________________
व्यभिचारजातों और दस्सोंसे विवाह । १३३ प्रश्नोत्तरका होना बेढंगा मालूम होता है ऐसी हालतमें यहाँ 'विवाहिय' पदका जो प्रयोग पाया जाता है वह संदिग्ध जान पड़ता है। बहुत संभव है कि यह पद अशुद्ध हो और भोग किया, काम क्रीडाकी अथवा रमण किया, ऐसेही किसी अर्थके वाचक शब्द की जगह लिखा गया हो। 'सिहि सक्खि' पाठ भी प्रशद्ध मालम होता है उसके अर्थका कहींसे भी कोई समर्थन नहीं होता । ऋषिदत्ताकी कथाको लिये हुए सबसे प्राचीन ग्रन्थ, जो अभी तक उपलब्ध हुआ है वह, जिनसेनाचार्यका हरिवंशपुराण ही है--काप्टासंघी यशः कीर्ति भट्टारकका प्राकृत हरिवंशपुराण उससे ६६० वर्ष वादका बना हुआ हैपरन्तु उसमें तैसि ( ? ) की सातोसे तो क्या वैसे भी विवाह करनेका कोई उल्लेख नहीं है, जैसाकि ऊपर जाहिर किया जा चका है। इसके सिवाय, भट्टारकजीने स्वयं यह सूचित किया है कि मेरे इस ग्रंथके शब्द-अर्थका सम्बंध जिनसेनाचार्यके शास्त्र ( हरिवंशपुराण ) से है । यथा :
सद अत्य संबंध फुरंतउ ।
जिणसणहो सुत्तहो यहु पयडिउ । और जिनसेनाचार्यने साफ तौर पर विवाहका कोई उल्लेख न करके उक्त अवसर पर भोगका उल्लेख किया है और "अरीरमत्' पद दिया है। जिनसेनाचार्यके अनसार अपने हरिवंश पुराणकी रचना करते हुए, ब्रह्मचारी जिनदासने भी वहाँ "बभुजे" पदका प्रयोग किया है जिसका अर्थ होता है 'भोग किया' अथवा भोगा और इसलिये वह जिनसेनके 'परीरमत्' पदके अर्थकाही द्योतक है । परन्तु यहाँ “करेवि विवाहिय" शब्दोंसे वह अर्थ नहीं निकलता, जिससे पाठके अशुद्ध होनेका खयाल और भी ज्यादह दृढ होता है। यदि वास्तव में