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व्यभिचरजोतों और दस्सोसे विवाह ।
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पति-पत्नी होने की कोई बात चीत सनाई नहीं पड़ती और न गंधर्व विवाह ही के मुख का कहीं से दर्शन होता है । यदि दोनो का गंधर्व विवाह हुश्रा होता.तो कोई वजह नहीं थी कि क्यों ऋषिदत्ता प्रसय से पहले ही शीलायध के घर पर न पहुंच गई होती- खासकर ऐसी हालत में जब कि उसने शीलायुध-द्वारा भांगे जाने का हाल अपने माता पिता से भी उसी दिन कह दिया था । साथ ही, समालोचकजीके शब्दों में (मूल ग्रन्थ के शब्दा में नही ) यह भी कह दिया था कि “ मैं एकान्त में राजा शोलायुध की पत्नी हो चको हूँ।" ऐसी दशा में तो जितना भी शीघ्र बनना चे प्रकट रूप से उसका बाकायदा नियमानुसार) विवाह शीलायधके साथ कर देते और उसे उसके घर पर भेज देते । ऋपिदत्ता को तब क्या जरूरत थी कि वह डरती और घबराती हुई यह प्रश्न करती कि ऋतु. मती होनेसे यदि मेरे गर्भ रहगया हो तो मैं उसका क्या करूँगी। एक विवाहिता स्त्री गर्भ रह जाने पर क्या किया करती है ? जब यह खुद बालिग (प्राप्तवयस्क) थी, अपनी खुशी से उसने विवाह किया था और एक ऐसे समर्थ परुष के साथ विवाह किया या जोकि राजा था तो फिर उसके लिये डरने, घबराने और थरथर कांपने को क्या जरूरत थी? प्रियंगसुन्दरी का भी तो वसुदेवके साथ पहले गंधर्व विवाह ही हुआ था। वह तो तभी से उनके साथ रहने लगी थी। और बादको उसका बाजाता विवाह मोहागया था। हा सकता है कि ऋषिदत्ता अपने तापसी जीवन में ही रहना चाहती हो और इसीलिये केवल पुत्र के वास्ते उसने पूछ लिया हो कि उसके होने पर क्या किया जाय । ऐसी हालतमें उसका वह कर्म गंधर्व-विवाह नहीं कहला सकता। शीलायध ने उसके प्रश्नका जो उत्तर दिया उससे भी यह बात नहीं पाई जाती कि उनका परस्पर