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विवाह-क्षेत्र-प्रकाश।
शीलायुध इतिख्यातः संयातस्तापसाश्रमम् ॥३६ ॥ एकयैव कृतातिथ्यम्तया तापसकन्यया । रुच्याहारैर्मनोहारि-सवल्कलकुचश्रिया ।। ३७ ।। अतिविधभतः प्रेम तयोरप्रतिरूपयोः।। विभेद निजमर्यादा चिरं समनुपालिताम् ।। ३८ ॥ गते रहसि निःशंकं निःशंकस्तामसौ युवा । अरीरमद्यथाकामं कामपाशवशो वशां ।। ३६ ॥
-हरिबंशपुराण । अर्थात --एक दिन शांनायुनधका पुत्र शीलायुध, जो धा. वस्ती नगरीका राजा था, नापसामधमें गया। वहाँ वह तापसकन्या ऋषिदत्ता अकेली थी और उसने ही सन्दर भोजनसे राजाका अतिथि-सत्कार किया। ये दोनों अति रूपवान थे, इनके परस्पर केलिकलह उपस्थित होने ---अथवा स्नेहके बढ़ने से---दोनोंके प्रेमने चिरकालसे पालन की हुई मर्यादाको तोड़ डाला। और वह कामपाशके वश हुआ युवा शीलायध उस कामपाशश्शवर्तिनी ऋषिदत्ताको एकान्त में लेजाकर उससे निःशंक हुआ यथेष्ट काम क्रीड़ा करने लगा।
प० दौलतरामजी भी अपनी टोकामें लिखते है-"ऋषिदत्ता तापसकी कन्या अकेली हुती ताने शोलायुधको मनोहर
शीलायुधाभिधोयासीत्तं तापसजनाश्रमं ॥ ३६॥ तयैकयैव विहितातिथ्यस्तापसकन्यया । वन्याहारैः परां प्रीति स तया सह संगतः ॥३७ ॥ ततो रहसि निःशंकस्तामसीतापसात्मजां । बुभुजे कामनाराचवशाल्पीकृतविग्रहाम् ॥ ३८ ॥