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विवाह क्षेत्र- प्रकाश -
भी अपने पुत्र चारुचंद्रका विवाह 'कामपताका' नामकी वेश्यापुत्री से किया था, जिसके कथन को भी समालोचक जी कथा का पूर्णांश देते हुए छिपाये ! और इसलिये ऋषिदत्ता दले की पुत्री और दस्सेकी बहन भी हुई। तब उसकी उक्त प्रकार से उत्पन्न हुई संतानको श्राज कलकी भाषा में दस्से के सिवाय और क्या कहा जासकता है ? परन्तु पहले जमाने में 'दस्सेबीसे' का कोई भेद नहीं था और न जैनशास्त्रों में इस भेदको कहीं कोई उल्लेख मिलता है । यह सब कल्पना बहुत पीछे की है जबकि जनता के विचार बहुत कुछ संकीर्ण, स्वार्थमूलक और ईर्षा द्वेष-परायण होगये थे । प्राचीन समय में तो दो दो वेश्यापुत्रियों से भी विवाह करने वाले 'नागकुमार' जैसे पुरुष समाज में अच्छी दृष्टि से देखे जाते थे, नित्य भगवानका पूजन करते थे और जिनदीक्षाको धारण करके केवलज्ञान भी उत्पन्न कर सकते थे परन्तु श्राज इससे भी बहुत कमती हीन बिवाह करलेने वालोंको जातिसे खारिज करके उनके धर्म-साधनके मार्गों को भी बन्द किया जाता है ! यह कितना भारी परिवर्तन है ! समयका कितना अधिक उलटफेर है !! और इससे समाज के भविष्यका चिन्तवन कर एक सहृदय व्यक्तिको कितना महान दुःख तथा कष्ट होता हैं !!!
यहाँ पर मैं समालोचक जीको इतना और भी बतला देना 'चाहता हूँ कि दस्सों और बीसंमेिं परस्पर विवाहकी प्रथा सर्वथा बन्द नहीं है । हूमड श्रादि कई जैन जातियों में वह अब भी जारी है और उसका बराबर विस्तार होता जाता है । बम्बई के सुप्रसिद्ध 'जैनकुल भूषण' सेठ मणिकचंद जी जे० पी०के भाई पानाचंद का विवाह भी एक दस्संकी पुत्रीसे हुआ था । इस लिये आपको इस विवासे मुक्त हो जाना चाहिये कि यदि जैनजातिमें इस प्रथाका प्रवेश हुआ तो वह रसातलको चली