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कुटुम्बमें वियाह । करे कि 'श्रीगुणभद्राचार्य प्रणीत उत्तरपुराण के अनुसार सीता रावण की बेटी थी' तो क्या उस पुस्तक की समालोचना करते हुए किसी भी समालोचक को ऐसा कहने अथवा इस प्रकार की आपत्ति करने का कोई अधिकार है कि पुस्तककार का वह लिखना झूठ है, क्योंकि पद्मपुराणादिर्क दूसरे कितने ही प्रन्थों में सीता का राजा जनक की पुत्री लिखा है? कदापि नहीं। उसे उक्त कथन को झूठा बतलाने से पहले यह सिद्ध करना चाहिये कि वह उस उत्तरपाण में नहीं है जिस का पुस्तक में हवाला दिया गया है, अथवा पस्तककार पर झूठ को प्रारोप न करके, उस विषय में, सीधा उत्तरपुराणके रचयिता पर ही आक्रमण करना चाहिये। यदि वह ऐसा कुछ भी नहीं करता बल्कि उस पुस्तककार के उक्त कथनको मिथ्या सिद्ध करने के लिये पद्मपुराणादि दूसरे प्रन्यों के अवतरणों को ही उधत करता है तो विद्वानो की दृष्टि में उस की वह कृति (समालोचना ) निरी अनधिकार चर्चा के सिवाय और कुछ भी महत्व नहीं रख सकती और न उसके उन अवतरण का ही कोई मूल्य हो सकता है। ठीक यही हालत हमारे समालोचकजी और उनके उक्त अवतरणों ( उद्धृत वाक्यो) को समझनी चाहिये। उन्हें या तो लेखक के कथन के विरुद्ध जिनसेनाचार्य के हरिवंशपराण से कोई वाक्य उधत करके बतलाना चाहिये था और या वैसे (चचा भतीजा जैसे) सम्बन्ध-विधान के लिये जिनसेनाचार्य पर ही कोई प्राक्षेप करना चाहिये था ; यह दोनों बाते न करके जो आपने, लेखक के कथनको असत्य ठहराने के लिये, पाण्डवपुराणादि दूसरे ग्रन्थों के वाक्य उधत किये हे वे सब असंगत, गैरमुताल्लिक
और पाप की अनधिकार चर्चा का ही परिणाम जान पड़ते हैं, सद्विचार-सम्पन्न विद्वानों की दृष्टि में उन का कुछ भी