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वेश्याप्रोसे विवाह
व्यभिचारजात वेश्या-पुत्रियों को अपनी स्त्री बना लेनेसे-जैनधर्मको कोई कलंकानहीं लगा,जिसके लगजानेकी समालोचक जीने समालोचमाके अन्तमें आशंका की है, वे बराबर जिनपूजा करते रहे और उससे उनकी जिनदीक्षा तथा आत्मोन्नतिको चरमसीमा तक पहुंचाने के कार्य में भी कोई बाधा नहीं प्रासकी। इसलिये एक वेश्याको स्त्री बनालेना आजकल की दृष्टिसे भलेही लोक-विरुद्धहो परन्तु वह जैनधर्मके सर्वश विरुद्ध नहीं कहला सकता और न पहले ज़माने में सर्वथा लोकविरुद्ध ही समझा जाना था। आजकल भी बहुधा देशहितैषियोंकी यह धारणा पाई जाती है कि भारतकी सभी वेश्याएँ, घश्यावसिको छोड कर, यदि अपने अपने प्रधान प्रेमीकं घर बैठजायें-गहस्थधर्म में दीक्षित होकर गृहस्थन बन जायँ अथवा ऐसा बननेकेलिये उन्हें मजबूर किया जासके-और इसतरह भारतसे घेश्यावृत्ति उठजाय तो इससे भारतका नैतिकपतन रुककर उसका बहुत कुछ कल्याण हो सकता है । वे वेश्यागमन या व्यसनकी अपेक्षा एक वेश्यासे, वेश्यावृत्ति छुड़ाकर, शादी करलेने में कम पाप समझते है । और, कामपिशाचके वशवी होकर, वेश्याके द्वारपर पड़े रहने, ठोकरें खाने, अपमानित तथा पददलित होने और अनेक प्रकारकी शारीरिक तथा मानसिक यंत्रणाएँ सहते हुए अन्तको पतितावस्थामें ही मर जानेको छोरपाप तथा अधर्म मानते हैं । अस्तु ।
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कुटुम्ब में विवाह । चारुदत्तके उदाहरणको सभी प्रापत्तियोका निरसन कर अष मैं दूसरे-वसुदेवजी वाले-उदाहरण की आपत्तियों को लेता।
इस उदाहरण में सबसे बड़ी मापत्ति 'देवकीके' विवाह