SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्वयवर-विवाह। १३६ जब राजा अकम्पन-द्वारा इस (स्वयंवर) विवाह का अनष्ठान हुअा था तब भरत चक्रवर्तीने भी इसका बहुत कुछ अभिनन्दन किया था। साथ ही, उन्होंने ऐसे सनातन मार्गों के पुनरुद्धार. कर्ताओं को सत्पुरुषों द्वारा पूज्य भी ठहराया था x" उदाहरण के इस अंशपर सिर्फ तीन खास आपत्तियाँ की गई है जिनका सारांश इस प्रकार है: (१) एक वाजंत्रीके रूपमें उपस्थित होने पर वसुदेवको "रंक तथा अकुलीन" क्यों लिखा गया। "क्या बाजे बजाने वाले सब अकलीन ही होते हैं ? बड़े बड़े गजे और महाराजे तक भी बाजे बजाया करते हैं।" ये रंक तथा अकुलीन के शब्द अपनी तरफसे जोडे गये हैं। वसदेवजी अपने वेषको छिपाये हुए जरूर थे “किन्तु इस वेषके छिपानेसे उन पर कंगाल या अकुलीनतना लाग नहीं होता।" (२) "यह बाबजीका लिखना कि “रोहिणीने बड़े ही निःसंकोच भावसे वाजंत्री रूपके धारक अज्ञात कलजाति रङ्क व्यक्तिके गले में माला डालदी" सर्वथा शास्त्र विरुद्ध है"। (३) “जो श्लोकका प्रमाण दिया वह वसुदेवजीने क्रोध कहा है किसी प्राचार्य ने श्राझारूप नहीं कहा जो प्रमाण हो,” । इनमसे पहली श्रापत्तिकी बाबत तो सिर्फ इतना ही निवेदन है कि लेखक ने कहीं भी वसुदेवको रंक तथा अकुलीन नहीं लिखा और न यही प्रतिपादन किया कि उनपर कंगाल. या ४ यथाः-तथा स्वयंवरस्यमे नाभवन्यधकम्पनाः। कः प्रवर्त्तयितान्योऽस्य मार्गस्यैष सनातनः ॥४५॥ मागाँश्चिरंतनान्येऽत्र भोगभूमितिरोहितान् । कुर्वन्ति नतनान्सन्तः सद्भिः पूज्यास्त एव हि ॥५५॥ ___-आ० पु० पर्व ४५ ।
SR No.010667
Book TitleVivah Kshetra Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJohrimal Jain Saraf
Publication Year1925
Total Pages179
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy