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પદ
विवाह- क्षेत्र प्रकाश ।
मूल्य नहीं है, वे समझ सकते हैं कि ऐसे अप्रस्तुत गैरमुताल्लिक ( irrelevant ) हज़ार प्रमाणों से भी लेखकका वह उल्लेख असत्य नहीं ठहराया जासकता । और न ये दूसरे ग्रन्थोंके प्रमाण, जिनके लिये समालोचना के ७ पेज रोके गये हैं कथंचित् मतभेद अथवा विशेष कथन को प्रदर्शित करने के सिवाय, जिनसेनाचार्य के वचनों पर हो कोई आपत्ति करने के लिये समर्थ हो सकते हैं; क्योंकि ये सब ग्रन्थ जिनसेनाचार्य-प्रणीत हरिवंशपुराण से बाद के बने हुए हैं - जिनसेन का हरिवंशपुराण शक सं० ७०५ में, उत्तरपुराण शक सं० ८२० में, काष्ठासंत्री भट्टारक यशः कीर्तिका प्राकृत हरिवंशपुराण वि० सं० १५०० में और शुभचन्द्र भट्टारकका पाण्डवपुराण वि०सं०१६०८ में बनकर समाप्त हुआ: बाकी ब्रह्मनेभिदस्तके नेमिपुराण और श्राराधनाकथाकोश तथा जिनदास ब्रह्मचारीका हरिवंशपुराण ये सब ग्रन्थ विक्रम की प्रायः १६वीं शताब्दी के बने हुए हैंऐसी हालत में, इन ग्रन्थों का जिनसेनके स्पष्ट कथन पर कोई असर नहीं पड़ सकता और न, प्राचीनताको दृष्टि से, इन्हें जिनसेन के हरिवंशपुराण से अधिक प्रामाणिक ही माना जा सकता है। इन में उत्तरपुराण को छोड़कर शेष ग्रन्थ तो बहुत कुछ आधुनिक हैं, भट्टारको तथा * भट्टारक शिष्यों के रचे हुए हैं और उन्हें जिनसेन के हरिवंशपुराण के मुकाबले में काई महत्व नहीं दिया जा सकता। रहा उत्तरपुराण, उसके कथन से यह मालूम नहीं होता कि देवकी और वसुदेव में चचा भतीजी का सम्बन्ध नहीं था, बल्कि उस सम्बन्ध का होना ही अधिकतर पाया जाता है, और इस बात को श्रागे
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* ब्रह्मनेभिदत्त भट्टारक मल्लिभपण के और जिनदास ब्रह्मचारा भट्टारक सकलकीर्त्ति के शिष्य थे ।