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विवाह क्षेत्र प्रकाश ।
गई है वह तो कोई ख़ास महत्व नहीं रखती । उसका तात्पर्य सिर्फ इतना हो है कि ' सप्ततनों में वेश्या सेवन भी एक व्यसन है, इस व्यसनको सेवन करने वाले बहुत से मनुष्य होगये हैं परंतु उनमें चारुदत्त का नाम ही जो ख़ास तौर से प्रसिद्ध चला जाता है वह इस बात को सूचित करता है कि इस व्यसन के सेवन में चारुदत्त का नाम जैसा बदनाम हुआ है वैसा दूसरे का नहीं । नाम की यह बदनामी ही चारुदत्त के प्रति घृणा और तिरस्कार है, इस लिये उस समयके लोग भी ज़रूर उसके प्रति घृणा और तिरस्कार किये बिना न रहे होंगे।' इस प्रकार के अनुमान को प्रस्तुत करने के सिवाय, समालोचक जी ने दूसरा कोई भी प्रमाण किसी ग्रन्थ से ऐसा पेश नहीं किया जिससे यह मालूम होता कि उस वक्त की जाति-बिरादरी श्रथवा जनताने चारुदत्तके व्यक्तित्व के प्रति घृणा और तिरस्कार का अमुक व्यवहार किया है । और अनुमान जो आपने बाँधा है वह समुचित नहीं है। क्योंकि एक वेश्याव्यसनी के रूपमें चारुदत्त का जो कथानक प्रसिद्ध है वह, एक रोगीमें व्यक्त होनेवाले रोगके परिणामोंको प्रदर्शित करने की तरह, चारुदत्तके उस दोषका फल प्रदर्शन अथवा उससे होनेवाली मुसीबतोंका उल्लेख मात्र है और उसे ज्यादा से ज्यादा उसके उस दोषकी निन्दा कह सकते हैं। परन्तु उससे चारुदत्त के व्यक्तित्व ( शखसियत Personality) के प्रति घृणा या तिरस्कारका कोई भाव नहीं पाया जाता जिसका निषेध करना उदाहरणमें अभीष्ट था और न किसीके एक दोषको निन्दास उसके व्यक्तित्व के प्रति घृणा या तिरस्कार का होना लाज़िमी आता है। दोष की निंदा और बात है और व्यक्तित्व के प्रति घृणा या तिरस्कार का होना दूसरी बात । श्रीजिनसेनाचार्य विरचित हरिवंशपुराणादि किसी भी प्राचीन ग्रन्थमें ऐसा कोई उल्लेख नहीं मिलता जिससे
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