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________________ १४. विवाह क्षेत्र प्रकाश। और वह संपर्ण विवाह विधानों में श्रेष्ट तथा सनातनमार्ग माना गया है तब यह कहना शायद कुछ अनुचित न होगा कि बहुत प्राचीनकालमें विवाह के लिये कुल,गांत्र अथवा जतिका ऐसाकोई खास नियम नहीं था जो हर हालतमें सष पर काबिल पाबंदी हो-अथवा सबको समान रूपसे तदनुसार चलनेके लिये बाध्य कर सके और उसका उल्लंघन करने पर कोई व्यक्ति जाति बिरादरीसे पथक अथवा धर्मसे च्युत किया जा सकता छे। ऐसी हालतमें, आजकल एक विवाहके लिये कुल-गोत्र अथवा जाति-वर्णको जो महत्व दिया जाता है वह कहां तक उचित है और उसमें कोई योग्य फेरफार बन सकता है याकि नहीं, इसका आप स्वयं अनुभव कर सकते हैं। अस्तु । यहाँ तक इस सब कथनसे उन सभी आपत्तियों का भले प्रकार निरसनहो जाता है जो वसुदेवजीके उदाहरण पर अथवा समची पुस्तक पर की गई है। अब में, संक्षेपमें, कुछ विशेष बाते अपने पाठकोंके सामने और प्रस्तुत करना चाहता हूँ जिससे सगात्र, असवर्ण और अन्तर्जातीय विवाहोंके सिद्धान्त और भी ज्यादा रोशनी में आजायें और उनपर अच्छा प्रकाश पढ़ सके । क्योंकि, समालोचकजीने कहीं कहीं पर एसे विवाहोंके लिये अथवा गोत्र, जाति और वर्णकी रक्षा या उनकी वर्तमान स्थितिको ज्योंकी त्यों बनाये रखनेके लिये बड़ी चिन्ता प्रकट की है। गोत्र-स्थिति और सगोत्र-विवाह । जैनसिद्धान्त में-जैनियोंकी कर्मफिलोसोफी में- 'गोत्र' नामका भी एक कर्म है और उसके ऊँच, नाच ऐसे कल दो भेद किये गये हैं । 'गोम्मटसार' ग्रन्थमें बतलाया है कि 'संतान
SR No.010667
Book TitleVivah Kshetra Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJohrimal Jain Saraf
Publication Year1925
Total Pages179
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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