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________________ विवाह क्षेत्र-प्रकाश। इस बातकी और लीन होजाय कि जो कुछ हमारा हितकारी है वह धर्म है। हम वास्तविक धर्म का स्वरूप समझ निकले हिताहितका विवेक होजाय हमारे धार्मिक कार्य किसी प्रेरणासे न हाकर स्वभावतः हा निकले विषयलालसाको हम अपने सखका केन्द्र न समझे उस समय देवकी और वसदेव कैसे विवाहोंसे हमारी कोई हानि नहीं हो सकती।" इस सब कथन पर से कोई भी पाठक क्या यह नतीजा निकाल सकता है कि पं० गजाधरलाल जी ने देवकी और वसुदेव के पर्व सम्बन्धक विषयमें लेखकसे कोई भिन्न बात कही है अथवा कुटुम्ब के नाते देवकी को वसुदेव की भतीजी माननेस इन्कार किया है ? कभी नहीं, बल्कि उन्होंने तो अपने लेखके अन्त में इनके विवाह को बाबत लिखा है कि वह "अयुक्त न था उस समय यह रोति रिवाज जारी थी।" और उस की पुष्टि में अग्रवालोका दृष्टांत दिया है । फिर नहीं मालम समालोचकजी ने किस बिरत पर उनका वह 'रानी.. मन्दयशा याला वाक्य बड़े दर्प के साथ प्रमाण में प शकिया था? क्या एक वाक्यक छलस ही आप अपने पाठको को ठगना चाहत थे? भाले भाई भले ही आप के इस जाल में फंस जॉय परन्तु विशषज्ञों के सामने प्रापका ऐसा काई जाल नहीं चल सकता। समझदागे ने जिस समय यह देखा था कि अापने और जगह तो जिनसेनाचार्यकृत हरिवंशपुराण के वाक्याको उद्धृत किया है परन्तु इस मौके पर, जहाँ जिनसेन के वाक्य को उद्धत करनेको खास जरूरत थी, वैसा न करके अनघाद के एक वाक्य से काम लिया है, वे उसी वक्त ताड़ गये थे कि जरूर इसमें काई चाल है- अवश्य यहां दाल में कुछ काला है और वस्तुस्थिति ऐसी नहीं जान पड़ती। खंद है कि जो समालोचकजी, अपनी समालोचना में, पण्डित
SR No.010667
Book TitleVivah Kshetra Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJohrimal Jain Saraf
Publication Year1925
Total Pages179
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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