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कुटुम्बमें विधाह। सार एक भाई के पुत्र-पुत्रियोंका दूसरेभाई के पुत्रपुत्रियों के साथ विवाह होगया अथवा यो कहिये कि सगे चचा-ताऊजाद भाई बहनों का श्रापसमें विवाह होगया। इसके बाद भी कुटम्ब तथा वंशमें विवाह का सिलसिला जारी रहा-कितने ही भाई-पहनी तथा चच्चा-भताजियोंका श्रोपसमें धियाह हुमा-और उन्हीं विवाहोंका परिणाम यह अाजकलका विशाल अग्रवाल वंश है, जिसमें जैन और लाजैन दोनों प्रकार की जनता शामिल है।
और इससे अजैनों के लिये जैनोंके किसी पुगने कौटाम्बिक विवाह पर श्रापसि करने या उसके कारण जैन धर्मसे ही घणा करने की कोई वजह नहीं हो सकती । श्राजमो अग्रवाल लोग, उसी गांत्र पद्धतिको टालकर, अपने उसी एक वंशम-अग्रवालोंके ही साथ-विवाह सम्बन्ध करते हैं: यह प्राचीन रीतिरिवाज तथा घटनाविशेषको प्रदर्शित करनेवाला कितना स्पष्ट उदाहरण है । याब बिहारीलालजी अग्रवाल जैन बुलन्दशहरी ने अपन अग्रवाल इतिहास' म भी अग्रवालकी उत्पत्तिका यह सम्म इतिहास दिया। इतने पर भी समालोचकी प्राचीन कालके ऐसे विवाह-सम्बंधों पर, जिनके कारण बहुनसी श्रेष्ट जनता का इस समय अगवाल वंशम अस्तित्व है, प्रणा प्रकाशित करते है और उनपर पर्दा डालना चाहते है, यह कितने बड़े आश्चर्यकी बात है !!
पाठकजन, यह बात मानी हुई है और इसमें किसीको आपत्ति नहीं कि 'कंस' उन यदुवशी राजा उगसेनका पुत्र था जिनका उल्लेख ऊपर उद्धृतकी हुई वशावलीमे भोजक-वृष्टि के पुत्ररूपसे पाया जाता है । यह कंस गर्भ में प्रातही माता
*यह इतिहास ला० हीरालाल पन्नालाल जैन,दरीया कलाँ, देहली के पतेसे तीन श्राने मूल्यमें मिलता है।