलीन होते हुए भी दुर्भग होता है और दूसरा महा अकुलीन होने पर भी सुभग होजाता है, इससे कुल और सौभाग्यका यहाँ कोई प्रतिबंध नहीं है। और इस
*जिनदास ब्रह्मचारीने इसी श्लोकको, कुछ अक्षरों को आगे पीछे करके, अपने हरिवंशपुराणमें उद्धृत किया है।
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
. स्वयंवर-विवाह।
१४७
लिये स्वयंवरमें मुझ अविज्ञात(अशात कुलजाति अथवा अपरिचित) व्यक्तिका इस कन्याने यदि केवल सौभाग्य ही अनुभव किया है कलादिक नहीं--(और उसीको लक्ष्य करके वरमाला डाली गई है) तो उसकी इस कृतिमें प्राप लोगों को कुछ भी बोलने-या दखल देनेका ज़रा भी अधिकार नहीं है।
इससे साफ जाहिर है कि वसुदेव ने इन वाक्योंको, जिनमें उक्त श्लोक भी अपने असली रूपमें शामिल है. *कोधके किसी प्रोवेशमें नहीं कहा बल्कि बड़ी शांति के साथ, दूसरोंको शांत करते हुए, इनमें स्वयंवर-विवाहकी नीतिका उल्लेख किया है। उन्होंने ये वाक्य साधुजनोंको भी लक्ष्य करके कहे है जिनके प्रति क्रोधकी कोई वजह नहीं हो सकती, और ५४ वे पद्यमें आया हुअा " स्वयंवरगतिज्ञस्य " पद इस बातको और भी साफ बतला रहा है कि इन वाक्यों द्वारा स्वयंवरकी गति, विधि अधवा नीतिका ही निर्देश किया गया है। यदि ऐसा न होता तो श्राचार्य-महोदय आगे चलकर किसी न किसी रूपमें उसका निषेध जरूर करते, परन्तु ऐसा नहीं किया गया और इस लिये यह कहना चाहिये कि श्रोजिनसेनाचार्यने स्वयंवरविवाहकी रीति नीतिका ऐसाही विधान किया है कि उसमें वरके कुलीन या अकुलीन होने का कोई नियम नहीं होता और न कुल-सौभाग्यका कोई प्रतिबध ही रहता है । अतः उक्त श्लोक को प्रमाण कहना अपनी ना समझी प्रकट करना है।
विज्ञ पाठकजन, जब स्वयंवर-विवाहकी ऐसी उदारनीति है
यदि क्रोधके आवेशमें कहा होता तो जिनसेनाचार्य वस्देवको 'धीर' न लिखकर 'क्रुद्ध' प्रकट करते, जैसा कि 4 वें पद्यमें उन्होंने जरासंधको प्रकट किया है । यथा :
• "तच्छुत्याशु जरासंधः क्रुद्धः प्राह नृपानृपाः ।"
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४.
विवाह क्षेत्र प्रकाश।
और वह संपर्ण विवाह विधानों में श्रेष्ट तथा सनातनमार्ग माना गया है तब यह कहना शायद कुछ अनुचित न होगा कि बहुत प्राचीनकालमें विवाह के लिये कुल,गांत्र अथवा जतिका ऐसाकोई खास नियम नहीं था जो हर हालतमें सष पर काबिल पाबंदी हो-अथवा सबको समान रूपसे तदनुसार चलनेके लिये बाध्य कर सके और उसका उल्लंघन करने पर कोई व्यक्ति जाति बिरादरीसे पथक अथवा धर्मसे च्युत किया जा सकता छे। ऐसी हालतमें, आजकल एक विवाहके लिये कुल-गोत्र अथवा जाति-वर्णको जो महत्व दिया जाता है वह कहां तक उचित है और उसमें कोई योग्य फेरफार बन सकता है याकि नहीं, इसका आप स्वयं अनुभव कर सकते हैं। अस्तु ।
यहाँ तक इस सब कथनसे उन सभी आपत्तियों का भले प्रकार निरसनहो जाता है जो वसुदेवजीके उदाहरण पर अथवा समची पुस्तक पर की गई है। अब में, संक्षेपमें, कुछ विशेष बाते अपने पाठकोंके सामने और प्रस्तुत करना चाहता हूँ जिससे सगात्र, असवर्ण और अन्तर्जातीय विवाहोंके सिद्धान्त और भी ज्यादा रोशनी में आजायें और उनपर अच्छा प्रकाश पढ़ सके । क्योंकि, समालोचकजीने कहीं कहीं पर एसे विवाहोंके लिये अथवा गोत्र, जाति और वर्णकी रक्षा या उनकी वर्तमान स्थितिको ज्योंकी त्यों बनाये रखनेके लिये बड़ी चिन्ता प्रकट की है।
गोत्र-स्थिति और सगोत्र-विवाह ।
जैनसिद्धान्त में-जैनियोंकी कर्मफिलोसोफी में- 'गोत्र' नामका भी एक कर्म है और उसके ऊँच, नाच ऐसे कल दो भेद किये गये हैं । 'गोम्मटसार' ग्रन्थमें बतलाया है कि 'संतान
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
गोत्र-स्थित और सगोत्र-विवाह ।
१४६ क्रमसे चले पाए जीवोंके आचरण-विशेषको नाम 'गोत्र' है। वह आचरण ऊँचा और नीचा दो प्रकार का होने से गोत्रके भी सिर्फ दो भेद हैं, एक उच्चगोत्र और दूसरा नीचगोत्र, यथाः
संतानकमेशागय जीवायरणस्स गोदमिदि सपणा । उच्चं णीचं चरणं उच्चं पीचं हवे गोदं । परन्त आजकल जैनियों में जो सैकड़ों गोत्र प्रचलित हैंउनकी ८४ जातियों में प्रायः सभी जातियाँ, समान पाचरण होते हुए भी, कुछ न कुछ गोत्र संख्याको लिये हुए हैं-वे सब गोत्र उक्त सिद्धान्त प्रतिपादित गात्र-कथनसे भिन्न हैं, उनमें 'उच्च' और 'नीच' नामके कोई गोत्र है भी नहीं, और न किसी गोत्रके भाई ऊँच अथवा नीच समझे जाते हैं। इन गोत्रोंके इतिहास पर जब दृष्टि डाली नाती है तो वह बड़ा ही विचित्र मालम होता है और उससे यह बात सहजही समझ में श्रा जाती है कि ये सब गोत्र कोई अनादिनिधन नहीं है-वे भिन्न भिन्न समयों पर भिन्न भिन्न कारणों को पाकर उत्पन्न हुए और इसी तरह कारण विशेषका पाकर किसी न किसी समय नष्ट हो जाने वाले हैं । अनेक गोत्र केवल ऋषियों के नामों पर प्रति. ष्ठित हुए, कितने ही गोत्र सिफ नगर ग्रामादिकोंके नामों पर रक्खे गये और बहुतसे गोत्र वश के किसी प्रधानपुरुष, व्यापार, पेशा अथवा किसी किसी घटनाविशेषको लेकर ही उत्पन्न हुए हैं । और इन सब गोत्रोंकी उत्पत्ति या नामकरणसे पहले पिछले गोत्र नष्ट होगये यह स्वतः सिद्ध है- अथवा यो कहिये कि जिन जिन लोगोंने नवीन गोत्र धारण किये उनमे और उनकी संतति में पिछले गोत्रोंका प्रचार नहीं रहा । यहाँ पर इन गोत्रोंकी कृत्रिमता और परिवर्तनशीलताका कुछ दिग्दर्शन करा देना उचित मालम होता है और उसके लिये अगवाल
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५०
विवाह-क्षेत्र-प्रकाश। खंडेलवाल तथा ओसवाल जातियों के गोत्रोंको उदाहरणके तौर पर लिया जाता है। इस दिग्दर्शन परसे पाठकोको यह समझने में श्रासानी होगी और वे इस बात का अच्छा निर्धार कर सकेंगे कि आजकल इन गोत्रोको जो महत्व दिया जाता है अथवा विवाह-शादीके अवसरों पर इनका जो भागह किया जाता है वह कहाँ तक उचित तथा मान्य किये जानेके योग्य है:
