________________
१०८
विवाह-क्षेत्र प्रकाश।
विवाह करना अथवा वसूदेवका यहाँसे अपनी ही जातिकी कन्याका ले श्रीना कैसे बन सकता है? कदापि नहीं। और इस लिये यह समझना चाहिये कि जिन लोगोने-चाहे वे कोई भी क्यों न हो-म्लेच्छ खंडोंकी कन्याओंसे विवाह किया है उन्होंने म्लेच्छोकी म्लेच्छ कन्यायोंसे विवाह किया है । म्लेच्छत्वकी दृष्टि से कर्मभूमिके समीम्लच्छ समान हे और उनका प्रायः वही समान प्राचार है जिसका उल्लेख भगवजिनसेना. चार्यने अपने उस पद्यम किया है जो ऊपर उद्धृत किये हुए उदाहरणांश में दिया हुआ है। समालोचकीको यह म्लेच्छाचार देखकर बहुतही तामहुश्रा मालम होता है। श्रापने जराके पिताको किसी तरह पर उस म्लेच्छाचारसे सुरक्षित रखने के लिये जो प्रपंच रचा है उसे देखकर बड़ा ही आश्चर्य तथा खेद होता है ! आप सबसे पहले लेखक पर इस बातका भाक्षेपकरते है कि उसने उक्त पद्यक आगे पाछेक दोचार श्लोकोको लिखकर यह नहीं दिखलाया कि उसमें केस म्लेच्छोका प्राचार दियाहा है। परन्तु स्वयं उन श्लाकोंको उधत करके और सबका अर्थ देकर भी आप उक्त पद्यक प्रतिपाद्यविषय अथवा अर्थ-सबंध किसी भी विशेषताका उल्लेख करने केलिये समर्थ नहीं होसकेयह नहीं बतला सके कि वह हिसाम रति, मांसभक्षण प्राति और जबरदस्ती दूसरोकी धनसम्पत्तिका हरना, इत्यादिम्लेच्छों का प्रायः साधारण पाचरण न होकर अमुक जातिके म्लेच्छोंका प्राचार है । और न यह ही दिखलासकं कि लेखकके उद्धत किये हुए उक्त कद्यका अर्थ किसी दूसरे पद्य पर अवलम्बित है, जिसकी वजहसे उस दूसर पद्यको भी उद्धृत करना जरूरी था और उसे उद्धत न करनेसे उसके अर्थम अमुक बाधा श्रागई। वास्तवमै वह अपने विषयका एक स्वतंत्र पद्य है और उसमें 'म्लेच्छाचारी हि' और 'इतिस्मृतम्' ये शब्द साफ