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गोत्र-स्थित और सगोत्र-विवाह ।
१४६ क्रमसे चले पाए जीवोंके आचरण-विशेषको नाम 'गोत्र' है। वह आचरण ऊँचा और नीचा दो प्रकार का होने से गोत्रके भी सिर्फ दो भेद हैं, एक उच्चगोत्र और दूसरा नीचगोत्र, यथाः
संतानकमेशागय जीवायरणस्स गोदमिदि सपणा । उच्चं णीचं चरणं उच्चं पीचं हवे गोदं । परन्त आजकल जैनियों में जो सैकड़ों गोत्र प्रचलित हैंउनकी ८४ जातियों में प्रायः सभी जातियाँ, समान पाचरण होते हुए भी, कुछ न कुछ गोत्र संख्याको लिये हुए हैं-वे सब गोत्र उक्त सिद्धान्त प्रतिपादित गात्र-कथनसे भिन्न हैं, उनमें 'उच्च' और 'नीच' नामके कोई गोत्र है भी नहीं, और न किसी गोत्रके भाई ऊँच अथवा नीच समझे जाते हैं। इन गोत्रोंके इतिहास पर जब दृष्टि डाली नाती है तो वह बड़ा ही विचित्र मालम होता है और उससे यह बात सहजही समझ में श्रा जाती है कि ये सब गोत्र कोई अनादिनिधन नहीं है-वे भिन्न भिन्न समयों पर भिन्न भिन्न कारणों को पाकर उत्पन्न हुए और इसी तरह कारण विशेषका पाकर किसी न किसी समय नष्ट हो जाने वाले हैं । अनेक गोत्र केवल ऋषियों के नामों पर प्रति. ष्ठित हुए, कितने ही गोत्र सिफ नगर ग्रामादिकोंके नामों पर रक्खे गये और बहुतसे गोत्र वश के किसी प्रधानपुरुष, व्यापार, पेशा अथवा किसी किसी घटनाविशेषको लेकर ही उत्पन्न हुए हैं । और इन सब गोत्रोंकी उत्पत्ति या नामकरणसे पहले पिछले गोत्र नष्ट होगये यह स्वतः सिद्ध है- अथवा यो कहिये कि जिन जिन लोगोंने नवीन गोत्र धारण किये उनमे और उनकी संतति में पिछले गोत्रोंका प्रचार नहीं रहा । यहाँ पर इन गोत्रोंकी कृत्रिमता और परिवर्तनशीलताका कुछ दिग्दर्शन करा देना उचित मालम होता है और उसके लिये अगवाल