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विवाह-क्षेत्र-प्रकाश।
अकुलीनपना लागू होता है। 'कंगाल' शब्दका तो प्रयोग भी उदाहरण भरमें कहीं नहीं है और इसलिये उसे समालोचकजीकी अपनी कर्तृत समझना चाहिये । लेखक ने जिसके लिये रंक तथा अकुलीन शब्दोंका प्रयोग किया है वह वसुदेवजीका तात्कालीन वेष था, नकि स्वयं वसुदेवजी, और यह बात ऊपरके उदाहरणांशसे स्पष्ट जाहिर है। वेषकी बातकोव्यक्तित्व में घटा लेना कोरी भल है । यह ठीक है कि कभी कभी कोई रोजा महाराजा भी अपने दिल बहलावके लिये बाजा बजा लेते हैं परन्तु उनका वह विनोदकर्म प्रायः एकान्तमें होता है-सर्व साधारण सभा-सोसाइटियो अथवा महोत्सवोंके अवसर पर नहीं- और उससे वे पाणविक'-बाजंत्री-नहीं कहलाते। वसदेवजी, अपना वेष बदल कर 'पणव' नामका वादिन हाथमें लिये हुए, साफ तौर पर एक पाणविकके रूपमें वहाँ (स्वयंवर मंडपमें ) उपस्थित थे-राजाके रूपमें नहीं - और पाणविको को- वाजंत्रियों की श्रेणिके भी अन्तमें बैठे हुए थे, जैसाकि जिनसेनके निम्न वाक्यमे प्रकट है:__ *वसुदेवोऽपि तत्रैव भ्रात्रलक्षितवेषभूत् ।
*इसी पधको जिनदास ब्रह्मचारीने निम्नप्रकरसे बदल कर रक्खा है :
भ्रात्रलक्षितवेषोपि तत्रैव यदुनन्दनः ।
गृहीतपणवस्तस्थौ मध्ये सर्वकलाविदां ॥ यहाँ 'सर्वकलाविदां' पद वादिन-विद्याकी सर्वकलाओके जानने वाले पाणविकोंके लिये प्रयुक्त हुश्रा है । जिनदासने वसुदेवको उन पाणविको बाजंत्रियों के अन्तमें न विठलाकर मध्यमें पिठलाया है, यही भेद है और वह कुछ उचित मालूम नहीं होता। उस वक्तकी स्थितिको देखते हुए एक अपरिचित और अनिमं