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विवाह-क्षेत्र प्रकाश।
*स्वयंवरगता कन्या वणीते रुचितं वरं। कुलीनमकुलीनं वा न क्रमोस्ति स्वयंवरे ॥ ५३॥ अक्षान्तिरत्र नो युक्ता पितुर्धातुर्निजस्य वा। स्वयंवरगतिज्ञस्य परस्येह विशेषतः ॥ ५४ ॥ कश्चिन्महाकुलीनोऽपि दुर्भगः सुभगोऽपरः। कुलसौभाग्ययोर्नेह प्रतिबन्धोस्ति कश्चनः ॥५५॥ तदत्र यदि सौभाग्यमविज्ञातस्य मेऽनया। अभिव्यक्तं न वक्तव्यं भवद्भिरिह किंचनः ॥५६॥
-हरिवंशपुराण । अर्थात्-क्षुभित राजाओको अनेक प्रकारसे कोलाहल करते हुए देखकर, धीर वीर वसदेव जी ने, गर्वित क्षत्रियों और साधजनौ दोनों को अपनी बात सुनने की प्रेरणा करते हुए कहा-'स्वयंवरको प्राप्त हुई कन्या उस चरको वरण करतीस्वीकार करती-है जा उस पसंद होता है, चाहे वह घर कुलीन हो या अकुलीन: क्योंकि स्वयंवरमें वरके कुलीन या अकलीन होनेका कोई नियम नहीं होता। (अतः) इस समय कल्याके पिता तथा भाई को, अपने सम्बंधी या दूसरे किसी उत्तक्तिका और खासकर ऐसे शख्लोको जो स्वयंवरकी गतिउसकी रोतिनीति-से परिचित है कुछभी अशांति करनी उचित नहीं है। कोई महाकुलीन होते हुए भी दुर्भग होता है और दूसरा महा अकुलीन होने पर भी सुभग होजाता है, इससे कुल और सौभाग्यका यहाँ कोई प्रतिबंध नहीं है। और इस
*जिनदास ब्रह्मचारीने इसी श्लोकको, कुछ अक्षरों को आगे पीछे करके, अपने हरिवंशपुराणमें उद्धृत किया है।