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विवाह- क्षेत्र प्रकाश ।
बारुदस पर शासक थी और उसके प्रथम दर्शन दिवस से ही यह प्रतिज्ञा किए हुए थी कि इस जन्म में मैं दूसरे पुरुष से संभोग नहीं करूंगी, चारुदत्त उससे लड़भिड़ कर या नाराज़ होकर विदेश नहीं गया बल्कि वेश्या की माता ने धन के न रहने पर जब उसे अपने घर से निकाल दिया तो वह धन कमाने के लिये ही विदेश गया था; उसके विदेश जाने पर वसन्तसेना ने अपनी माता के बहुत कुछ कहने सुनने पर भी, किसी दूसरे धनिक पुरुष से अपना सम्बन्ध जोड़ना उचित नहीं समझा और अपनी माता को यही उत्तर दिया कि चारुदत्त मेरा कुमार कालका पति है मैं उसे नहीं छोड़ सकती, उसे छोड़ कर दूसरे कुबेर के समान धनवान पुरुष से भी मेरा कोई मतलब नहीं है, और फिर अपनी माता के घर का ही परित्याग कर वह चारुदत्त के घर पर जा रही और उस की मातादिक की सेवा करती हुई चारुदत्त के आगमन की प्रतीक्षा करने लगी; साथ ही, उसने एक श्रार्थिका से श्रावक के व्रत लेकर इस बात की और भी रजिरी कर दी कि वह एक पतिव्रता है और भविष्य में वेश्यावृत्ति करना नहीं चाहती। इसके बाद चारुद जी विदेश से विपुलधन-सम्पत्ति के साथ घापिस आए और वसन्तसेना के अपने घर पर रहने आदिका सब हाल मालूम करके उससे मिले और उन्होंने उसे बड़ी खुशी के साथ अपनाया - स्वीकार किया । परन्तु यह सब कुछ मानते हुए भी, आपका कहना है कि इस अपनाने या स्वीकार करनेका यह अर्थ नहीं है कि चारुदत्त ने वसन्तसेनाको स्त्री रूपसे स्वीकृत किया था या घर में डाल लियाया बल्कि कुछ दूसरा ही अर्थ हैं, और उसे अपने निम्न दो वाक्यों द्वारा सूचित किया हैं(१) 'वारूदत्तने उपकारी और व्रतधारण करनेवाली समझ कर ही वसन्तसेना को अपनाया था
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