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व्यभिचारजातों और दस्सों से विवाह । १३१
के श्लोक निम्न प्रकार हैं और वे ऊपर उद्धृत किये हुए पद्यों के ठीक बाद पाये जाते हैं:
विजिज्ञयचतस्तं सा साध्वी साध्वसपूरिता । ऋतुमत्यार्यपुत्राहं यदि स्यां गर्भधारिणी ॥ ४० ॥ तदा वद विधेयं मे किमिहाकुलचेतसः ।
पृष्ठस्ततः सतामाह माकुलाः प्रिये श्रृणु ॥ ४१ ॥ इताकुलजो राजा श्रावस्त्या मस्तशात्रवः । शीलायुधस्त्वयावश्यं दृष्टव्योहं सपुत्रया ।। ४२ ।।
यशःकीर्ति भट्टारकके बनाये हुए अपभ्रंशभाषात्मक प्राकृत हरिवंशपुराण में यही प्रश्नोसर इस प्रकारसे दिया हुआ है :ars करेसमि ।
freive काइ हउसोगब्भु का सुयउ देखमि ।
सीलाउहु खिउ हउ साविच्छिहिं । सो दम आणि दिज्जहिं ।
अर्थात् - ( ऋषिदत्ताने पूछा ) मैं ऋतुसम्पन्ना हूं, यदि मेरे गर्भ रह गया तो मैं क्या करूँगी और उस पुत्रको किसे दूँगी ? ( उत्तर में शीलायुधने कहा ) मैं श्रावस्ती ( नगरी) में शीलायुध (नामका राजा हूं सां वह पुत्र तुम मुझे लाकर दे देना ।
इसके बाद लिखा है कि 'राजा अपने नगर चला गया और ऋषिदत्ताने वह सब वृत्तांत अपने माता पितासे कह दिया' । यथा य कवि सो गाउ यि एयरहो । थि वित्तंतुकहिउ तिरिण पियरहो ||
इस प्रश्नोतरसे, यद्यपि, यह बात और भी साफ जाहिर