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________________ गोत्र-स्थिति और सगोत्र-विवाह । १५३ ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता जिससे यह मालूम होता हो कि पहले एक नगर-ग्रामके निवासी श्रापसमें विवाह सम्बंध नहीं किया करते थे । और यदि कहीं ऐसा होता भी हो तो आजकल जब बह प्रथा नहीं रही और एक हो नगर ग्रामके निवासी खडेलवाल परस्परमें विवाह सम्बन्ध कर लेते हैं तब उनके लिये एक हो नगर-प्रामक निवासियों से बने हुए अपने एक मात्र में विवाह सम्बन्ध करलेने पर, सिद्धान्तका दृष्टिसं कौन बाधा श्रातो हे अथवा उसका न करना कहाँ तक यूक्तियक्त हो सकता है, इसकाविचार पाठकजनस्वयं करसकत है। (३) - जैनसंप्रदाय शिक्षा * ' में यति श्रीपालचंद्रजीने ओसवाल वशको उत्पत्तिका जो इतिहास दिया उससे मालूम होता है कि रत्नप्रभसरि न, 'महाजन वश' की स्थापना करत हुए, 'तातहड' आदि अठारह गोत्र श्रीर ‘सुघड' प्रादि बहुतसे नये गांत्र स्थापित किये थे। श्रार उनके पीछे वि० सं० सालहसौ तक बहुतसे जैनाचार्यान राजपत, महेश्वरी, वैश्य, और ब्राह्मण जाति वालों को प्रतिबोध देकर- उन्हें जैनी बना कर-महाजन वंशका विस्तार किया और उन लोगों में अनेक नये गोत्रों की स्थापना की। इन सब गोत्रोंका तिजी ने जो इतिहास दिया है और जिसे प्रामाणिक तथा अत्यंत खोजके बाद लिखा हुश्रा इतिहास प्रकट किया है उसमें से कुछ गोगों के इतिहासका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है : १ कुकुडचोपडा आदि गोत्र ---जिनवल्लभसरि (वि० सं० १९५२) ने मण्डारके राजा नानदे' पडिहारके पत्र धवलचंद्र के गलितकको कुकडी गायके घोको मंत्रित करके तीन दिन चुपड़वाने द्वारा नोरोग किया। इससे राजाने कुटुम्ब-सहित *यह पुस्तक वि० सं० १६६७में बम्बईसे प्रकाशित हुई हैं।
SR No.010667
Book TitleVivah Kshetra Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJohrimal Jain Saraf
Publication Year1925
Total Pages179
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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