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________________ कुटुम्बमें विवाह | गोत्र तथा गोत्रकी शाखाओंका टालना तो दूर रहा एक वंश और एक कुटुम्बका भी कुछ खयाल नहीं रक्खा गया ।" ५५ इस कथन से स्पष्ट है कि इसमें देवकी और वसुदेवकी रिश्तेदारी का -- उनके पूर्व सम्बंध का जो कुछ उल्लेख किया गया है यह सब श्रीजिनसेनाचार्यके हरिवंशपुराण के आधार पर कियागया है। और इसलिये एक समालोचककी हैसियत से समालोचकजीको इसपर यदि कोई आपत्ति करनी थी तो वह यातो जिनसेनाचार्यको लक्ष्य करके करनी चाहिये थी--उनके कथनको मिथ्या ठहराना अथवा यह बतलाना चाहिये था कि वह श्रमुक अमुक जैनाचार्यों तथा विद्वानोंके कथनों के विरुद्ध - और या वह इस रूपमें ही होनी चाहिये थी कि लेखकका उक्त कथन जिनसेनाचार्य के हरिवंशपुराणके विरुद्ध है, और ऐसी हालत में जिनसेनाचार्य के उनविरोधीवाक्यों को दिखलाना चाहिये था । परन्तु समालोचकजीने यह सब कुछ भी न करके उक्त कथनको "सफेद झूठ" लिखा है और उसे वैसा सिद्ध करने के लिये जिनसेनाचार्य का एक भी वाक्य उनके हरिवंशपुराण से उद्धृत नहीं किया यह बड़ी ही विचित्र बात है ! हाँ, अन्य विद्वानोंके बनाये हुए पाँडवपुराण, नेमिपुराण, हरिवंशपुराण, उत्तरपुराण, और श्राराधनाकथाकोश नामक कुछ दूसरे ग्रन्थों के वाक्य ज़रूर उद्धृत किये हैं और उन्हीं के आधार पर लेखक के कथनको मिथ्या सिद्ध करना चाहा है, यह समालोचनाकी दूसरी विचित्रता है ! और इन दोनों विचित्रताओं में समालोचकजी की इस श्रापतिका सारा रहस्य श्राजाता है । सहृदय पाठक इसपर से सहज हीमें इस बातका अनुभव कर सकते हैं कि समालोचकजी, इस आपत्तिको करते हुए, समालोचकके दायरे से कितने बाहर निकल गये और उसके कर्तव्य से कितने -
SR No.010667
Book TitleVivah Kshetra Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJohrimal Jain Saraf
Publication Year1925
Total Pages179
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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