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विवाह-क्षेत्र प्रकाश । होती है कि ऋषिदत्ता और शीलायुधका आपसमें विवाह नहीं हुअा था किन्तु भोग हुअा था और उस भोगसे उत्पन्न होने वाले पुत्रका ही इस प्रश्नोत्तर द्वारा निपटारा किया गया है कि उसका क्या बनेगा । अन्याथा,-विवाहकी हालतमें--ऐसे विलक्षण प्रश्नोत्तर का अवतार ही नहीं बन सकता। परन्तु इस प्रश्नोत्तरसे ठीक पहले शीलायुधके तापसाश्रम में जाने श्रादिका जो वर्णन दिया है उसमें विवाहिय' पद खटकता है और वह वर्णन इस प्रकार है :
सीलाउहणरवइ तहिं पत्तउ । बनकीलइ सो ताए विदिहिउ । अतिहिं धरि विहय तहो अणुराइय ।
तेंसि हि सक्खि करवि विवाहिय । समालोचकजीने इस पद्यक अर्थमें लिखा है कि-"किसी समय शीलायुध राजा वहाँ वन क्रीडाके लिये श्राया वह [उसे] ऋषिदत्ताने देखा उन दोनों में परस्पर अनुराग हो गया और उन्होंने तेंसिको साक्षीकर विवाह कर लिया ।” साथही. यह प्रकट किया है कि 'तैसि' का अर्थ हमें मिला नहीं, वह निःसंदेह कोई अचेतन पदार्थ जान पड़ता है जिसको साक्षी करके विवाह किया गया है। ___ यहाँ, मैं अपने पाठकों को यह बतला देना चाहता हूं कि उक्त प्रश्नोत्तर वाला पद्य इस बातको प्रकट कर रहा अथवा माँग रहा है कि उससे पहले पद्यमै भोगका उल्लेख होना चाहिये, तब ही गर्भकी शंका और तद्विषयक प्रश्न बन सकता है। परंतु इस पद्यमें भोगका कोई उल्लेख न होकर केवल विवाहका उल्लेख है और विवाह मात्रसे यह लाजिमी नहीं पाता कि भोग भी उसी वक्त हुआ हो । मात्र विवाह के अनन्तर ही उक्त