(१) अगवाल जातिके इतिहाससे मालूम होता है कि अगवालवंशके आदि पुरुष राजा अगसेन थे । वे जिस गोत्रके व्यक्ति थे वही एक गोत्र, अाजकल की दृष्टि में, उनकी संतति का-संम्पूर्ण अगवालोका-होना चाहिये । परन्तु ऐसा नहीं है। अगवाल जातिमें श्राज १८ गोत्र प्रचलित है और ये गोत्र राजा अगसेनके अठारह पुत्री द्वारा धारण किये हुये गोत्र हैं, जिनकी कल्पना उन्होंने अपनी संततिके विवाहसंकटको दूर करने के लिये की थी। इनमें से गर्ग श्रादि अधिकांश गांवीका नामकरण तो उन गर्गादि ऋषियोंके नामों पर हुआ है जो पुष्पदेवादि राजकुमारोंके अलग अलग विद्यागुरु थे और वाकीके वृन्दल, जैत्रल (जिंदल) आदि कुछ गोत्र वृन्ददेवादि राजकुमारों के नामोपरसे ही निर्धारित किये गये अथवा प्रचलित हुए जाम पड़ते हैं। ऐसी हालतमें यह स्पष्ट है कि राजा अगसेनका गोत्र उनके साथही समाप्त हो गया था-वह उनकी संततिमें प्रचलित नहीं रहा-और १८ नये गोत्रोंकी सृष्टि भी होसकी। साथ ही, यह बतलाने की कोई जरूरत नहीं रहती कि पहले जमाने में पिताके गोत्रको छोड़कर नये गोत्र भी धारण किये जा सकते थे और इस नई गोत्र-कल्पनाके अनुसार अपने विवाह-क्षेत्रको विस्तीर्ण बनाया सकता था। यदि अग्रवालोंकी इस पिछली गोत्र-कल्पनाको हटा दिया जाय तो, राजा अगसेनकी शष्टि से. सब अगवाल एक गोत्री हैं और वे परस्पर-अगूवालोंमेंही
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
गोत्र-स्थित और सगोत्र-विधाह।
२५१
विवाह करके सगोत्र विवाह कर रहे हैं, यह कहना चाहिये ।
(२) खंडेलवाल जातिके जैन इतिहाससे पता चलता है कि एकसमय राजा खंडेलगिरकी राजधानीखोलानगर और उसके शासनाधीन =३ ग्रामों में महामारी का बड़ा प्रकोप हुश्रा और वह नरमेध यज्ञ तक कर देनेपर भी शांत न होता हुश्रा, बहुत कुछ हानि पहुँचाकर, अन्तको श्रीजिनसेनस्वामीकं प्रभावसे शांत हुश्रा। इस अतिशयको देख कर ८४ ग्रामोके राजाप्रजा सभी जन जैनी होगये और श्रीजिनसेनस्वामी ने उनके ८४ गोत्र नियत किये । गोत्रों में ‘सहा' गोत्रको छोउ कर जो खंडेलानगरके निवासियों तथा राजकल के लिये नियत किया गयाथा, शेष ३ गात्रोंका नामकरण प्रामीके नामों पर हुश्राअर्थात् , एक एक ग्राम के रहने वाले सभी जैनियों का एक एक गोत्र स्थापित किया गया। जैसे पाटनके रहनेवालोका गोत्र 'पाटनी' अजयरके रहने वालोका 'अजमेरा', बाकली ग्रामके निवासियोंका 'बाकली वाल और कासली गाँवके निवासियों का गोत्र कासलीवाल नियत हुआ । इन गोत्रों में सोनी,लहाहा, चौधरी आदि कुछ गोत्रोंक विषयमें विद्वानीका यह भी मत है कि वे व्यापार, पेशा या पदस्थको हाटसे रक्ख हुए नाम हैसोने का व्यापार तथा काम करने वाले 'सोनी', लाहेका व्यापार तथा काम करने वाले 'लुहाडा' और चौधरीक पद पर प्रतिष्ठित 'चौधरी' कहलाये । परन्तु कुछ भी सही, इतना तो स्पष्ट है कि इन सब लोगोंके पुराने गोत्र कायम नहीं रहे और ८४ नये गोत्रों की सृष्टि हुई । एक गोत्रके लोग प्रायः अनेक ग्रामोमें रहतहे और एक ग्राममें अक्सर अनेक गोत्रोके लोग रहा करते हैं । जब गांवीका नामकरण ग्रामोके नामों पर हुश्रा, एक ग्रामफे रहने वाले जैनियोका एक गोत्र कायम किया गया और अपने अपने उस गोत्रको छोड़ कर खंडेलवाल लोग दूसरे
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५२
विवाह क्षेत्र प्रकाश। गोत्रमे विवाह सम्बंध करते हैं - तब उनके पिछले गोत्रोंकी दृष्टि से यह कहा जासकता है कि वे सगोत्र विवाह भी करते हैं क्योंकि यह प्रायः असंभव है कि उन सब नगर ग्रामों में पहले से एक दूसरेसे भिन्न अलग अलग गोत्रके ही लोग निवास करत हो । राजमलजी बडजत्याने खडेलवाल जैनोंका जो इतिहास लिखा है उससे तो यह स्पष्ट मालम होता है कि कितने ही वंशों के लोग अनेक प्रामों में रहतेथे, जैसे चौहान वंशके लोग खंडेलानगर, पापडी, भैंसा, दरड्यो, गदयो, पहाडी, पांडणी. छावड़ा, पांगुल्यो. भलाणी, पीतल्यो, बनमाल, अरडक, चिरडकी सांभर और चाचण्या में रहते थे । इन नगर ग्रामों के निवासियों के लिये क्रमशः सहा, पापडीवाल, भैसा (बडजात्या), दरड्या, गदैया, पहाड्या, छाबडा, पांगल्या भूलण्या, पीतल्या बनमाली, अईक, चिरडक्या, सांभर्या और चौवाण्या गोत्रोंकी सृष्टि कीगई । इन गोत्रोंके खंडेलवाल क्या अापसमें विवाह सम्बंध नहीं करते ? यदि करते है तो चौहानवंशके मलगोत्रकी दृष्टि से कहना होगा कि ये एकही गोत्रमें विवाह करते हैं अथवा यो कहिये कि पिछली गोत्र कल्पनाको निकाल देने पर उनके वे विवाह सगोत्र विवाह ठहरते हैं। दसरे गोगोंकी भी प्राय: ऐसी ही हालत है । इसके सिवाय,
x यह दूसरी बात है कि कुछ रिश्तेदारों के गोत्र भी राले जाते हैं। हरन्तु उससे किसी खास नामके गोत्रोंका नियमित रूपसे टाला जाना लाजिमी नहीं आता हो सकता है कि एक विवाह के अवसर पर किसी रिश्तेदारका जो गोत्र टाला गया वह कालान्तर में न टाला जाय अथवा उसी गोत्रमें कोई दुसरा विवाह भी कर लिया जाय ; क्याक रिश्तेदारोकी यह स्थिति उत्तरोत्तर संसतिमें बदलती रहती है।
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
गोत्र-स्थिति और सगोत्र-विवाह ।
१५३
ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता जिससे यह मालूम होता हो कि पहले एक नगर-ग्रामके निवासी श्रापसमें विवाह सम्बंध नहीं किया करते थे । और यदि कहीं ऐसा होता भी हो तो
आजकल जब बह प्रथा नहीं रही और एक हो नगर ग्रामके निवासी खडेलवाल परस्परमें विवाह सम्बन्ध कर लेते हैं तब उनके लिये एक हो नगर-प्रामक निवासियों से बने हुए अपने एक मात्र में विवाह सम्बन्ध करलेने पर, सिद्धान्तका दृष्टिसं कौन बाधा श्रातो हे अथवा उसका न करना कहाँ तक यूक्तियक्त हो सकता है, इसकाविचार पाठकजनस्वयं करसकत है।
(३) - जैनसंप्रदाय शिक्षा * ' में यति श्रीपालचंद्रजीने ओसवाल वशको उत्पत्तिका जो इतिहास दिया उससे मालूम होता है कि रत्नप्रभसरि न, 'महाजन वश' की स्थापना करत हुए, 'तातहड' आदि अठारह गोत्र श्रीर ‘सुघड' प्रादि बहुतसे नये गांत्र स्थापित किये थे। श्रार उनके पीछे वि० सं० सालहसौ तक बहुतसे जैनाचार्यान राजपत, महेश्वरी, वैश्य,
