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विवाह क्षेत्र प्रकाश ।
वृत्तिभेदाहि तद्भेदाच्चतुर्विध्यमिहाश्नुते ।। ४५ ।। आदिपुराण, पर्व, ३८वाँ । इन चार प्रधान जातियों श्रथवा वर्णोंमेंसे ही अग्रवाल, खंडेलवाल, आदि नवीन जातियों की सृष्टि हुई हैं और इसीसे उन्हें उपजातियां कहते हैं । उनमें भी वृत्तिका दृष्टिसे वर्णभेद पाया जाता है । श्रस्तु ।
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इन वर्णों में से प्रत्येक वर्णका व्यक्ति जब अपने ही बर्णकी स्त्रीसे विवाह करता है ता उसे 'सवर्ण विवाह' और जब अपने से भिन्न वर्ण के साथ विवाह करता है तो उसे 'श्रसवर्ण विवाह' कहते हैं । असवर्ण विवाह के 'अनुलोम' और 'प्रतिलोम' ऐसे दो भेद हैं। अपने से नीचे वर्ण वालोकी कन्याओं से विवाह करना 'अनुलोम विवाह' और अपने से ऊपर के वर्ण वालोकी कन्याओं से विवाह करना 'प्रतिलोम विवाह' कहलाता है । यद्यपि इन दोनों प्रकारके असवर्ण विवाहोंमें अनुलोम विवाह अधिक मान्य किया गया है परन्तु फिर भी वर्ण विवाह के साथ भारतवर्ष में दोनों ही प्रकारकं श्रसवर्ण विवाहों का प्रचार रहा है और उनके विधि-विधानों अथवा उदाहरणों से जैन तथा जैनेतर हिन्दू साहित्य भरा हुआ है ।
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भगवज्जिनसेनाचार्य, आदि पुराणम, अनुलोम रूपसे - वर्ण विवाहका विधान करते हुए, स्पष्ट लिखत हैं :
शूद्राशूद्रेण वोढव्या नान्या स्वां तां च नैगमः । वहेत्स्वां ते च राजन्यः स्वां द्विजन्मा क्वचिच्च ताः ॥ अर्थात् शूद्रका शूद्रास्त्रीके सिवाय और किसी वर्ण की स्त्री के साथ विवाह न होना चाहिये, वैश्य अपने वर्ण की और शूद्रवर्णकी स्त्री से भी विवाह कर सकता है, क्षत्रिय अपने वर्णकी और वैश्य तथा शूद्रवर्णकी स्त्रियाँ ब्याह सकता है और ब्राह्मण