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विषाह-क्षेत्र प्रकाश
कुतश्चित्कारणायस्य कुलं सम्प्राप्तदूषणम् । सोऽपि राजादिसम्मत्या शोषयेत्स्वं यदाकुलं ।।१६८|| तदाऽस्योपनयाहत्वं पुत्रपौत्रादिसंततौ। न निषिद्धं हि दीक्षाह कुल चेदस्य पूर्वनाः ।।१६६।।
-४०वा सर्ग। शुद्धि का यह उपदेश भी भरत चक्रवर्तीका दिया हुआ श्रादिपुराण में बतलाया गया है और इससे दस्सो तथा हिन्दुस मुसलमान बने हुर मनुष्यों की शुद्धका खासा अधिकार पाया जाता है । ऐसी हालतमै समालाची भरत महाराजके अपमान और कलंककी बातकाक्या खयाल करते हैं, वे उनके उदार विचागे को नहीं पहुँच सकते, उन्हें अपनी ही सँभाल करनी चाहिये। जिसे वे अपमान और दूषण (कलक) की बात समझते है वह भरतजीके लिय अभिमान और भूषण की बात थीं। वे समर्थ थे, योजक थे, उनमें योजनाशक्ति थी और अपनी उस शक्तिक अनसार वे प्रायः किसी भी मनुष्य का अयोग्य नहीं समझते थे-सभी भव्यपुरुषोंको योग्यतामें परिणत करने अथवा उनकी योग्यतासे काम लेने के लिये सदा तय्यार रहते थे। और यह उन्हों जैसे उदारहृदय योजकोंके उपदेशादि का परिणाम है जो प्राचीन कालमें कितनी ही म्लेच्छ जातियांके लोग इस भारतवर्ष में पाए और यहाँके जैन, बौद्ध, अथवा हिन्दू धर्मोमें दीक्षित होकर आर्य जनता में परिणत होगये। और इतने मखलून हुए (मिलगये) कि आज उनके वंशके पूर्वपरुषोका पता चलाना भी मुशकिल हो रहा है। समालोचकजीको भारतके ग्राचीन इति. हासका यदि कुछ भी पता होता तो वे एक म्लेच्छ कन्याके विवाह पर इतना न चौकते और न सत्य पर पर्दा डालनेकी जघन्य चेष्टा करते । अस्तु ।