और ब्राह्मण जाति वालों को प्रतिबोध देकर- उन्हें जैनी बना कर-महाजन वंशका विस्तार किया और उन लोगों में अनेक नये गोत्रों की स्थापना की। इन सब गोत्रोंका तिजी ने जो इतिहास दिया है और जिसे प्रामाणिक तथा अत्यंत खोजके बाद लिखा हुश्रा इतिहास प्रकट किया है उसमें से कुछ गोगों के इतिहासका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है :
१ कुकुडचोपडा आदि गोत्र ---जिनवल्लभसरि (वि० सं० १९५२) ने मण्डारके राजा नानदे' पडिहारके पत्र धवलचंद्र के गलितकको कुकडी गायके घोको मंत्रित करके तीन दिन चुपड़वाने द्वारा नोरोग किया। इससे राजाने कुटुम्ब-सहित
*यह पुस्तक वि० सं० १६६७में बम्बईसे प्रकाशित हुई हैं।
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५४
विवाह-क्षेत्र प्रकाश। जैन धर्म ग्रहण किया और सरिजीने उसका महाजन वंश तथा ‘कुकडबोपडा' गोत्र स्थापित किया। मंत्री ने भी धर्म ग्रहण किया और उसका गोत्र 'गणधर चोपडा' नियत किया गया। कुकडचोपडा गोत्रको बादका चार शाखाएँ हुई जिनमेसे एक 'कोठारी 'शाखा भी है जो इस वंशके एक 'ठाकरसी' नामक व्यक्ति से प्रारंभ हुई। ठाकरसीका राव चंडेने अपना कोठार नियत किया था तभी से ठाकरसीको संतानवाले 'कोठारी' कहलाने लगे।
२ घाडीवाल गोत्र--डीडी नामक एक स्वीची राजपूत धाड़ा मारताथा । उसको वि० सं० ११५५ में जिनवल्लभ सरिने प्रतिबोध देकर उसका महाजन वंश और 'धाडीवाल' गोत्र स्थापित किया।
३ नालाणी आदि गोत्र-लालसिंहको जिन पशभरिने प्रतिबोध देकर उसका ‘लालाणी' गोत्रा स्थापित किया और उसके पाँच बेटोसे फिर वांठिया, जोरापर, विरमेचा, हरखा. चत, और मल्लावत गोत्र चले। इसी तरह एक 'काला' व्यक्ति की औलादवाले 'काला' गोत्री कहलाये।
४ पारख गोत्र-पासजीने एक हीरको परख की थी उसी दिनसे राजा द्वारा 'पारख' कहे जानेके कारण उनको संतान के लोग पारख गोत्री कहे जाने लगे। ___५ लूणावत प्रादि गोत्र-' लूणे' के वंशज ‘लणावत' गोत्री हुए परन्तु बादको उसके किसी वंशजके युद्धसे न हटने पर उसकी संततिका गात्र नाहटा' होगया । और एक दसरे वंशजको किसी नवाब ने 'रायजादा' कहा । इससे उसका गोत्र रायजादा' प्रसिद्ध हुभा।
६ रतनपुरा और कटारिया गोत्र-चौहान राजपूत रतनसिंहको, जिसने रतनपुर बसाया था जिनदत्त सूरिने जैनी
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
गोत्र-स्थिति और सगोत्र-विवाह । १५५ बनाकर उसका 'रतनपुरा' गोत्र स्थापित किया। इसके वंशमें झांझणसिंह नामका व्यक्ति अपने पेट में कटार मारकर मरगया था। इससे उसकी संतति का गोत्र 'कटारिया' प्रसिद्ध हुआ।
७ राँका तथा सेठिया गोत्र-'काकू' नामका एक व्यकि बहुत दुबेल शरीरका था इससे लोग उसे रोका' पुकारने लगे। उसे नगरसेठका पद मिला और इसलिये उसकी संतान का गोत्र 'राँका' तथा 'सेठिया' प्रसिद्ध हुआ।
गांत्रोकी ऐसी कृत्रिम, विचित्र और क्षणिक स्थितिके होते हुए पूर्व पूर्व गात्रों की दृष्टिसे सगोत्र विवाहोंका होना बहुत कुछ स्वाभाविक है। इसके सिवाय, प्रायः सभी जैनजातियों में गाद लेने अथवा दसकपुत्र प्रहण करनेका रिवाज है, और दत्तकपुत्र अपने गोजसे भिन्न गोत्रका भी लिया जाता है। साथ ही, यह माना जाता है कि उसका गोत्र दत्तक लेनेवालेके गोत्रमें परिणत हो जाता है-उसकी कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं रहती-इसी से विवाहके अवसर पर उसके गोत्रका प्रायः कोई खयाल नहीं किया जाता और यदि कहीं कुछ खयाल किया भी जाता है तो वह प्रायः उस दत्तकपुत्रके विवाह तक ही परिमित रहता है-उसके विवाहमें ही उसका पूर्व गोश बचा लिया जाता है-आगे होने पालो उसकी उत्तरोत्तर संततिमें फिर उसका कोई खयाल नहीं रक्खा जाता और न रखा जा सकता है; क्योंकि एक एक वंशमें न मालूम कितने दत्तक दूसरे वंशो तथा गोत्रों के लिये जा चुके है उन सबका किसीको कहाँ तक स्मरण तथा खयाल हो सकता है। यदि उन सब पर खयाल किया जाय--विवाहों के अवसर पर उन्हें टाला जाय तो परस्परमें विवाहों का होना ही प्रायः असंभव हो जाय। इसी तरह पर स्त्रियों के गोत्र भी उनके विवाहित होने पर बदल जाते हैं और उनकी प्रायः कोई स्वतंग सत्ता नहीं रहतो । यदि उनकी स्वतंत्र सत्ता
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५६
विवाह- क्षेत्र प्रकाश ।
मानी जाय तब तो एक कुलमें कितने ही गोत्रोंका संमिश्रण हो जाता है और उन सबको बचात हुए विवाह करना भोर भी ज्यादा असंभव ठहरता है। साथ ही, यह कहना पड़ता है कि भिन्न भिन्न गोत्रके स्त्री-पुरुषा के सम्बंध से संकर गांधी संतान उत्पन्न होती है और उस संकरताकी उत्तरोत्तर वृद्धि होते रहने से किसी भी गात्रका अपनी शुद्ध स्थितिमें उपलब्ध होना प्रायः असंभव है । गांत्रीकी इस कृत्रिमता और परिवतनशीलताकी कितनी ही सूचना भगवज्जिनसेनाचार्य के निम्न वाक्यसे भी मिलती है और उससे यह साफ़ मालूम होता है कि जैनधर्म में दीक्षित होने पर - जैनापासक श्रथवा श्रावक बनते हुए - श्रजैनों' के गांव और जाति आदिके नाम प्रायः बदल जाते थे-उनके स्थानमें दूसरे समयोचित नाम रखने जाते थे । यथा:जैनोपासक दीक्षा स्यात्समयः समयोचितम् ।
तो गोत्रजात्यादिनामान्तरमतः परम् ॥ ५६ ॥ - आदिपुराण, ३६ बाँ पर्व ।
ऐसी हालत में गोत्रकी क्या असलियत है--उनकी स्थिति कितनी परिकल्पित और परिवर्तनशाल है-और उन्हें विवाहशादियों के अवसर पर कितना महत्व दिया जाना चाहिये, इसका पाठक स्वयं अनुभव कर सकते हैं। साथ ही, ऊपर के संपूर्ण कथनसे यह भी मालूम कर सकते हैं कि पहले जमाने में गोत्रोको इतना महत्व नहीं दिया जाता था जितना कि वह श्राज दिया जाता है
1
यहाँ पर में इतना और बतला देना चाहता हूं कि श्रीजिनसेनाचार्य के हरिवंशपुराणसे जहाँ यह पाया जाता है कि देवकी और वसुदेव दोनों यदुवशा थे, एक कुटुम्बके थे, दोनोंमें चचा भतीजीका सम्बंध था और इसलिये उनका पारस्परिक विवाह
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
गोत्र-स्थति और सगोत्र विवाह ।
१५७
