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द्वि० लेखका उद्देश्य और उसका स्पष्टीकरख। ३७ हथियार को जो एक खिलौने की तरह अपने हाथमे ले रक्खा है और, विना उसका प्रयोग जाने तथा अपने बलादिक और देशकालकी स्थिति को समझे, जहाँ तहाँयद्वातद्वारूपमें उसका व्यवहार किया जाता है वह धर्म और समाजके लिये बड़ा ही भयकर तथा हानिकारक है। इस विषयमें श्रीसोमदेवसरि अपने * 'यशस्तिलक' ग्रन्थ में लिखते हैं :
नवैः संदिग्धनिा है विंध्यागणवर्धनम् । एकदोपकते त्याज्यः प्राप्ततत्वः कथं नरः ॥ यतः समयकार्यार्थो नानापंचजनाश्रयः । अतः संबोध्य यो यत्र योग्यस्तं तत्र योजयेत् ॥ उपेक्षायां तु जायेत तत्वाद्दूरतरो नरः ।
ततस्तस्य भवो दीर्घः समयोऽपि च हीयते ॥ इन पद्यों का प्राशय इस प्रकार है:__ 'ऐसे ऐसे नवीन मनुष्यों से अपनी जाति की समह-वद्धि करनी चाहिये जो संदिग्धनिर्वाह हैं-अर्थात् , जिनके विषय में यह संदेह है कि वे जाति के प्राचार विचार का यथेष्ट पालन कर सकेंगे। (और जब यह बात है तय ) किसी एक दोष के कारण कोई विद्वान् जाति से बहिष्कार के योग्य कैसे हो सकता है ? चंकि सिद्धान्ताचार-विषयक धर्म कार्यों का प्रयोजन नाना पंचजनों के प्राश्रित है-उन के सहयोग से सिद्ध होता है-अतः समझाकर जो जिस कामके योग्य हो उसको उसमें लगाना चाहिये-जातिसे प्रथक न करना चाहिये। यदि किसी दोषके कारण एक व्यक्तिक-शासकर विद्वानी___* यह ग्रंथ शक सं० ८८१ ( वि० सं० १०१६ ) में बनकर समाप्त हुआ।