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उद्देश्य को अपलाप आदि
इत्यादि रूपसे कछ वाक्यों को भी उद्धत किया है परन्तु वे वाक्य आगे पीछे के सम्बन्ध को छोड़ कर ऐसे खण्ड रूपमें उदधत किये गये है जिनसे उनका असली मतलब प्रायः गुम हो जाता है और वे एक असम्बद्ध प्रलापला जान पड़ते हैं। यदि समालोचक जी ने प्रत्येक लेख के अन्त में दिये हुये उदाहरण के विवेचन अथवा उसके शिक्षा-भागको ज्यों का त्यो उधत किया होता तो वे अपने पाठको को पुस्तक के श्राशय तथा उद्देश्य का अच्छा ज्ञान कराते हुए, उन्हें लेखकक तज्जन्य विचारों का भी कितना ही परिचय करा सकते थे, परन्त जान पड़ता है उन्हें वैसा करना इष्ट नहीं था-वैसा करने पर समालोचना का सारा रंग ही फीका पड़ जाता अथवा उन अधिकांश कल्पित बातों की सारी कलई ही खुल जाती निन्हे प्रकृत पुस्तक के आधार पर लेखक के विचारों या उद्देश्यों के रूपमें नामांकित किया गया है । इसीसे उक्त विवेचन अथवा शिक्षा-भाग पर, जो आधी पुस्तक के बराबर होते हुए भी सारी पुस्तक की जान थी, कोई समालोचना नहीं की गई, सिर्फ उन असम्बद्ध खण्डवाक्यों को देकर इतना ही लिख दिया है कि
"बाब साहब के उपयुक्त वाक्यों से आप स्वयं विचार कर सकते हैं कि उनका दृदय कैसा है और वह समाज में कैसी प्रवत्ति चलाना ( गोत्र जाति पांति नीच ऊँच भंगी चमार चांडालादि भेद मेटकर हर एक के साथ विवाह की प्रवत्ति करना चाहते है" ।
इन पंक्तियों में समालोचक ने, बरैकट के भीतर, जिस प्रवृत्ति का उल्लेख किया है उसे ही लेखककी पुस्तक का ध्येय अथवा लद्देश्य प्रकट करते हुए वे आगे लिखते हैं :--
"उपर्युक्त प्रवृत्तिको चलाने के लिये ही बाबूसाहब ने घसदेवजी के विवाहकी चार घटनाओं का (जो कि