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विवाह-क्षेत्र प्रकाश।
पाठ अशुद्ध नहीं है, बल्कि भट्टारकजीने इसे इसी रूपमें लिखा है और वह प्रन्थकी प्राचीन प्रतियों में भी ऐसेही पाया जाता है तो मुझे इस कहने में कोई संकोच नहीं होता कि भट्टारकजी ने जिनसेनाचार्य के शब्दोंका अर्थ समझने में गलती की और वे अपने ग्रन्थ में शब्द अर्थके सम्बंथको ठीक तौरसे व्यवस्थित नहीं कर सके-यह भी नहीं समझ सके कि विवाहके अनंतर उक्त प्रश्नोत्तर कितना वेढंगा और अप्राकृतिक जान पड़ता है। प्रापका ग्रन्थ है भी बहुत कुछ साधारण । इसके सिवाय, जब हमारे सामने मलग्रंथ मौजद है तब उसके आधार पर लिखे हुए सारांशों, श्राशयों, अनुवादों अथवा संक्षिप्त ग्रंथोपर ध्यान देने की ऐसी कोई जरूरत भी नहीं है, वे उसी हद तक प्रमाण माने जा सकते हैं जहाँ तककि वे मल गों के विरुद्ध नहीं है। उनके कथनोकामलगयों पर कोई महत्व नहीं दिया जासकता। जिनसेनाचार्यने साफ सूचित किया है कि उन दोनों के प्रेमने चिरपालित मर्यादाको भी तोड़ दिया था, वे एकान्तमें जाकर रमने लगे, भोगके अनन्तर ऋषिदत्ताको बड़ा भय मालूम हुआ, वह घबराई और उसे अपने गर्भ की फिकर पड़ी। शीलायधके वंशादिकका परिचय भी उसे बादको ही मालूम पड़ा। ऐसी हालतमें विवाह होनेका तो खयालभी नहीं आ सकता । अस्तु।
इस सब कथन और विवेचनसे साफ ज़ाहिर है कि ऋषिदत्ता और शोलायुधका कोई विवाह नहीं हुअाशा, उन्होंने वैसे ही काम पिशाच के वशवर्ती होकर भोग किया और इस लिये वह भोग व्यभिचार था। उससे उत्पन्न हुश्रा एणीपत्र, एक दृष्टिसे शीलायधका पत्र होतेहुए भी, ऋषिदत्ताके साथ शीलायधका विवाह न होनेसे, व्यभिचारजात था। उसकी दशा उस जारज पत्र जैसी थी जो किसी जारसे उत्पन्नहोकर कालान्तरमें उसीको मिलजाय । अविवाहिता कन्याले जो पुत्र