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अवर्ण और अन्तर्जातीय विवाह |
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अपने बांकी तथा शेष तीन वर्णोंकी स्त्रियोंका भी पाणिग्रहण कर सकता है।
श्री सोमदेव सूरि भी, नीति वाक्यामृतमें, ऐसा ही विधान करते हैं । यथा :
"अनुलोम्येन चतुस्त्रिदिवर्णकन्याभाजना ब्राह्मण-क्षत्रियविशः । "
अर्थात्-अनुलोम विवाह की गति से ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य क्रमशः चार, तीन और दो वर्णोंकी कन्याओं से विवाह करने के अधिकारी हैं I
इन दोनों उल्लेखों से स्पष्ट है कि जैन शास्त्रों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य के लिये सवर्ण विवाह ही नहीं किन्तु शूद्रा तक से विवाह कर लेना भी उचित ठहराया है। हिन्दुओं की मनुस्मृति में भी प्रायः ऐसा ही विधान पाया जाता है । यथा :शूद्रैव भार्या शूद्रस्यसा च स्वा च विशः स्मृते । । तेच स्वा चैव राज्ञथ ताथ स्वा चाग्रजन्मनः ॥
-- ० ३, श्लो० १३ वाँ 1
यह श्लोक आदि पुराण के उक्त श्लोक से बहुत कुछ मिलता जुलता है और इसमें प्रत्येक घर्णके मनुष्योंके लिये भार्याश्रों (विवाहित स्त्रियां) का जो विधान किया गया है वह वही है जो आदि पुराण के उक्त श्लोक में पाया जाता है। अर्थात् शूद्रकी शूद्रा; वैश्यकी वैश्य और शूद्राः क्षत्रियकी क्षत्रिया वैश्या और शूद्रा; और ब्राह्मण की ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्या और ढ़, ऐसे अनुलोम क्रमसे भार्याएँ मानी गई हैं।
मनुस्मृतिके हवें अध्याय में दो श्लोक निम्न प्रकार से भी
पाये जाते हैं
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