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________________ विवाह-क्षेत्र प्रकाश। खण्डोन दोनों प्रकारके म्लेच्छ शामिल हैं, साफ़ लिखते हैं: कमभूमिभवा म्लेच्छाः प्रसिद्धा यवनादयः । स्युः परे च तदाचार पालनाद्बहुधा जनाः ॥ -श्लोक वार्तिक । अर्थात-कर्मभूमियों में उत्पन्न हुए जो म्लेच्छ हैं उनमें यवनादिक तो प्रसिद्धहीं है बाको यवनादिकसं भिन्न जो दूसरे बहनसे म्लेच्छ है वे सब यवनादिको ( यवन, शवर, पलिदादिको ) के प्राचारका ही पालन करते है और इसीसे म्लेच्छ कहलात है। इससे साफ जाहिर है कि म्लेच्छखण्डोंक म्लेच्छोंका प्राचार यहाँके शक, यवन शवादि म्लेच्छाक आचारसे भिन्न नहीं है और इसलिये यह कहना कि 'नन्छ खंडाके मच्छोम हिंसा तथा मांसभक्षणदि का सर्वथा प्रवत्ति नहीं' श्रागमें बाग लगाना है । श्राविद्यातदाचाय नन्छाक नोच गात्रादिका उदयभी बतलाते है-लिखते हैं उच्च गात्रादिक उदयसे आर्य और मीच. गोत्रादिक उदयसे म्लेच्छ होते हैं। यथा: "उच्चैर्गोत्रोदयादेराया नीचर्गोत्रादेश्चम्लेच्छाः।" सब. क्या समालोचकजी इन विधानीक कारण, अपने उक्त पाक्यों के अनुसार, श्री विद्यानंदाचार्य की समझ को “बिलकुल मिथ्या" और उनके इस नीच श्रादि कशनको “सर्वथा मिथ्या और शास्त्र विरुद्ध" कहनेका साहस करते हे ? यदि नहीं तो उन्हें अपने उक्त निरगल और निःसार वाक्योंके लिये पश्चाताप होना चाहिये। औरखेद है कि समालोचकजीन बिना सोचे समझे जहाँ जो जी में आया लिख मारा है ! लेखकके शास्त्रीय वर्णनोको इसी तरह सर्वथा मिथ्या और शास्त्र विरुद्ध' बतलाया गया है, और यह उनके सर्वधा मिथ्या और शास्त्रविरुद्ध
SR No.010667
Book TitleVivah Kshetra Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJohrimal Jain Saraf
Publication Year1925
Total Pages179
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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