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गोत्र-स्थिति और सगोत्र-विवाह । १५६ सहदय विद्वानों को इस विषय पर गहरा विचार करके गोत्रों की वर्तमान समस्याको हल करना चाहिये और समाजको उसकी उन्नतिका साधक कोई योग्य तथा उचित मार्ग सुझाना चाहिये। हम भी इस विषय पर अधिक मनन करके अपने विशेष विचारोको फिर कभी प्रकट करनेका यत्न करेंगे।
असवर्ण और अन्तर्जातीय विवाह । 'वण' के चार भेद हैं-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र । ये घणं इसी क्रमको लिये हुए हैं, और इनकी सत्ता यहाँ युगकी श्रादिसे चली आती है । इन्हें 'जाति' भी कहते हैं । यद्यपि जाति नामा नामकर्म के उदयसे मनष्य जाति एक ही है और उस मनुष्य जातिकी रप्टिसे सब मनुष्य समान हैं-मनुष्यों के शरीरोमें ब्राह्मणादि वोकी अपेक्षा प्राकृति आदिका कोई खास भेद न होनेसे और शद्रादिकों के द्वारा ब्राह्मणी धादिमें गर्भकी प्रवत्ति भी हो सकने से उनमें जातिकृत कोई ऐसा भेष नहीं है जैसा कि गौ और अश्वादिक में पाया जाता है --फिर भी पत्ति अथवा भाजीविकाके भेद से मनुष्य जातिके उक्त चार भेद माने गये हैं। जैसा कि भगवजिनसेनके निम्न वाक्यसे सूचित होता है :
मनुष्यजातिरेकैव जातिकर्मोदयोद्भवा ।। *यथा:-वर्णाकृत्यादिभेदानां देहेऽस्मिन्न च दर्शनात ।
ब्राह्मण्यादिषु शूद्राद्यैर्गभांधानप्रवर्तनात् ॥४६॥ नास्ति जातिकृता भेदो मनुष्याणां गवाश्ववत् । प्राकृतिग्रहणात्तस्माइन्यथा परिकल्पते ॥४६२॥
-उत्तरपुराण, ७४ वाँ पर्व ।