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व्यभिचारजातों और दस्सोंसे विवाह। १२३ भी, जिनसेनांचार्यका एक भी वाक्य ऐसो उद्धृत नहीं किया जिससे गंधर्व विवाहका पता चलता। सारी कथा से नीचे लिखे कुल दो वाक्य उद्धृत किये गये हैं जो दोपोंके दो चरणहैं:
"ऋतुमत्यायपुत्राहं यदिस्यां गर्भधारिणी ।" “पृष्ठस्तथा [तः सतामाह या मा] कुलाभूःप्रियेशृणु" इनमें से पहले चरणमें ऋषिदत्ताके प्रश्न का एक अंश और दसरमें शीलायधके उत्तरका एक अंश है। समालोचकजी कहते है कि कामक्रीडाके श्रनन्तर की बात चीतमें जब ऋषिदत्ताने शीलायुधको 'आर्यपुत्र' कहकर और और शीलायधने ऋषिदत्ताको प्रिये' कहकर संबोधन किया तो इससे उनके गंधर्व विवाहका पता चलता है--यह मालम होता है कि उन्होंने
आपसमें पति-पत्नी होने का टहराव कर लिया था और तभी भोग किया था: क्योकि "अार्यपत्र जो विशेषण हे यह पतिके लिये ही होता है" और "जो प्रिये विशेषण है यह पत्नी के ही लिये होता है।" इसी प्रकार जिनदास ब्रह्मचारीके हरिवंशपराणसे सिर्फ एक वाक्य ("इनि पष्ठः सतामचे मा भैषी शृणु वल्लभे") उद्धन करके उसमें आए हुए 'वल्लभे' विशेषणकी बाबत लिखा है - "ये भी पत्नी के लियेही होता है। परन्तु ये विशेषण पति-पत्नीके लियेही प्रयुक्त होते हैं-अन्यके लिये नहींऐसा कहीं भी कोई नियम नहीं देखा जाता। शब्द-कोशोंके देखनेसे मालम होता है कि आर्य पुत्र 'आर्यस्य पुत्र" आर्यके पुत्रको, "मान्यस्य पुत्र"-मान्यके पुत्र को और "गुरुपुत्र"-गुरुके पुत्रको भी कहते हैं (देखा 'शब्दकल्पद्रम' ) । 'आर्य' शब्द पज्य, स्वामी, मित्र, श्रेष्ट, श्रादि कितनेही अर्थों में व्यवहत होता है और इस लिये 'आर्य पुत्र' के और भी कितने ही अर्थ तथा वाच्य होते हैं । वामन शिवराम ऐप्टेने, अपने कोशमै,यहभी बत