Book Title: Vivah Kshetra Prakash
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Johrimal Jain Saraf

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Page 148
________________ स्वयंवर-विवाह । १४५ गया है कि स्वयंवरमें कन्या अपनी इच्छानुसार वर पसंद करती है, उसमें घरके कलीन या प्रकलीन होनेका कोई नियम नहीं होता और इसको समर्थन ऊपर की घटना से भले प्रकार होजाता है। । परन्तु तीसरी आपत्तिमें समालोचकजी उक्त श्लोकको कोधमें कहा हुआ ठहरा कर अप्रामाणिक बतलाते हैं और श्राप स्वयं, दूसरे स्थान पर, एक कामीजन द्वारा अपनी कामुकी के प्रति, काम-पिशाचके घश-वर्ती होकर, कहा हुआ वाक्य प्रमाणमें पेश करते हैं और उसमें पाए हुए 'प्रिये' पद परसे यह सिद्ध करना चाहते हैं कि उन दोनों में पति पत्नीका सम्बंध स्थापित होगया था-उनका विवाह होच का था, यह कितने श्राश्चर्य की बात है ! श्रस्तु; मैं अपने पाठकों को यह भी बतला देना चाहता हूँ कि उक्त श्लोक क्रोध नहीं कहा गया किन्तु तुभित राजाओंको शांत करते हुए उन्हें स्वयंवरकी नीतिका स्मरण करानेके लिये कहा गया है। जिनदाप्त ब्रह्मचारीके हरिवंशपुराणमें उक्तश्लोकसे पहले यह श्लोक पाया जाता है : वसुदेवस्ततो धीरो जगाद क्षुभितान्नृपान । - मद्वचः श्रूयतां यूयं दृप्ताहंकारकारिणः ।। ७० ।। इसमें वसुदेवका 'धीर' विशेषण दिया है और उसके द्वारा यह सचित किया गयाहै कि वे सुमित सथा अहंकारी राजाओंको स्वयंवरकी नीतिको सुनाते हुए स्वयं धीर थेक्षभित अथवा फपित नहीं थे। श्री जिनसेनाचार्यने तो इस विषयमें और भी स्पष्ट लिखा है । यथा: वसुदेवस्ततो धीरः प्रोवाच क्षभितान्नपान् । श्रूयतां क्षत्रियैदृप्तः साधुभिश्च वचो मम ॥५२॥

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