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विवाह- क्षेत्र प्रकाश ।
मानी जाय तब तो एक कुलमें कितने ही गोत्रोंका संमिश्रण हो जाता है और उन सबको बचात हुए विवाह करना भोर भी ज्यादा असंभव ठहरता है। साथ ही, यह कहना पड़ता है कि भिन्न भिन्न गोत्रके स्त्री-पुरुषा के सम्बंध से संकर गांधी संतान उत्पन्न होती है और उस संकरताकी उत्तरोत्तर वृद्धि होते रहने से किसी भी गात्रका अपनी शुद्ध स्थितिमें उपलब्ध होना प्रायः असंभव है । गांत्रीकी इस कृत्रिमता और परिवतनशीलताकी कितनी ही सूचना भगवज्जिनसेनाचार्य के निम्न वाक्यसे भी मिलती है और उससे यह साफ़ मालूम होता है कि जैनधर्म में दीक्षित होने पर - जैनापासक श्रथवा श्रावक बनते हुए - श्रजैनों' के गांव और जाति आदिके नाम प्रायः बदल जाते थे-उनके स्थानमें दूसरे समयोचित नाम रखने जाते थे । यथा:जैनोपासक दीक्षा स्यात्समयः समयोचितम् ।
तो गोत्रजात्यादिनामान्तरमतः परम् ॥ ५६ ॥ - आदिपुराण, ३६ बाँ पर्व ।
ऐसी हालत में गोत्रकी क्या असलियत है--उनकी स्थिति कितनी परिकल्पित और परिवर्तनशाल है-और उन्हें विवाहशादियों के अवसर पर कितना महत्व दिया जाना चाहिये, इसका पाठक स्वयं अनुभव कर सकते हैं। साथ ही, ऊपर के संपूर्ण कथनसे यह भी मालूम कर सकते हैं कि पहले जमाने में गोत्रोको इतना महत्व नहीं दिया जाता था जितना कि वह श्राज दिया जाता है
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यहाँ पर में इतना और बतला देना चाहता हूं कि श्रीजिनसेनाचार्य के हरिवंशपुराणसे जहाँ यह पाया जाता है कि देवकी और वसुदेव दोनों यदुवशा थे, एक कुटुम्बके थे, दोनोंमें चचा भतीजीका सम्बंध था और इसलिये उनका पारस्परिक विवाह