Book Title: Vivah Kshetra Prakash
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Johrimal Jain Saraf

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Page 166
________________ अलवर और अन्तर्जातीय विवाह । १६३ माना गया है। और जैन शास्त्रोंसे ग्लेच्छ, भील तथा वेश्या पत्रियों जैसे हीन जाति के विवादों के उदाहरण म्लेच्छ विवाह' आदि प्रकरणों में दिये ही जा चुके हैं। और इन सब उल्लेखों से प्राचीन काल में अनुलोम रूपसे प्रसवर्ण विवाहोंका होना स्पष्ट पाया जाता है। अब प्रतिलोम विवाहको भी लीजिये । धर्म संग्रह श्रावकाचारके हवे अधिकार में लिखा है : परस्परं त्रिवर्णानां विवाहः पंक्तिभोजनम् । कर्तव्यं न च शद्वैस्तु शुद्राणां शटकैः सह ॥२५६॥ . अर्थात् - प्रथम तीन वर्ण वालो (ब्राह्मल,-क्षत्रिय-वैश्यों) को भापसमें एक दूसरे के साथ विवाह और पंक्ति भोजन करना चाहिये किन्तु शाके साथ नहीं करना चाहिये । शुद्रोंका विषाह और पंक्ति-भोजन शुद्रों के साथ होना चाहिये। इस वाक्यके द्वारा यद्यपि, श्रीजिनसेनाचार्य के उक्त कथन से भिन्न प्रथम तीन वर्षों के लिये शूद्रोसे विवाहका निषेध किया गया है और उसे मत विशेष कह सकते हैं, जो बहुत पीछेका मत है + ----हिन्दुओंके यहाँ भी इस प्रकारका मत विशेष पाया जाता है *---परन्तु यह स्पष्ट है कि इसमें प्रथम सीन घोंके लिये परस्पर रोटी बेटीका खास तौर पर विधान किया गया + क्योंकि 'धर्मसंग्रह श्रावकाचार' वि० सं० १५४१ में बम कर समाप्त हुआ है और इसलिये वह जिनसेनके हरिवंशपुराण से ७०१६ष याद का बना हुश्रा है। ___मत्रि भादि ऋषियोंके इस मत विशेषका उल्लेख मनुस्मति के निम्न वाक्य में भी पाया जाता है :. शूद्राधेदी पतत्यप्रेरुतथ्यतनयस्य च ।। शोनकस्य सुतात्पत्या तदात्यतया भूगोः ॥३-१६॥

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