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वेश्यांत्रों से विवाह
भी सहदय विचारशील इस बातकी कल्पना नहीं कर सकता कि चारुदसने घसंतसेनाको, उससे काम सेवाका कोई काम न देते हुए, केवल एक खिदमतगारिनी या नौकरनीके तौर पर अपने पास रक्खा होगा -ऐसी कल्पना करना उस सद्विचारसम्पन्नाके साथ न्याय न करके उसका अपमान करना है। फिर भी समालोचकजीकी ऐसीही विलक्षण कल्पना जान पड़ती है। इसीसे आप अपनीही बात पर जोर देते हैं और उसका प्राधार उक्त श्लोक को बतलाते हैं। परन्तु समझ नहीं आता उक्त श्लोकमे ऐसी कौनसी बात है जिसका आप श्राधार लेते हो अथवा जिससे आपके अर्थका समर्थन हो सकता हो। किसी भी विरुद्ध कथनके साथ न होते हुए, एक स्त्रीको अंगीकार करने का अर्थ उसे स्त्री बनाने के सिवाय और क्याहो सकता है? क्या 'स्वीकृतवान्' पदसे पहले 'स्त्रीपेण' ऐसा कोई पद न होनेसे ही भाप यह समझ बैठे हैं कि वसंतसेना की स्त्रीरूपसे स्वीकृति नहीं हुई थी या उसे स्त्रीरूपसे अंगीकार नहीं किया गया था ? यदि ऐसा है तो इस समझपर सहस्र धन्यवाद हैं? जान पड़ता है अपनी इस समझके भरोसे परही आपने श्लोकमें पड़े हुए 'श्वश्रवाः' पदका कोई खयाल नहीं किया और न 'स्वीकृति' या 'स्वीकार' शब्दके प्रकरणसंगत अर्थ पर ही ध्यान देनेका कुछ कष्ट उठाया !! श्लोक 'श्वश्रवाः' पद इस बातको स्पष्ट बतला रहा है कि चारुदत्त ने वसुदेवसे बातें करते समय अपनी माताको वसन्तसेनाकी 'सास' रूपसे उल्लेखित किया था और इसले यह साफ जाहिर है कि वसुदेव के साथ वार्तालाप करने से पहले चारुदत्तका वसंतसेनाके साथ विवाहको चका था। स्वीकरण, स्वीकृति, और स्वीकार शब्दो का अर्थ भी विवाह होता है इसीसे वामन शिवराम ऐप्टेने अपने कोश में इन शब्दोंका अर्थ Espousul, wedding तथा marriage