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विवाह-क्षेत्र-प्रकाश।
थे कि 'तु चिरकाल तक इस संसार में निर्विघ्न रूप से जीता रहो' और इस प्रिय श्राशीर्वाद से संतुष्ट होकर वसुदेवजी उनसे यह निवेदन कर चुके थे कि 'कृपया इस रहस्य को गुप्त रखना, देवकी के इस पुत्र द्वारा श्राप बंधनसं छूटोगे (विमुक्तिरस्मात्तव दैवकेयात् )'। इस कथन के अनन्तर का ही उक्त पद्य है। इसके पूर्वार्ध में राजा उग्रसेनजी वसुदेवजी की प्रार्थना के उत्सर में पुनः आशीर्वाद देते हुए कहते हैं- 'यह मेरे भाई की पुत्री का पत्र शत्र से अज्ञात रह कर वद्धि को प्राप्त होवो,' और उत्तरार्ध में गन्थकर्ता प्राचार्य बतलाते हैं कि तब उग्रसेन की इस इष्ट वाणी का अभिनन्दन करके• उस की सराहना करके वे दोनो-वसुदेव और बलभद्रनगरो ( मथुरा ) से बाहर निकल गये।'
इस वाक्य से जहाँ इस विषय में कोई संदेह नहीं रहता कि देवकी राजा उगमेनके भाईकी पुत्री थी वहाँ यह बात और भी स्पष्ट हो जाती है कि वह वसुदेवकी भतीजी थी : क्योंकि उगसेन आदि वसुदेव के चचाज़ाद भाई थे और इस लिये उग्रसेनकी पुत्री न होकर उग्रसेनके भाई की पुत्री होनेसे देवकी के उस सम्बन्ध परमाणुमात्र भी अन्तर नहीं पड़ता।
राजा उग्रसेनके दो सगे भाई थे--देवसेन और महासेनजैसा कि पहले उद्धृत की हुई वंशावली से प्रकट है। उन में से, यद्यपि, यहाँ पर किसी का नाम नहीं दिया परन्तु पं० दौलतरामजी ने अपनी भाषा टीकामें उगसेन के इस भाईका नाम 'देवसेन' सूचित किया है । यथा:___" हे पूज्य यह रहस्य गोप्य राखियो। या देवकीके पत्र ते तिहारा वंदिगृह तें, छूटना हायगा। तब उग्रसेन कही यह मेरे भाई देवसेन की पुत्री का पुत्र वैरी की बिना जान में सुख ते रहियो।”