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________________ कुटुम्बमें विवाह | ६१ जाय तो कंस की ऐसी दत्तकतुल्य बहन वसुदेवकी भतीजी ही हुई - उसमें तथा कंस की सगी बहन में सम्बंध की दृष्टि से कोई अन्तर नहीं होता और इसलिये भो यह नहीं कहा जासकता कि वसुदेव ने अपनी भतीजी से विवाह नहीं किया । ऐसा कहना मानो यह प्रतिपादन करना है कि ' एक भाई के दत्तकपुत्र से दूसरा भाई अपनी लड़की व्याह सकता है अथवा उस दत्तकपुत्र की लड़की से अपना या अपने पुत्र का विवाह कर सकता है'। क्योंकि वह दस्तक ( गोद लिया हुआ ) पुत्र उस भाई का असली पुत्र नहीं है किन्तु माना हुआ पुत्र है । परन्तु जहां तक हम समझते हैं समालोचकजी को यह भी इष्ट नहीं हो सकता, फिर नहीं मालूम उन्होंने क्यों-- इतने स्पष्ट प्रमाणों की मौजदगी में भी यह सब व्यर्थका आडम्बर रचा है ? नादानी और बेसमझी के सिवाय इसका दूसरा और क्या कारण हो सकता है ? रही कुरुवंश में उत्पन्न होने की बात, वहभी ठीक नहीं है । 'कुरुवंशोद्भव' का शुद्ध रूप है 'कुरुवंश्योद्भव' जिसका अर्थ होता है 'कुरुवंश्या स्त्री में उत्पन्न' ( कुरुवंश्यायां उद्भवा या तां कुरुवंश्याद्भवां ) - अर्थात्, देवकीकी माता धनदेवी कुरुवंश्या थी - कुरुवंश में उत्पन्न हुई थी -नकि देवकी कुरुवंश में उत्पन्न हुई थी । समालोचकजी ने भाषाके जो निम्न छंद उद्धृत किये उनसे भी आपके इस सब कगनका कोई समर्थन नहीं होता:अब नगरी मृतिकावती, देवसेन महराज । धनदेवी ताके तिया, कुरुवंशन सिरताज ॥ ताके पुत्री देवकी, उपजी सुन्दर काय । सो वसुदेव कुमार संग, दीनी कंस सु व्याह ॥ यहाँ 'कुरुवंशन सिरताज,' यह स्पष्ट रूपसे 'धनदेवी' का
SR No.010667
Book TitleVivah Kshetra Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJohrimal Jain Saraf
Publication Year1925
Total Pages179
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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