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म्लेच्छोसे विवाह ।
१०१ इस लिये उनके 'भीलों का राजा' शब्दोके छलको लेकर समालोचक जीने जो आपत्ति की हे वह बिलकुल निःसार है। पं० गजाधरलाल जी तो अपने उक्त लेख में स्वयं स्वीकार करते है कि उस समय म्लेच्छ किंवा भोलों आदि की कन्यासे भी विवाह होता था। यथा :"उस समय राजा लोग यदि म्लेच्छ किंवा भीलादि
की कन्याओसे भी पाणिग्रहण कर लेते थे तथापि उनके समान स्वयं ग्लेच्छ तथा धर्म कर्मसे विमुख न बन जातेथे किन्तु उन कन्याओं को अपने पथ पर ले पाते थे। और वे प्रायः पतिद्वारा स्वीकृत धर्मका ही पालन करती थी। इस लिये वसुदेवने जो जरा आदि म्लेच्छ कन्याओंके साथ विवाह किया था उसमें उनके धार्मिक रीतिरिवाजों में जरा भी फर्क न पड़ा था।" इस उल्लेख द्वारा प० गजाधरलाल जी ने जरा को साफ तौरसे । म्लेरछ कन्या' भी स्वीकार किया है और उसके बाद 'पादि' शब्द का प्रयोग करके यह भी घोषित कियाहै कि वसदेवने 'जरा' के सिवाय और भी म्लेछ कन्यानोसे विवाह किया था। समालोचकजी के पास यदि लजादेवी हो तो उन्हें, इन सब उल्लेखोंको देख कर, उसके आँचल में अपना मह छुपा लेना चाहिये और फिर कभी यह दिखलाने का साहस न करना चाहिये कि पंडितजी के उक्त शब्दों का पाच्य ' भील' राजा से भिन्न कोई ‘ार्य' राजा है।।
मालम होताहै समालोचक जी को इस खगालने घड़ा परेशान किया है कि भोल लोग बड़े काले, डरावने और बदसरत होते हैं, उनको कन्यासे वसुदेव जैसे रूपवान और अनेक रूप वती स्त्रियों के पति पुरुष क्यों विवाह करते । और इसीसे