सगोत्र विवाहका एक बहुत बड़ा प्रमाण है, वहाँ यह भी मालूम होता है कि हरिवंशी राजा 'दसु' के एक पुत्र 'वृहद्भ्वज' की संतत्तिर्मे यदुवंशी राजा उग्रसेन हुआ, दूसरे पुत्र 'सुबसु ' की संततिमें जरासंध हुआ और जरासंधकी बहन पद्मावती उग्रसेनसे व्याही गई । जिजसे जाहिर है कि राजा वसुके एक वंश और एक गोत्र में होने वाले दो व्यक्तियोंका परस्पर विवाह सम्बंध हुआ । और इससे यह जाना जाता है कि उस समय एक गोत्र में विवाह होने का रिवाज था । साथ ही, उक्त पुराणसे इस बात का भी पता चलता है कि पहले सगे भाई बहनोंकी धौलाद में जो परस्पर विवाह सम्बन्ध हुआ करता था उसका एक कारण अथवा उद्देश्य 'गोत्रप्रीति' भी होता था । यथाः
नीलस्तस्य सुतः कन्या मान्या नीलांजनाभिधा । कुमारकन्ययोव त्ता संकथा च तयोरिति ॥ ४॥ पुत्रो मे ते यदा कन्या भविता भविता तयोः । विवादे विवाहोऽत्र गोत्रमीत्यै परस्परम् ॥ ५ ॥ - २३ बाँ सर्ग |
इन पद्यर्मे नील और नीलांजना नामके दो सगे भाईबहनों के इस ठहराव का उल्लेख किया गया है कि 'यदि मेरे पुत्र और तुम्हारे पुत्री होगी तो गोत्र में प्रीति की वृद्धि के लिये उन दोनों का निर्विवाद रूपसे परस्पर में विवाह करदेना होगा '
6
परन्तु श्राजकल गोत्र- प्रीति की बात तो दूर रही, एक गोत्र में विवाह करना गोत्र- घात' अथवा गोत्रघाव' समझा जाता है। जैनियों की कितनो ही जातियोंमें तो, विवाह के अवसर पर, पिताके गोत्रके अतिरिक्त माता, और पिता के मामा आदि तकके गात्रोको भी टालने की
माता के मामा,
"
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५८
विवाह-क्षेत्र प्रकाश।
फिकर कीजाती है-कहीं चार चार और कहीं पाठमाठ गोत्र बचाये जाते हैं-और इस तरह पर मामा फफीकी कन्याओं से विवाद करने के प्राचीन प्रशस्त विधानसे इनकार ही नहीं किया जाता बल्कि उनके गोत्रों तकम विवाह करनेको अनुचित ठहराया जाताहै। मालम नहीं इस सब कल्पनाका क्या प्राधार है-यह किस सिद्धांत पर अवलम्बित है-और इन गोत्रोके बचानेसे उस सिद्धान्तकी वस्तुतः कोई रक्षा होजाती है या कि महीं। शायद सगोत्र विवाहको अच्छी तरहसे टालने के लिये ही यह सब कुछ किया जाना हो परन्तु गात्रों की वर्तमान स्थितिमे, वास्तविक दृष्टिसे, सगोत्र विवाहका टालना कहाँ तक बन सकता है, इसे पाठक ऊपरके कथनसे भले प्रकार समझ सकते हैं। हो सकता है कि इस कल्पनाके मल में कोई प्रौढ सिद्धान्त न हो और वह पीछेसे कुछ कारणोंको पाकर निरी कल्पना ही कल्पना बन गई हो । परन्तु कुछ भी हो, इसमें संदेह नहीं कि यह कल्पना प्राचीन कालके विचारों और उस वक्तके विवाह सम्बंधी रीति-रिवाजोसे बहुत कुछ विलक्षण तथा विभिन्न हैउसमें निराधार खोचातानीकी बहुलता पाई जाती है और उसके द्वारा विवाहका क्षेत्र अधिक संकीर्ण होगया है । समझ में नहीं पाता जब बहुत प्राचीन कालसे गोत्रों में बराबर अलटा पलटी होती आई है, अनेक प्रकारसे नवीन गोत्रोंकी सष्टि होतो रही है, एक पुत्र भी पिताके गोत्रको छोड़कर अपने में नये गोत्रकी कल्पना कर सकता था और इस तरह पर अपने अथवा अपनी संतति के विवाह क्षेत्रको विस्तीर्ण बना सकता था, तब वे सब बातें बाज क्यों नहीं होसकती-उनके होने में कौनसा सिद्धान्त वाधक है । गोत्र परिपाटीको कायम रखते हुए भी, प्राचीन पूर्वजोंके अनुकरण द्वारा विवाह क्षेत्रको बहुत कुछ विस्तीर्ण बनाया जासकता है। अतः समाजके शुभचिंतक
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
गोत्र-स्थिति और सगोत्र-विवाह । १५६ सहदय विद्वानों को इस विषय पर गहरा विचार करके गोत्रों की वर्तमान समस्याको हल करना चाहिये और समाजको उसकी उन्नतिका साधक कोई योग्य तथा उचित मार्ग सुझाना चाहिये। हम भी इस विषय पर अधिक मनन करके अपने विशेष विचारोको फिर कभी प्रकट करनेका यत्न करेंगे।
असवर्ण और अन्तर्जातीय विवाह । 'वण' के चार भेद हैं-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र । ये घणं इसी क्रमको लिये हुए हैं, और इनकी सत्ता यहाँ युगकी श्रादिसे चली आती है । इन्हें 'जाति' भी कहते हैं । यद्यपि जाति नामा नामकर्म के उदयसे मनष्य जाति एक ही है और उस मनुष्य जातिकी रप्टिसे सब मनुष्य समान हैं-मनुष्यों के शरीरोमें ब्राह्मणादि वोकी अपेक्षा प्राकृति आदिका कोई खास भेद न होनेसे और शद्रादिकों के द्वारा ब्राह्मणी धादिमें गर्भकी प्रवत्ति भी हो सकने से उनमें जातिकृत कोई ऐसा भेष नहीं है जैसा कि गौ और अश्वादिक में पाया जाता है --फिर भी पत्ति अथवा भाजीविकाके भेद से मनुष्य जातिके उक्त चार भेद माने गये हैं। जैसा कि भगवजिनसेनके निम्न वाक्यसे सूचित होता है :
मनुष्यजातिरेकैव जातिकर्मोदयोद्भवा ।। *यथा:-वर्णाकृत्यादिभेदानां देहेऽस्मिन्न च दर्शनात ।
ब्राह्मण्यादिषु शूद्राद्यैर्गभांधानप्रवर्तनात् ॥४६॥ नास्ति जातिकृता भेदो मनुष्याणां गवाश्ववत् । प्राकृतिग्रहणात्तस्माइन्यथा परिकल्पते ॥४६२॥
-उत्तरपुराण, ७४ वाँ पर्व ।
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
विवाह क्षेत्र प्रकाश ।
वृत्तिभेदाहि तद्भेदाच्चतुर्विध्यमिहाश्नुते ।। ४५ ।। आदिपुराण, पर्व, ३८वाँ । इन चार प्रधान जातियों श्रथवा वर्णोंमेंसे ही अग्रवाल, खंडेलवाल, आदि नवीन जातियों की सृष्टि हुई हैं और इसीसे उन्हें उपजातियां कहते हैं । उनमें भी वृत्तिका दृष्टिसे वर्णभेद पाया जाता है । श्रस्तु ।
१६०
I
इन वर्णों में से प्रत्येक वर्णका व्यक्ति जब अपने ही बर्णकी स्त्रीसे विवाह करता है ता उसे 'सवर्ण विवाह' और जब अपने से भिन्न वर्ण के साथ विवाह करता है तो उसे 'श्रसवर्ण विवाह' कहते हैं । असवर्ण विवाह के 'अनुलोम' और 'प्रतिलोम' ऐसे दो भेद हैं। अपने से नीचे वर्ण वालोकी कन्याओं से विवाह करना 'अनुलोम विवाह' और अपने से ऊपर के वर्ण वालोकी कन्याओं से विवाह करना 'प्रतिलोम विवाह' कहलाता है । यद्यपि इन दोनों प्रकारके असवर्ण विवाहोंमें अनुलोम विवाह अधिक मान्य किया गया है परन्तु फिर भी वर्ण विवाह के साथ भारतवर्ष में दोनों ही प्रकारकं श्रसवर्ण विवाहों का प्रचार रहा है और उनके विधि-विधानों अथवा उदाहरणों से जैन तथा जैनेतर हिन्दू साहित्य भरा हुआ है ।
