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________________ १४४ विवाह-क्षेत्र प्रकाश। कल यहाँ किसीको मालूम नहीं था। वसदेव जीके कलीन या अकलीन होनेका राजाओं में विवाद भी उपस्थित हुप्राथा और उसका निर्णय उस वक्तसे पहले नहीं होसका जब तक कि युद्ध में वसुदेवने समुद्रविजयको अपना परिचय नहीं दिया । इससे स्पष्ट है कि वरमाला डालनेके वक्त वसुदेवसे कोई परिचित नहीं था, न वहाँ उनके कुल जातिका किसीको कुछ हाल मालूम था: और वे एक बाजंत्री (पाणविक) के वेष में उपस्थित थे, यह पात ऊपर बतलाई ही जा चुकी है। उसो वाजंत्री वेष में उनके गलेमें परमाला डाली गई और वरमालाको डाल कर रोहिणी, सबोंको अाश्चर्य में डालते हुए, उन्हींके पास बैठ गई। ऐसी हालत में लेखकका उक्त लिखमा किधरसे सर्वथा शास्त्रविरुद्ध है इसे पाठक स्वयं समझ सकते हैं। हाँ, समालोचक जीने इतना ज़रूर प्रकट किया है कि वसुदेवने वीणा बजाकर रोहिणीको यह संकेत कियाथा कि "तरे मनको हरण करने वाला राजहंस यहाँ बैठा हुआ है” इस संकेत मात्रका अर्थ ज्यादासे ज्यादा इतना ही होसकता है कि रोहिणोके दिलमें यह खयाल पैदा होगया हो कि वह कोई राजा अथवा राजपत्र है। परन्तु राजा तो म्लेच्छ भी होते है, अकुलोन भी होते है, सगोत्र भी होते है, विजातीय भी होते हैं और असवर्ण भी होते हैं। जब इन सब बातोका कोई निर्णय नहीं किया गया और वरमाला एक अपरिचित तथा अज्ञातकल जाति व्यक्तिकेही गले में-चाहे वह राजलक्षणोंसे मंडित या अपने मुखमंडल परसे अनुमानित होने वाला राजा ही क्यों न हो-डाल दी गई तबतो यही कहना चाहिये कि स्वयंवर में एक अकलीन, सगोत्र, विजातीय अथवा असवर्णको भी घरा जा सकता है। फिर समालोचक जी की जिनदास ब्रह्मचारीके उक्त श्लोक पर आपत्ति कैसी ? उसमें तो यही बतलाया
SR No.010667
Book TitleVivah Kshetra Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJohrimal Jain Saraf
Publication Year1925
Total Pages179
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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