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द्वि० लेखका उद्देश्य और उसका स्पष्टीकरण | २३
अन्तको उसके दिगम्बर मुनि तक होने में भी कुछ बाधक न हो सकी। इस तरह पर एक कुटुम्ब तथा जाति-बिरादरी के सद्व्यहार के कारण दो व्यसनासक्त व्यक्तियों को अपने उद्धार का अवसर मिला ।
इस पुराने शास्त्रीय उदाहरण से वे लोग कुछ शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं जो अपने अनुदार विचारों के कारण जरा जरा सी बात पर अपने जाति भाइयोंको जातिसे च्युत करके उनके धार्मिक अधिकारों में भी हस्तक्षेप करके उन्हें सन्मार्गसे पीछे हटा रहे हैं और इस तरह पर अपनी जातीय तथा संघशक्तिकां निर्बल और निःसत्व बनाकर अपने ऊपर अनेक प्रकार की विप तियों को बुलाने के लिये कमर कसे हुए हैं। ऐसे लोगों को संघशक्ति का रहस्य जानना चाहिये और यह मालूम करना चाहिये कि धार्मिक और लौकिक प्रगति किस प्रकार से होसकती हूँ । यदि उस समयको जाति-बिरादरी उक्त दोनों व्यसनासक्त व्यक्तियोंको अपने में श्राश्रय न देकर उन्हें अपने से पृथक कर देती, घृणा की दृष्टि से देखनी और इस प्रकार उन्हें सुधरने का कोई अवसर न देती तो अन्त में उक्त दोनों व्यक्तियों का जो धार्मिक जीवन बना है वह कभी न बन सकता । अतः ऐसे अवसरों पर जाति बिरादरी के लोगों को सोच समझकर, बड़ी दूरदृष्टि के साथ काम करना चाहिये । यदि वे पतितों का स्वयं उद्धार नहीं कर सकते तो उन्हें कमसे कम पतितों के उद्धार में बाधक न बनना चाहिये और न ऐसा अवसर ही देना चाहिये जिससे पतितजन और भी अधिकता के साथ पतित होजायँ ।” पाठकजन देखें और खूब ग़ौर से देखें, यही वह लेख है जिसकी बाबत समालोचकजी ने प्रकट किया है कि उसमें खूब ही वेश्यागमनकी शिक्षा कीगई और सबको उसका खुल्लम खुल्ला उपदेश दिया गया है, अथवा उसके द्वारा वेश्या तकको
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