"
भगवज्जिनसेनाचार्य, आदि पुराणम, अनुलोम रूपसे - वर्ण विवाहका विधान करते हुए, स्पष्ट लिखत हैं :
शूद्राशूद्रेण वोढव्या नान्या स्वां तां च नैगमः । वहेत्स्वां ते च राजन्यः स्वां द्विजन्मा क्वचिच्च ताः ॥ अर्थात् शूद्रका शूद्रास्त्रीके सिवाय और किसी वर्ण की स्त्री के साथ विवाह न होना चाहिये, वैश्य अपने वर्ण की और शूद्रवर्णकी स्त्री से भी विवाह कर सकता है, क्षत्रिय अपने वर्णकी और वैश्य तथा शूद्रवर्णकी स्त्रियाँ ब्याह सकता है और ब्राह्मण
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
अवर्ण और अन्तर्जातीय विवाह |
१६१
अपने बांकी तथा शेष तीन वर्णोंकी स्त्रियोंका भी पाणिग्रहण कर सकता है।
श्री सोमदेव सूरि भी, नीति वाक्यामृतमें, ऐसा ही विधान करते हैं । यथा :
"अनुलोम्येन चतुस्त्रिदिवर्णकन्याभाजना ब्राह्मण-क्षत्रियविशः । "
अर्थात्-अनुलोम विवाह की गति से ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य क्रमशः चार, तीन और दो वर्णोंकी कन्याओं से विवाह करने के अधिकारी हैं I
इन दोनों उल्लेखों से स्पष्ट है कि जैन शास्त्रों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य के लिये सवर्ण विवाह ही नहीं किन्तु शूद्रा तक से विवाह कर लेना भी उचित ठहराया है। हिन्दुओं की मनुस्मृति में भी प्रायः ऐसा ही विधान पाया जाता है । यथा :शूद्रैव भार्या शूद्रस्यसा च स्वा च विशः स्मृते । । तेच स्वा चैव राज्ञथ ताथ स्वा चाग्रजन्मनः ॥
-- ० ३, श्लो० १३ वाँ 1
यह श्लोक आदि पुराण के उक्त श्लोक से बहुत कुछ मिलता जुलता है और इसमें प्रत्येक घर्णके मनुष्योंके लिये भार्याश्रों (विवाहित स्त्रियां) का जो विधान किया गया है वह वही है जो आदि पुराण के उक्त श्लोक में पाया जाता है। अर्थात् शूद्रकी शूद्रा; वैश्यकी वैश्य और शूद्राः क्षत्रियकी क्षत्रिया वैश्या और शूद्रा; और ब्राह्मण की ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्या और ढ़, ऐसे अनुलोम क्रमसे भार्याएँ मानी गई हैं।
मनुस्मृतिके हवें अध्याय में दो श्लोक निम्न प्रकार से भी
पाये जाते हैं
-:
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
विवाह क्षेत्र प्रकाश |
अक्षमाला वसिष्ठेन संयुक्ताऽधमयोनिजा । शारङ्गी मन्दपालेन जगामाभ्यर्हणीयताम् ||२३|| एतावान्याच लोकेऽस्मिन्नपकृष्टपस्तयः । उत्कर्ष योषितः प्राप्ताः स्वैस्वर्भत गुणैः शुभैः ||२४|| 'इन श्लोकों में यह बतलाया गया है कि - " अधम योनिसे उत्पन्न हुई - निकृष्ट (अछूत जातिकी - अक्षमाला नामकी स्त्री बलिष्ठ ऋषि से और शारङ्गी नामकी स्त्री मन्दपाल ऋषिके साथ विवाहित होने पर पूज्यता का प्राप्त हुई। इनके सिवाय और भी दूसरी कितनी ही होन जातियोंकी स्त्रियाँ उच्च जातियों के पुरुषांक साथ विवाहित होने पर - अपने अपने भतार के शुभ गुणोंके द्वारा इस लोक में उत्कर्ष को प्राप्त हुई हैं।' और उन दूसरी स्त्रियों के उदाहरण में टीकाकार कुल्लूक भट्टजीने, “अन्याश्च सत्यवत्यादयो" इत्यादि रूपसे' सत्यवती' के नामका उल्लेख किया है । यह 'सत्यत्रती, ' हिन्दू शास्त्रों के अनुसार, एक धीवर की - - कैवर्त्य अथवा श्रन्त्यज की कन्या थी । इसकी कुमाराषस्था में पराशर ऋषिने इससे भोग किया और उससे व्यासजी उत्पन्न हुए जो 'कानीन' कहलाते हैं । बादको यह भीष्म के पिता राजा शान्तनु से व्याही गई और इस विवाह से 'विविध' नामका पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसे राजगद्दी मिली और जिसका विवाह राजा काशीराज की पुत्रियों से हुआ । विचित्रवीर्थ के मरने पर उसकी विधवा स्त्रियों से व्यासजी ने, अपनी माता सत्यवती की अनुमति से भोग किया और पाण्डु तथा धृतराष्ट्र नामके पुत्र पैदा किये, जिनसे. पाण्डयों श्रादि की उत्पत्ति हुई ।
इस तरह पर हिन्दू शास्त्रों में हीन जातिकी अथवा शूद्रा स्त्रियोंसे विवाह कितने ही उदाहरण पाये जाते हैं और उनकी संतति से अच्छे अच्छे पुरुषों तथा वंशका उद्भव होना भी
१६२
•
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
अलवर और अन्तर्जातीय विवाह ।
१६३
माना गया है। और जैन शास्त्रोंसे ग्लेच्छ, भील तथा वेश्या पत्रियों जैसे हीन जाति के विवादों के उदाहरण म्लेच्छ विवाह' आदि प्रकरणों में दिये ही जा चुके हैं। और इन सब उल्लेखों से प्राचीन काल में अनुलोम रूपसे प्रसवर्ण विवाहोंका होना स्पष्ट पाया जाता है।
अब प्रतिलोम विवाहको भी लीजिये । धर्म संग्रह श्रावकाचारके हवे अधिकार में लिखा है :
परस्परं त्रिवर्णानां विवाहः पंक्तिभोजनम् ।
कर्तव्यं न च शद्वैस्तु शुद्राणां शटकैः सह ॥२५६॥ . अर्थात् - प्रथम तीन वर्ण वालो (ब्राह्मल,-क्षत्रिय-वैश्यों) को भापसमें एक दूसरे के साथ विवाह और पंक्ति भोजन करना चाहिये किन्तु शाके साथ नहीं करना चाहिये । शुद्रोंका विषाह और पंक्ति-भोजन शुद्रों के साथ होना चाहिये।
इस वाक्यके द्वारा यद्यपि, श्रीजिनसेनाचार्य के उक्त कथन से भिन्न प्रथम तीन वर्षों के लिये शूद्रोसे विवाहका निषेध किया गया है और उसे मत विशेष कह सकते हैं, जो बहुत पीछेका मत है + ----हिन्दुओंके यहाँ भी इस प्रकारका मत विशेष पाया जाता है *---परन्तु यह स्पष्ट है कि इसमें प्रथम सीन घोंके लिये परस्पर रोटी बेटीका खास तौर पर विधान किया गया
+ क्योंकि 'धर्मसंग्रह श्रावकाचार' वि० सं० १५४१ में बम कर समाप्त हुआ है और इसलिये वह जिनसेनके हरिवंशपुराण से ७०१६ष याद का बना हुश्रा है। ___मत्रि भादि ऋषियोंके इस मत विशेषका उल्लेख मनुस्मति के निम्न वाक्य में भी पाया जाता है :. शूद्राधेदी पतत्यप्रेरुतथ्यतनयस्य च ।।
शोनकस्य सुतात्पत्या तदात्यतया भूगोः ॥३-१६॥
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
विवाह क्षेत्र प्रकाश।
