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कुटुम्बमें विवाह । अन्तिम प्राधार आराधनाकथाकोशके कुछ श्लोको और उनके भाषापद्यानयाद पर रक्खा है । अापके वे श्लोक इस प्रकार हैं:
अथेह मृत्तिकावत्यां पुर्या देवकि क] भूपतेः । भार्यायाधनदेव्यास्तु देवकी चारुका कन्यकाम्।।८।। प्रतिपन्नस्वभगिनीं मीन्द्रां] तां विवाहप्रयुक्तितः । कंसो सौ वा[व] सुदेवाय कुरुवंशो श्योद्भां ददौ।।८६ ये दोनों जिस अाराधना कथाकोश के श्लोक है वह उन्हीं नेभिदत्त ब्रह्मचारीका बनाया हु प्रा है जो नेमिपुराणके भी कर्ता हैं और जिन्होंने नेमिपराणमें देवकीको न तो कुरुवंशमे उत्पन्न हुई लिखा और न इस बात का ही विधान किया कि कंसने उसे चैसेही वहन मान लिया था—वह उसके कुटम्बकी बहन नहीं थी। परन्तु समालोचकजी उनके इन्ही पद्यों परसे यह सिद्ध करना चाहते हैं कि देवकी कुरुवंशमें उत्पन्न हुई थी और कस उसे वैसेही वहन करके मानता था। इसीसे आपने इन पोका यह अर्थ किया है :"मृतिका पुरीके राजा देवकी [?] की रानी धनदेवी के एक देवकी नामकी सुन्दर कन्या थी। वह कुरुवंशमें उत्पन्न हुई थी। और कंस उसे बहिन करके मानता था। उसने वह कन्या वसुदेवको व्याहदी।" परन्तु "वह कुरुवंश में उत्पन्न हुई थी और कंस उसे बहन करके मानता था" यह जिन दो विशेषण पदोका अर्थ किया गया है उन्हें समालोचकजी ने ठीक तौर से समझा मालम नहीं होता। आपने यह भी नहीं खयाल किया कि इन श्लोको का पाठ कितना अशुद्ध हो रहा है और इसलिये मुझे उनका शुद्ध पाठ मालम करके प्रस्तुत करना चाहिये-वैसे ही अशुद्ध रूप में माराधनाकथाकोशकी छपोहुई प्रति परसे नकल