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म्लेच्छौसे विवाह |
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भरतजी किसी वक्त घरमें वैरागी जरूर थे परन्तु वे उस वक्त वैरागी नहीं थे जबकि दिग्विजय कर रहे थे, युद्धमें लाखों जीवोंका विध्वंस कर रहे थे और हजारों स्त्रियों से विवाह कर रहे थे । यदि उस समय, यह सब कुछ करते हुए भी वे वैरागी थे तो उनके उस सुदृढ़ वैराग्यमें एक नीच जातिकी कन्यासे विवाह कर लेने पर कौनसा फर्क पड़ जाता है और वह किधर से बिगड़ जाता है ? महाराज ! आप भरतजी की चिन्ताको छांड़िये, वे आप जैसे अनुदार विचारके नहीं थे । उन्होंने राजाश्रौको क्षात्र धर्मका उपदेश देते हुए स्पष्ट कहा है :
स्वदेशेऽनतरम्लेच्छान् प्रजावाधाविधायिनः । कुलशुद्धिप्रदानायैः स्वसात्कुर्यादुपक्रमैः ॥ १७६ ॥ - आदिपुराण, पर्व ४२ वाँ ।
अर्थात् श्रपने देश में जो अज्ञानी म्लेच्छ प्रजाको बाधा पहुँचाते हो लटमार करते हो उन्हें कुलशुद्धि-प्रदानादिकके द्वारा अपने बना लेने चाहियें ।
क्रमशः
यहाँ कुल शुद्धि के द्वारा अपने बना लेने का स्पष्ट अर्थ म्लेच्छों के साथ विवाह संबंध स्थापित करने और उन्हें अपने धर्म में दीक्षित करके अपनी जाति में शामिल कर लेनेका है । साथ ही, यहभी जाहिर होता है कि म्लेच्छों का कुल शद्ध नहीं। और जब कुलही शुद्ध नहीं तब जातिशुद्धि की कल्पना तो बहुत दूरकी बात है ।
भरतजीने, अपने ऐसेही विचारों के अनुसार, यह जानते हुए भी किच्छा कुन शुद्ध नहीं है. उनकी बहुतसी कन्याश्र से विवाह किया । जिनकी संख्या, श्रादिपुराण में, मुकुटबद्ध राजाओं की संख्या जितनी बतलाई है। साथ ही, भरतजीकी कुलजातिसंपन्ना स्त्रियों की संख्या उससे अलग दी है । यथा:--