है। और इससे अनुलोम विधाहके साथ साथ प्रतिलोम विवाह का भी खासा विधान पाया जाता है। अर्थात्, क्षत्रियके लिये ब्राह्मणकी और वैश्यके लिये क्षत्रिय तथा ब्राह्मण दोनोंकी कन्याओसे विवाहका करना उचित ठहराया गया है। जैनकथा ग्रंथोंसे भी प्रतिलाम विवाहका बहुत कुछ पता चलता है, जिसके दो एक उदाहरण नीचे दियं जाते हैं :--
(१) वसुदेवजीन, जो स्वयं क्षत्रिय थे, विश्वदेव ब्राह्मण की क्षत्रिय स्त्रीसे उत्पन्न ' सोम श्री नामकी कन्यासे-उसे वेदविद्यामें जीतकर ---विवाह कियाथा। जैसाकि श्रीजिनसेनाचार्य कृत हरिबंशपुराण ( २३ वै सर्ग ) के निम्न पाक्यों से प्रकट है:
अन्वये तनु जातेयं क्षत्रियायां सुकन्यका । सोमश्रीरिति विख्याता विश्वदेवद्विजन्मिनः ॥४६॥ करालब्रह्मदत्तेन मुनिना दिव्यचक्षुषा । वेटेजंतुः समादिष्टा महतः सहचारिणी ॥५०॥ इति श्रुत्वा तदाधीत्य सर्वान्वेदान्यवृत्तमः । जित्वा सोमश्रियं श्रोमानुपयेमे विधानतः ॥५१।।
इन पाक्योंस अनुलोम और प्रतिलोम दोनों प्रकारके विषाहोंका उल्लेख मिलता है।
(२) श्रीकृष्ण ने अपने भाई गजकुमारका विवाह, क्षत्रिय राजाओंकी कन्याओंके अतिरिक्त, साम शर्मा ब्राह्मणकी पुत्री 'मामा' से भी किया था, जिसका उल्लेख जिनसेनाचार्य और जिनदास ब्रह्मचारी दोनोंके हरिवंश पुराणों में पाया जाता है। यहाँ जिनदास ७० के हरियशपराणसे एक पद्य नीचे दिया जाता है :
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
अम्मवर्ण और अन्तर्जातीय विवाह । १६५ मनोहरतरां कन्या सोमशर्माग्रजन्मनः । सोमाख्यां वृत्तवांश्चक्री क्षत्रियाणांतथापराः ॥३४-२६।। ( ३ ) उज्जयिनीक वैश्य पुत्र ‘धन्यकुमार' का विवाह राजा श्रेणिककी पुत्री ‘गुणवतो' के साथ हुआ था । अपना कुल पूछा जाने पर इन्होंने गजा थेणिक से साफ़ कह दिया था कि में उजयिनीका रहने वाला एक वैश्यपुत्र हूं और तीर्थ. यात्रा के लिये निकला हुआ है। इस पर श्रेणिक न ‘गणवती' श्रादि १६ कन्याओं के साश इनका विवाह किया था । जैसाकि रामचन्द्र-मुमुद कृत 'पुण्यात कशाकशिसे प्रकट है :
" राजा (श्रेणिकः) ऽभयकुमारादिभिरपथमाययौ । राज भवनप्रवेश्यक कुलोभवानिति पप्रच्छ । कुमारो व्रत उज्जयिन्यांवैश्यात्मजोतीर्थयात्रिकः । ततोनपोगुणवत्यादिभिः षोडशकन्याधिस्वस्य विवाहं चकार ।।" इमी पुण्यान्नव कथाकोशमें 'भविष्यदस' नामके एक वैश्य पुत्रकी भी कथा है, जिसने हरिपुर के अग्जिय राजाकी पुत्री 'भविष्यानुरूपा' से और हस्तिनापुरके राजा भूपालकी कन्या 'स्वरूपा' से विवाह किया था और जिसके उल्लेखोंको विस्तार भयसै यहाँ छोड़ा जाता है।
( ४ ) इसी तरह पर हिन्दु धर्मके प्रन्यों में भी प्रतिलोम विवाहके उदाहरण पाये जाते हैं जिसका एक नमूना 'ययाति' राजाका उशना ब्राह्मण (शुक्राचार्य) की 'देवयानी' कन्या से विवाह है। यथा :
तेषां ययातिः पंचानां विजित्य वसुधामिमां ।
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६६
क्षत्र-प्रकारा
देवयानीमुशनसः सुता भार्यामवाप सः ॥
-~-महाभा० हरि० प्र०३० वाँ।। इसी विवाहसे 'यदु पत्रका होना भी माना गया है, जिससे यदुवंश चला।
इन सब उल्लेखोंसे स्पष्ट है कि प्राचीन काल में अनुलोम अपसे ही नहीं किन्तु प्रतिलोम रूपमे भी असवर्ण विवाह होने थे। दाय भागके ग्रंथोसे भो श्रमरण विवाहकी रितिका बहुन कुछ पता चलता है उनमें ऐसे विवाहोंसे उत्पन्न होने वाली संतनिके लिये विगसतके नियम दिये हैं, जिनके उल्लेखौको भी यहाँ विस्तार भयसे छोड़ा जाता है। प्रस्तु; वर्णकी ‘जाति संज्ञा होने से प्रसवर्ण विवाहोको अन्तर्जातीय विवाह भी कहते हैं। जब भारत की इन चार प्रधान जातियों में अन्तर्जातीय विवाह भी होते थे तब इन जातियों से बनी हुई अप्रवाल, खंडेलवाल, पल्लीवाल, सवाल, और परवार प्रादि उपजा. तियों में, समान वर्ण तथा धर्मके होते हुए भी, परस्पर विवाह न होना क्या अर्थ रखता है और उसके होने में कौन सा सिद्धान्त बाधक है यह कुछ समझ नहीं पाता। जान पड़ता है यह सब प्रापसकी खींचातानी और परस्परके ईर्षा द्वषादि का ही परिणाम है-वास्तविक हानि-लाभ अथवा किसी धार्मिक सिद्धान्तसे इसका कोई सम्बन्ध नहीं है। वोकी हष्टि को छोड़कर यदि उपजातियोंकी दृष्टिको ही लिया जाय तो उससे भी यह नहीं कहा जा सकता कि पहले उपजातियों में त्रिवाह नहीं होता था। आर्य जाति की अपेक्षा ग्लेच्छ जाति भिन्न हैं और म्लेच्छों में भी भील, शक, यवन, शवरादिक कितनी ही जातियाँ है । जब श्रार्योका म्लेच्छों अथवा भीलादिकोसे विवाह होता था तो यह भी अन्तर्जातीय विवाह था और बहुत
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
असवर्ण और अन्तर्जातीय विवाह ।
१६७
बड़ा अन्तर्जातीय विवाह था। उसके मुकाबले में तो यह आर्यों मार्योकी जातियों अगवा उपातियोंके अन्तर्जातीय विवाह कुछ भी गणना में गिने जानके योग्य नहीं है। इसके सिवाय, पहले भूमिगोचरियों के साथ विद्याधगेंके विवाह सम्बंधका श्राम दस्तर था, और उनकी कितनी ही जातियोंका वर्णन शास्त्रों में पाया जाता है। घसदेवजी ने भी अनेक विद्याधर कन्याप्रोसे विवाह किया था, जिनमें एक 'मदनवेगा' भी थी भीर षा श्रीजिनसेनाचार्य के कथनानुसार गौरिक जातिके विद्याधर की कन्या थी। वसदेवजी म्पयं गौरिक जातिके नहीं थे और इसलिये गौरिक जातिकी विद्याधर-कन्यासे विवाह करके उन्होंने, उपजातियोंकी दृष्टिमें भी, म्पष्ट रूपसे अन्तर्जातीय विवाह किया था, इसमें संदेह नहीं है. श्रावके तेजपाल यस्तपाल वाले जैन मंदिरमें एक शिलालेख संवत् १२६७ का लिखा हुआ है, जिससे मालमहाता है कि प्राग्वाट (पोरवाड) जातिके तेजपाल जैनका विवाह 'मोढ' जातिको सहडा देवीसे हुआ था । इस लेख का एक अंश, जो जैनमित्र (ता. २३ अप्रेल सन १९२५) में प्रकाशित हुआ, इस प्रकार है :___ "ॐ संवत २६७ वर्षे वैशाख सुदी १४ गरी प्राग्वाट झातोन चंड प्रचंड प्रसादमहं श्री सोमान्वयेमहं श्री असगज सत महं श्रीतेजःपालन श्रीमत्पत्तन वास्तव्य मोढ, ज्ञातीय ४० जाल्हण सत ठ०पाससताया: ठकराज्ञी संतोषा कक्षिसंभतायाः महंश्री तेजःपाल द्वितीय भार्या महंश्री सहडादेवया:श्रेयार्थ..."
