Book Title: Vivah Kshetra Prakash
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Johrimal Jain Saraf

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Page 175
________________ २७२ · विवाह क्षेत्र- प्रकाश 1 खेदके साथ अभिनंदन करूँगा और तब समालोचनाका कोई उत्तर म लिखकर कोर्ट में ही अपना सब उत्तर देलूंगा ।' परन्तु मेरे देहली पहुँचने पर कहीं भी शास्त्रर्थका कोई शब्द सुनाई नहीं पड़ा । प्रत्युत इसके प्रकाशकनी ने समालोचकजीको प्राग्रह पूर्वक इस बातकी प्रेरणा की कि वे अपनी समालोचना को प्रकाशित करने में सहायक ला० सोहनलाल तिलोकचंदजी की कोठी में ही आजायें और वहाँ पर ला० मत्थनलालजी आदि कुछ विचारवानोंके सामने लेखकसे प्रकृत पुस्तक के विषयमें अपनी शंकाओं तथा श्रापक्षियोंका समाधान कर लेवें । परन्तु उन्होंने उसे स्वीकार नहीं किया, अपना अपमान हो जानेकी संभावना प्रकट की और फिर वे देहली से ही बाहर चले गये ! इससे पाठक समझ सकते हैं कि शास्त्रार्थकं चैलेजका कोई सदुद्देश्य नहीं था, वह व्यर्थका हुल्लड़ मचाकर सत्य पर पर्दा डालने का पेशमा था, दौंगमात्र था अथवा उसे छछोरापन कहना चाहिये। किसी भी समझदारने उसे पसंद नहीं किया । श्रस्तु । अब समालोचनाका यह विस्तृत उत्तर पाठकोंके सामने उपस्थित है । आशा है कि सभी सहदय विद्वानोंको इससे संतोष होगा: इसे पढ़कर समालोचकजी और उनके सहायक भी यदि उनकी चित्तवृत्ति शुद्ध तथा पक्षपात रहित होगी तो अपनी भूलको मालूम करेंगे उन्हें अपनी कृति पर पश्चासाप होगा - और दूसरे वे लोग भी अपने भ्रमका संशोधन कर सकेंगे जिन्हें समालोचना पर से लेखक और लेखककी पुस्तक के विषय में कुछ अन्यथा धारणा हो गई है। बाकी, जिन लांगति कस्नुषाशय के वशवर्ती अथवा कषायभाव से श्रभिभूत होकर, लेखक के प्रति एकांगी द्वेष रखनेके कारण, समालोचना को मिथ्या जानते हुए भी उसका आश्रय लेकर और उसे सत्य प्रतिपादन करते हुए, लेखक पर झूठे कटाक्ष किये हैं उसके --

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