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द्वि० लेखका उद्देश्य और उसका स्पष्टीकरण। ३५ कूट जिनालय में, प्रतिमागृहके सामने एक बहुत बड़ा विशाल मंडप होगा और उसमें स्तंभोंके बिभागसे सभी प्रार्य अनार्य जातियोंके लोगों के बैठने के लिये जुदाजदा स्थान नियतकर रक्खे होंगे। प्राजकल जैनियों में उक्त सिद्धकूट जिनालय के ढंगकोउसकी नीतिका अनुसरण करनेछाला-एकभी जैनमंदिर नहीं है । लोगों ने बहुधा जैन मंदिरोको देवसम्पत्ति न समझकर अपनी घरू सम्पत्ति समझ रक्खा है, उन्हें अपनी हीचहलपहल तथा श्रामोद-प्रमोदादिके एक प्रकारके साधन बना रक्खा है, के प्राय: उन महौदार्य सम्पन्न लोकपिता वीतराग भगवानके मंदिर नहीं जान पड़ते जिनके समवसरसमें पश्तक भी जाकर बैठतेथे, और न वहाँ, मूर्तिको छोड़कर, उन पूज्य पिताके वैराग्य, औदार्य तथा साम्यभावादि गुणों का कहीं कोई आदर्श ही नज़र पाता है। इसीसे वे लोग उनमें चाहे जिस जैनीको श्राने देते है और चाहे जिसको नहीं। कई ऐसे जैनमंदिर भी देखने में
आए हैं जिनमें ऊनी वस्त्र पहिने हुए जैनियोको भी घुसने नहीं दिया जाता । इस अनदारता और कृत्रिम धर्मभावनाका भी कहीं कुछ ठिकाना है ! ऐसे सब लोगोंको खूब याद रखना योग्य नहीं ठहराया और न उससे मंदिरके अपवित्र होजानेको ही सूचितकिया। इससे क्या यह नसमझ लिया जाय कि उन्होंने ऐसी प्रवत्तिका अभिनंदन किया है अथवा उसे बरानहीं समझा?
x चाँदनपुर महावीरजीके मंदिरमें तो वर्ष भरमें दो एक दिनके लिये यह हवा आ जाती है कि सभी ऊँच नीच जातियों के लोग बिना किसी रुकावटके अपने प्राकृत वेष-जते पहने और चमड़े के डोल श्रादि चोजे लिये दुए वहाँ चले जाते हैं। और अपनी भक्तिक अनुसार दर्शन पूजन तथा परिक्रमण करके वापिस पाते हैं।