यह, आधनिक उपजातियों में, आजसे करीब ७०० वर्ष पहले के अन्तर्जातीय विवाहका एक नमूना है और तेजपाल नामके एक बड़े ही प्रतिष्टित तथा धर्मात्मा पुरुष द्वारा प्रस्तुत किया गया है। इसी तरह के और भी कितने ही नमने खोज करने पर मिल सकते हैं। कुछ उपजातियों में तो अब भी अन्तर्जातीय
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
विवाह-क्षेत्र- प्रकाश |
१६८
विवाह होता रहता है ।
ऐसी हालत में इन अग्रवाल, खंडेलवाल आदि जातियों में परस्पर विवाह न होनेके लिये सिद्धान्तकी दृष्टिले, क्या कोई . युक्तियुक्त कारण प्रतीत होता है, इसका पाठक स्वयं अनुभव कर सकते हैं । साथ ही, यह भी जान सकते हैं कि दो जातियों में परस्पर विवाहसम्बंध होने से उन जातियोका लोप होना अथवा जाति पाँतिका मेटाजाना कैसे बन सकता है क्या दो भिन्न गोत्रौ मैं परस्पर विवाहसम्बंध होनेसे वे मिटजाते हैं या उनका लोप होजाता है ? यदि ऐसा कुछ नहीं होता तो फिर दो जातियों में परस्पर विवाह के होने से उनके नाशकी श्राशंका कैसे कीजासक्ती है ? अतः इस प्रकार की चिन्ता व्यर्थ है । जहाँ तक हम समझते हैं एकही धर्म और प्रचारके मानने तथा पालनेवाली प्रायः इन सभी उपजातियों में परस्पर विवाहके होनेसे कोई हानि मालूम नहीं होती । प्रत्युत इसके विवाह क्षेत्र के विस्तीर्ण होनेसे योग्य सम्बन्धों के लिये मार्ग खुलता है पारस्परिक प्रेम बढ़ता है, योग्यता बढ़ाने की ओर प्रवृत्ति होती है और मृत्युशय्या पर पड़ी हुई कितनीही अल्पसंख्यक जातियों की प्राणरक्षा भो होतो है वास्तव में ये सब जातियाँ परिकल्पित और परिवर्तनशील हैंएक अवस्थामें न कभी रहीं और न रहेगी -- इनमें गो श्रश्वादि जातियों जैसा परस्पर कोई भेद नहीं है और इस लिये अपनी जातिका अहंकार करना अथवा उसे थे तथा दूसरी जातिको अपने से होन मानना मिथ्या है। पं० आशाधरजीने भी, अपने अनगार धर्मामृत ग्रंथ और उसकी स्वापश टीकार्मे, कुल जाति विषयक ऐसी अहंकृतिको मिथ्या ठहराया है और उसे आत्मपतनका हेतु तथा नीच गोत्रके बन्धका कारण बतलाया है । साथ ही, अपने इस मिथ्या ठहराने का यह हेतु देते हुए कि 'परमार्थ से जाति कुल की शुद्धिका कोई निश्चय नहीं बन सकता'
-
-
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
असवर्ण और अन्तर्जातीय विवाह ।
१६६
यह नहीं कहा जा सकता कि अमुक जाति अथवा कुलकी रक्त शुद्धि, बिना किसी मिलावटके, अक्षरणं चलीभाती है उसकी पुष्टि में नीचे लिखा वाक्य उद्धृत किया है :
अनादाविह संसारे दुर्वारे मकरध्वजे । .. कुले च कामिनीमले का जातिपरिकल्पना ॥
और इस वाश्यके द्वारा यह सूचित किया है कि जब संसार में अनादि कालसे कामदेव दुर्निवार चला पाता है और कलका मल भी कामिनी है, तब किसी 'जाति कल्पना' को क्या महत्व दिया जा सकता है और उसके आधार पर किसी को क्या मद करना चाहिये' ? अतः जाति-विषयक मद त्याज्य है। उसके कारण कमसे कम सधर्मियों अथवा समान प्राचार को पालने वाली इन उपजातियों में पारस्परिक (अन्तर्जातीय) सविवाहोंके लिये कोई रुकावट न होनी चाहिये । प्रस्तु।
उपसंहार और निवेदन । इस सब कथन और विवेचनसे. मैं समझता, पाठकों पर समालोचनाकी सारी असलियत खल जायगी, उसकी निःसारता हस्तामलकघत होजायगी और उन्हें सहज ही में वह मालूम पड़ जायगा कि प्राचीन काल में विवाहका क्षेत्र कितना भधिक विस्तीर्ण था और वह अाजकल कितना संकीर्ण बना दिया गया है। साथही, इस प्रकाश द्वारा विवाह क्षेत्रका धना. धिकार दूर होने से वे अपने विवाह-क्षत्रके गढ़दी, संदकों, बाहयों और कण्टको आदिका अच्छा अनभव भी प्राप्त कर सकेंगे उन्हें यह मालूम हो सकेगा कि वे पढ़ आदि कहाँ
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
विवाह-क्षेत्र प्रकाश। सक वास्तविक, कृत्रिम अथवा काल्पनिक हैं और उनमेंसे किस किसमें, किस हद तक, क्या संधार बन सकता है-कीर अपने इस अनुभषके बक्से वे मिथ्या विभीषिकायोको दु. ५.ने. विवाह-क्षेत्रकी त्रुटियोको सुधारने, रीति-रिवाजोल फेरफार करने और इस तरह पर विवाह-क्षेत्रको प्रशस्त तथा विस्तीर्ण बनाकर उसके द्वारा अपनी और अपने धर्म तथा समाजकी रक्षाका समचित प्रबन्ध करनेके लिये बहुत कन् समर्थ हो सकेंगे। इसी सदुद्देश्यको लेकर यह इतना परिश्रम किया गया है। ___ यहाँ पर पाठकोको यह जानकर बड़ा कौतुक होगा कि इसी मिथ्या, निःसार, बेतुकी और बेहदी समालोचनाके भरोसे पर पं० महबूबलिहजो मालिक फर्म 'हुकमचंद जगाधरमल' जैन सर्राफ, चांदनी चौक देहली, ने 'शिक्षाप्रद शास्त्रीय उदा. हरण' के लेखक, प्रकाशक और प्रकाशकके सहायक ला० एमालालजीको शास्त्रार्थका चैलेंज दिया था, जो समालोचना-पुस्तक के अन्तिम टाइटिल पेज पर अंकित है और जिसमें इन लोगोंसे कहा गया है कि"यदि उन्हें अपनी लिखो प प्रकाशित की हुई उपयुक्त पस्तक की सत्यता पर कुछ भी विश्वास है तो ये अपने सपक्ष के लोगोंको साथ लेकर खुले मैदान में शास्त्रार्थ करलें जिससे उनके हृदयमें लगहुए मिश्या
और पतित भाव सदाके लिये छूट जाँय।" मुझे इस चैलेंजको देखकर बड़ी सी आई । सापही, चैलेंजदाताके शास्त्रज्ञान और उनके इस छछोरपन पर गोद मी हुमा । मालम होता है पंडितजीने इस विषय पर कोई गहरा विचार नहीं किया, बेसभोले भाले समान भावमो. सपने
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपसंहार और निवेदन ।
