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व्यभिचारजातों और दस्सों से विवाह ।
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श्राहार कराया, ए दोऊही अतुल रूप सो इनके प्रेम बढ़ा सो चिरकालको मर्यादा हुती सा भेदी गई। एकान बिपै दोऊ नि.शरु भये यथेष्ट रमते भयं।" और पं० गजाधरलालजी ३- वे पद्यके अनुवाद में लिखते हैं-'वे दोनों गाढ प्रेम वधनमें बंध गये उनके उस प्रे बचनने यहाँ तक दानों पर प्रभाव जमा दिया कि नतो ऋषिदचाका अपनी तपस्विमय दाका ध्यान रहा और न राजा शीलायधको ही अपनी वंशमयादा सोचनेका अवसर मिला।" और इसके बाद आपने यह भी जाहिर किया है कि "ऋविदत्ताको अपने अविचारित काम पर बड़ा पश्चासाप हुश्रा मारे भयकं उसका शरीर थर थर काँपने लगा।"
श्रोजिनसेनाचार्यके वाक्या और उक्त टीका वचनों से यह स्पष्ट ध्यान निकलती है हि ऋषिदत्ता और शोलायुधने विवाह न करके व्यभिचार कियाथा। हरिवंशपराण के उक्त चारा पद्या में शोलायधके आश्रम में जाने और भांग करने तकका पूरा वर्णन है परन्तु उसमें कहीं भी पति-पत्नीक संबंध-विषयक किसी ठहराव. संकल्प, प्रतिक्षा या विवाहका कोई उल्लेख नहीं है। फिर यह कसे कहा जासकता है कि इन दोनों का गंधर्व विवाह हुआथा ? समालोचकजी, कथाका पूणांश ( ? ) देते हुए लिखत है :
"चंकि राजपुत्र भी तरुण तथा रूपवान था और . कन्या भी सुन्दरी व लावण्यवती थी इनको आपस
में एक दूसरे पर विश्वास हो गया । ( पति पत्नी बनने की वार्ता हो गई ) जो कि गन्धर्व विवाह से भली भाँति घटित होता है। और इन्होंने परस्पर
में काम क्रीडा की"। मालूम होता है यह आपने उक्त ३८ वे और ३६ पद्यों का पूर्णाश नहीं किन्तु सारांश दिया है और इस में चिरपालित