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गोत्र-स्थिति और सगोत्र-विवाह । १५५ बनाकर उसका 'रतनपुरा' गोत्र स्थापित किया। इसके वंशमें झांझणसिंह नामका व्यक्ति अपने पेट में कटार मारकर मरगया था। इससे उसकी संतति का गोत्र 'कटारिया' प्रसिद्ध हुआ।
७ राँका तथा सेठिया गोत्र-'काकू' नामका एक व्यकि बहुत दुबेल शरीरका था इससे लोग उसे रोका' पुकारने लगे। उसे नगरसेठका पद मिला और इसलिये उसकी संतान का गोत्र 'राँका' तथा 'सेठिया' प्रसिद्ध हुआ।
गांत्रोकी ऐसी कृत्रिम, विचित्र और क्षणिक स्थितिके होते हुए पूर्व पूर्व गात्रों की दृष्टिसे सगोत्र विवाहोंका होना बहुत कुछ स्वाभाविक है। इसके सिवाय, प्रायः सभी जैनजातियों में गाद लेने अथवा दसकपुत्र प्रहण करनेका रिवाज है, और दत्तकपुत्र अपने गोजसे भिन्न गोत्रका भी लिया जाता है। साथ ही, यह माना जाता है कि उसका गोत्र दत्तक लेनेवालेके गोत्रमें परिणत हो जाता है-उसकी कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं रहती-इसी से विवाहके अवसर पर उसके गोत्रका प्रायः कोई खयाल नहीं किया जाता और यदि कहीं कुछ खयाल किया भी जाता है तो वह प्रायः उस दत्तकपुत्रके विवाह तक ही परिमित रहता है-उसके विवाहमें ही उसका पूर्व गोश बचा लिया जाता है-आगे होने पालो उसकी उत्तरोत्तर संततिमें फिर उसका कोई खयाल नहीं रक्खा जाता और न रखा जा सकता है; क्योंकि एक एक वंशमें न मालूम कितने दत्तक दूसरे वंशो तथा गोत्रों के लिये जा चुके है उन सबका किसीको कहाँ तक स्मरण तथा खयाल हो सकता है। यदि उन सब पर खयाल किया जाय--विवाहों के अवसर पर उन्हें टाला जाय तो परस्परमें विवाहों का होना ही प्रायः असंभव हो जाय। इसी तरह पर स्त्रियों के गोत्र भी उनके विवाहित होने पर बदल जाते हैं और उनकी प्रायः कोई स्वतंग सत्ता नहीं रहतो । यदि उनकी स्वतंत्र सत्ता