इस भोलेपन की वजह से ही वे समालोचक तथा समालोचक जीके सहायक एक दूसरे विद्वानके कुछ कहने सुनने में श्रागये है और इस तरह पर व्यर्थ ही बीच में एक हथियार बना लिये गये हैं । अन्यथा, उनमें शास्त्रार्थ की कोई स्पिरिट - चेतना, बुति अथवा उत्साहपरिणति नहीं पाई गई। समालोचना के प्रकाशित होने के बाद से में दो बार देहली गया हूं और वहाँ लमातार २२ तथा २० दिनके करीब ठहरा हूँ: पं० महबूब सिंहजी कितनी ही बार बड़े प्रेम के साथ मुझसे मिले परन्तु उन्होंने कभी शास्त्रार्थ को कोई इच्छा प्रकट नहीं की और न 'शिक्षाप्रद शास्त्रीय उदाहरण' या उसकी समालोचना के विषय में कोई चर्चा हो की । इससे पाठक सहज ही में उनकी मनःपरिणतिका अच्छा अनु मान कर सकते हैं और यह जान सकते हैं कि चैलेंज में उनका नाम देकर उनके भोलेपनका कितना दुरुपयोग किया गया है । प्रस्तु; समालोचनाके प्रकाशित होनेके बाद जयलक मेग देहली आना नहीं हुआ तब तक मुझे कुछ सज्जनोंकी श्रोरसे यही समाचार मिलते रहे कि शास्त्रार्थ के लिये बहुत कोलाहल मचाया जा रहा है और यहभी कहा जाता है कि यदि शास्त्रार्थ नहीं करोगे तो कोर्ट में नालिश करदी जायगी। इसके उत्तर में मैंने उन्हें यही सूचित कर दिया कि मैं आजकल के शास्त्रार्थी को पसंद नहीं करता, उनमें वस्तुतत्वका निर्णय करना कोई इष्ट नहीं होता किन्तु जय पराजयके ओर ही दृष्टि रहती है और हर एक पक्षका व्यक्ति किसी न किसी तरह हुल्लड़ मचाकर अपने पक्षका प्रयोग करना चाहता है; नतीजा जिसका यह होता है कि बहुत से लोगों में परस्पर वैमनस्य बढ़ जाता है और लाभ कुछ भी होने नहीं पाता । अतः मैं समालोचनाका विस्तृत उत्तर लिवंगा जिससे सबको लाभ पहुँचेगा । उन्हें यदि कोर्ट में जाने का शौक है तो में खुशी से जायें, मैं उनके इस कृत्यका
ܕܘܕ
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७२
· विवाह क्षेत्र- प्रकाश 1
खेदके साथ अभिनंदन करूँगा और तब समालोचनाका कोई उत्तर म लिखकर कोर्ट में ही अपना सब उत्तर देलूंगा ।' परन्तु मेरे देहली पहुँचने पर कहीं भी शास्त्रर्थका कोई शब्द सुनाई नहीं पड़ा । प्रत्युत इसके प्रकाशकनी ने समालोचकजीको प्राग्रह पूर्वक इस बातकी प्रेरणा की कि वे अपनी समालोचना को प्रकाशित करने में सहायक ला० सोहनलाल तिलोकचंदजी की कोठी में ही आजायें और वहाँ पर ला० मत्थनलालजी आदि कुछ विचारवानोंके सामने लेखकसे प्रकृत पुस्तक के विषयमें अपनी शंकाओं तथा श्रापक्षियोंका समाधान कर लेवें । परन्तु उन्होंने उसे स्वीकार नहीं किया, अपना अपमान हो जानेकी संभावना प्रकट की और फिर वे देहली से ही बाहर चले गये ! इससे पाठक समझ सकते हैं कि शास्त्रार्थकं चैलेजका कोई सदुद्देश्य नहीं था, वह व्यर्थका हुल्लड़ मचाकर सत्य पर पर्दा डालने का पेशमा था, दौंगमात्र था अथवा उसे छछोरापन कहना चाहिये। किसी भी समझदारने उसे पसंद नहीं किया । श्रस्तु ।
अब समालोचनाका यह विस्तृत उत्तर पाठकोंके सामने उपस्थित है । आशा है कि सभी सहदय विद्वानोंको इससे संतोष होगा: इसे पढ़कर समालोचकजी और उनके सहायक भी यदि उनकी चित्तवृत्ति शुद्ध तथा पक्षपात रहित होगी तो अपनी भूलको मालूम करेंगे उन्हें अपनी कृति पर पश्चासाप होगा - और दूसरे वे लोग भी अपने भ्रमका संशोधन कर सकेंगे जिन्हें समालोचना पर से लेखक और लेखककी पुस्तक के विषय में कुछ अन्यथा धारणा हो गई है। बाकी, जिन लांगति कस्नुषाशय के वशवर्ती अथवा कषायभाव से श्रभिभूत होकर, लेखक के प्रति एकांगी द्वेष रखनेके कारण, समालोचना को मिथ्या जानते हुए भी उसका आश्रय लेकर और उसे सत्य प्रतिपादन करते हुए, लेखक पर झूठे कटाक्ष किये हैं उसके
--
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपसंहार और निवेदन ।
व्यक्तित्वके प्रतिभी अपने पत्रों में अपशब्दों का प्रयोग किया है और इस तरह पर अपना ज़हर उगला है, उनसे व्याय प्रथया सद्विचार की कोई पाशा नहीं की जा सकती। ऐसे विद्वानोंके विषयमें मेरी यही भावना है कि 'उन्ह किसी तरह पर. अन्तः शुद्धि के द्वारा सद्बुद्धि की प्राप्ति हो और ये मेरे सदुद्देश्य तथा सदाशयको समझने में समर्थ होमके।'
अन्तमें, मैं इतना और निवेदन कर देना उचित समझता इंकि मेरा विचार पहले से 'विवाह-क्षेत्र-प्रकाश' नामकी एक स्वतंत्र पुस्तक लिखने को था, समागचनाके उसरमै पड़कर मुझे उसको वर्तमान रूप देना पड़ा है और इससे उसका प्राकार भी दुगने के करीब बढ़ गया है। यदि समात ने इसे अपनाया और इसके प्रचारकी जरूरतको महसल किया तो दूसरे संस्करण के अवसर पर, इसकी प्रणालीको बदल कर तथा इसका उत्तरात्मक भाग अलग करके, इसे एक स्वतंत्र पुस्तक का रूप दिया जायगा और कितनी ही उपयोगी बात और भी इसमें बढ़ादी जायेंगी । इत्यलम् ।
जुगलकिशार मुख्तार ।
SA:
म
ALWARA
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७४
विधाह क्षेत्र-प्रकाश।
परिशिष्ट।
मलधारि देवप्रभसरिम, अपने पाण्डवपुराण में, देवकीके पिताको माम देवक' दिवा है और उसे कंसका चचा (वितव्य पिताका भाई) सूचित किया है । साथ ही, लिखा है कि कंपने अपने बच्चा देवककी सुन्दर रूपवती पत्री देवकीका विवाह उसके अनुरूप वर वसुदेव के साथ कर दिया था।' यथाः
पुत्री निजपितृव्यस्य देवकस्य स देवकीम् । सुरूपामनुरूपेण शौरिणा पर्यणाययत् ।।५-१६।। इससे भी स्पष्ट है कि देवको कप्लके मामाकी लड़की नहीं थी और न वह कुरुवंशमें ही उत्पन्न दुई थी; बहिक यदुवंशी राजा उग्रसेनके सगे भाई देवक ( देवसेन) की पुत्री थी और इस लिये बह कुटुम्बके नाते यमदेवको भतीजी हुई।
इस पस्तकके व पृष्ठ पर यह बतलाया गया है कि हिन्दुओं के यहां भी देवकी के पिता देवकको कंसके पिता उप्र. सेनका सगा भाई माना गया है परन्तु एक बात प्रकट करने से रह गई थी और वह यह है कि इन लोगों को यदुवंशी भी माना है-अयान, जिस तरह वसुदेवजी यदुवंशी थे उसी बरह देवकी के पिता देयक भी यदुवंशी थे: दोनोंही का जन्म यदुक पत्र कोट या क्राप्टाकी संततिम माना गया है, जिसके बंशका विस्तन वर्णन महाभारतीय इग्विंशपरगण को देखने से मास्लम हो सकता है और इससे स्पष्ट है कि प्राचीन काल में हिम्प्रोके यहाँ भी सगोत्र-विवाह होता था। श्रीकृष्णकी सत्य
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट।
भामादिक कुछ स्त्रियाँ भी, उनके मतसे, कृष्णको सरह कोषुके अशा ही उत्पन्न हुई गी; जैसाकि उक्त हरिवंशपुराण के टीका• र नाल काटना, ३६ अध्यायकी टीकाका प्रारंभ करते हुए 1:- उरके 'माटारंथाभवापुत्री" इत्यादि पद्य पर टिप्पणी बत हुए, लिखते है :
“पावशे वर्णने वंशः क्रोष्टोर्यदुसुतस्य च । पत्र जाता महालक्ष्मी रुक्मिणी शक्तिरीश्वरी ॥१॥ क्रोष्टोरेवेति । यथा कृष्णः क्रोष्टुवंशेजात एवं सत्यभामादयोऽपि नत्रैव जाना इति वक्तुपेवकार ।"
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
_
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
_