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विवाह-क्षेत्र प्रकाश |
उपेक्षा की जाती है-उसे जाति में रखने की पर्वाह न करके जाति से प्रथक् किया जाता है - तो उस उपेक्षा से वह मनुष्य तत्व से बहुत दूर जा पड़ता है । तत्व से दूर जा पड़नेके कारण उसका संसार बढ़ जाता है और धर्म की भी क्षति होती है - अर्थात्, समाजके साथ साथ धर्म को भी भारी हानि उठानी पड़ती है, उस का यथेष्ट प्रचार और पालन नहीं हो पाता ।'
श्राचार्य महोदय ने अपने वाक्यों द्वारा जैन जातियों और पंचायतों को ओ गहरा परामर्श दिया है और जो दूर की बात सुभाई है वह सभी के ध्यान देने और मनन करनेके योग्य है । जब जब इस प्रकार के सदुपदेशों और सत्परामर्शो पर ध्यान दिया गया है तब तब जैन समाजका उत्थान होकर उसकी हालत कुछ से कुछ होती रही है-इसमें अच्छे अच्छे राजा भी हुए, मुनि भी हुए और जैनियों ने अपनी लौकिक तथा पारलौकिक उन्नति में यथेष्ट प्रगति की, परन्तु जब से उन उपदेशों तथा परामर्शो की उपेक्षा की गई तभी से जैन समाज का पतन हो रहा है और आज उसकी इतनी पतितावस्था हो गई है कि उसके अभ्युदय और समृद्धि की प्रायः सभी बातें स्वप्न जैसी मालूम होती हैं, और यदि कुछ पुरातत्वों अथवा ऐतिहासिक विद्वानों द्वारा थोडासा प्रकाश न डाला जाता तो उन पर एकाएक विश्वास भी होना कठिन था। ऐसी हालत में, अब जरूरत है कि जैनियों की प्रत्येक जाति में ऐसे वीर पुरुष पैदा हो अथवा खड़े हो जो बड़े ही प्रेम के साथ युक्तिपूर्वक जातिके पंचों तथा मुखियाओं को उनके कर्तव्य का ज्ञान कराएँ और उनकी समाज-हित-विरोधनी निरंकुश प्रवृत्ति को नियंत्रित करने के लिये जी जान से प्रयत्न करें। ऐसा होने पर ही समाज का पतन रुक सकेगा और उस