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कटुम्बमें विवाह ।
यद्यपि कुटुम्ब नाते राजा उग्रसेन वसुदेवके भाई लगते थे परन्तु किसी अन्य कुटुम्बसे आई हुई स्त्रोसे उत्पन्न उग्रसेनकी पत्रीका भी वसुदेवने पाणिग्रहण कर लिया था । लेकिन उसके बाद फिर ऐसा जमाना श्राता गया कि लोगों के हदयोंसे धार्मिकवासना विदा ही हो गई, लोग खास पत्री और बहिन श्रादिको भी स्त्री बनाने में संकोच न करने लगे तो गोत्र श्रादि नियमों की श्रावश्यक्ता समझी गई लोगोंने अपने में गोत्रादिकी स्थापना कर चचा ताऊजान बहिन भाईके शादीसम्बन्धको बंद किया। वही प्रथा आजतक बराबर जारी है।"
इस अवतरण से इतनाही मालम नहीं होता कि पण्डित गजाधरलालजीने देवकी को राजा उग्रसेनकी पुत्री तथा वसु. देवको उग्रसेनका कुटम्बनाते भाई स्वीकार किया है और दोनों के विवाहको उस समयको दृष्टि से उचित प्रतिपादन किया है .बल्कि यह भी स्पष्ट जान पड़ता है कि उन्होंने उस समय चचा ताऊजात बहिन भाईके शादी सम्बंधका रिवाज माना है और यह स्वीकार किया है कि उससमय विवाहमें गोत्रादिके नियमों की कोई कल्पना नहीं थी, जरूरत पड़ने पर बादको उनकी सटि कोगई और तभीसे उस प्रकार के कुटुम्ब होनेवाले-शादी सम्बंध बंद किये गये।
इस अवतरण के बाद पंडितजीने, अाजकल बैंसे विवाहोंकी योग्यता का निषेध करने हुए, यह विधान किया है कि यदि धर्मके वास्तविक स्वरूपको समझकर लोगो में धर्म की स्वाभाविक-( पहले जैसी ) प्रवत्ति हाजाय तो आजकल भी पैसे विवाहोसे हमारी कोई हानि नहीं हो सकती। यथा.---
__ "इसलिये यह बात सिद्ध है वनदेव और देवकी कैसे विवाहोंकी इस समय योग्यता नहीं । ... लेकिन हाँ यदि हम