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उद्देश्य का अपलाप आदि ।
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"श्रागमकी दृष्टि" बतलाया गया है और जिसे सुरक्षित रखतं हुए परिवर्तन करने की प्रेरणा की गई है। इसके सिवाय, वसुदेवजी के समय के विवाह विधानों को इस समयके लिये कहीं परभी कोई हिमायत नहीं की गई, बल्कि “ऐसा नहीं है" इत्यादि शब्दों के द्वारा उनके विषयमें यह स्पष्ट घोषित किया गया है कि वे आजकल स्थिर नही है और न उस उत्तम तथा पज्य दृष्टिसे देख जाते है जिससे कि वे उस समय देखे जात थे और इसलिये कहना होगा कि वे सर्वश भगवान का प्राज्ञाएँ अथवा श्रटल सिद्धान्त नहीं थे और न हो सकते हैं । जो लोग वसुदेवजी के समयक रोति-रिवाजोको सर्वज्ञप्रणीत और वर्तमान रीति-रिवाजों को असर्वज्ञभाषित कहतेहों और इस तरह पर अपने उन पूर्वजोको कलंकित तथा दोषी ठहराते हो जिनके कारण वसुदेवजीके समय के वे पुराने (सर्वज्ञभाषित) रिति-रिवाज उठकर उनके स्थानमें वर्तमान रीति-रिवाज कायम हुए उन्हें लक्ष्य करके साफ लिखा गया है कि उनका "ऐसा कहना और ठहराना दुःसाहस मात्र होगा, वह कभी इष्ट नहीं हो सकता और न युक्तियुक्तही प्रतीत होता है।" इससे लेख में वसदेवजी के समयके रीति रिवाजों की कोई खास हिमायत नहीं कीगई, यह और भी स्पष्ट होजाता है । कंवल प्राचीन
और अर्वाचीन रीति-रिवाजों में बहुत बड़े अन्तर को दिखलाने, उसे दिखलाकर, रीति-रिवाजोंकी असलियत, उनकी परिवर्तनशीलता और लौकिक धर्मों के रहस्य पर एक अच्छा विवेचन उपस्थित करने और उसके द्वारा वर्तमान रीति-रिवाजों में यथोचित परिवर्तनको समुचित ठहराने के लिये ही वसदेवजी के उदाहरण में उनके जीवनकी इन चार घटनाओं को चुना गया था। इससे अधिक लेखमें उनका और कल भी उपयोग नहीं था। और इसीसे लेखके अन्त में लिखा गया था कि